विजय बहादुर सिंह

भोपाल, 25 अप्रैल। भारत भवन की दूसरी साँझ मेवाती घराना के हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत फनकार पं.संजीव अभ्यंकर के गायन से खिल उठी। न केवल खिल उठी बल्कि समूचे अंतरंग में उसकी सुवास की सम्मोहकता ने ऐसा असर डाला कि समूची रसिक मंडली तन्मयता में चली गई। पं.संजीव की प्रस्तुति ही ऐसी थी कि हम उन्हें देख सुन तो रहे ही थे,उनके स्वरों की आवर्तपूर्ण लहरों के बीच महान कवि संत तुलसी द्वारा रचित शब्दों के अर्थों तक ही नहीं,हम उन शब्दों मे सन्निहित अपेक्षित बोध भूमि तक भी जब तब पहुँच पा रहे थे। किसी भी कवि को जब कभी कोई ऐसा विरला गायक मिलता है, उसके शब्दों का सौंदर्य निहाल हो उठता है।

तुलसी आज जब कि समस्त हिन्दू और बहुतेरे ईसाई और इस्लामी समाज के भी बहुमान्य और लोकविख्यात कवि हो चुके हैं,और हिन्दू धर्म अपनी पहचान ढूँढ़ता उनके शब्दों तक आँख मूँद जब तब जाया भी करता है,पं.अभ्यंकर ने अपने गायन की शुरुआत उस दिन उन्हीं तुलसी की विनय पत्रिका के सुप्रसिद्ध पद –ऐसो को उदार जग माँही—से किया।

तुलसी के बारे में कहा जाता है कि चित्रकूट मेंं उन्हें हनुमान जी का साक्षात्कार हुआ था पर कभी राम से भी हुआ हो,ऐसा तो शायद ही कोई कह पाया हो।इतिहास तो यही कहता है कि राम अगर हुए भी रहे हों तो तुलसी के जीवन काल से लगभग दो ढाई हजार साल पहले कभी हुए होंगे। या कुछ और आगे पीछे। खुद तुलसी का अपना समय तो महान मुगल बादशाह अकबर और उनके उत्तराधिकारी जहाँगीर के शासन काल वाला रहा है। ये वही जहाँगीर हैं जिनके प्रेम की दीवानगी पर मुगलेआजम फिल्म बनी है और हिन्दुस्तानी मन जिस पर आज भी लट्टू है।

बेशक तुलसी ने अपनी विनय पत्रिका का यह पद इन्हीं दिनों के शासन काल में लिखा  है।

मुगलों का कुल शासन काल तो  1526से लेकर 1857तक ही है। बाबर से लेकर बहादुर शाह जफर तक। इनमें अकबर की उदारता और इस्लामी कट्टरपंथियों को नाराज करने के खतरे उठाकर भी हिन्दू समाज को उसका सही मान सम्मान और गौरव बोध सौंपना, टोडरमल, बीरबल और कछवाहे राजपूत मानसिंह को सबसे भरोसेमंद अधिकारियों की तरह अनुभव करना इतिहास प्रसिद्ध है। बीरबल जो मथुरा के आसपास के कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे और असल नाम जिनका पंडित सुखराम था,अकबर के मन और प्राण दोनों थे।

यह अकबर ही था जिसने अपनी माँ हमीदा बानू को समर्पित करने के लिए रामायण और महाभारत की कथाओं को लेकर वह रागमाला या चित्रमाला  बनवाई थी जिससे  माँ को हिन्दुत्व की सोच और कल्पनाशीलता के प्रति आत्मीयता और गौरव की अनुभूति हो सके।वे समझ सकें कि हिन्दुत्व असल में है क्या?

तुलसी से टोडरमल और रहीम के कितने ऊष्मापूर्ण,गहरे और आत्मीय संबंध थे इसकी चर्चा तो साहित्यिक आलोचना की किताबों में भरी पड़ी है। तुलसी महसूस कर रहे थे कि अयोध्या और वाराणसी के कठमुल्ले, दकियानूस, पुरातनता प्रेमी ब्राह्मण समुदायों के बीच रामचरित मानस को रच पाना कितना संघर्षपूर्ण और पीडा़जनक है। कथाकार अमृतलाल नागर  ने अपनी किताब -मानस का हंस-में ये कुछ हवाले  दिए भी हैं। यों कवितावली में खुद तुलसी ने– धूत कहौ,अवधूत कहौ,रजपूत कहौ,जुलहा कहौ कोऊ–में-एक यह पंक्ति भी दर्ज की है–माँग के खाइबो मसीत को सोइबो लैबे को एक न दैबे को दोऊ।

माँग कर खाना और तुम्हारे मंदिरों में जगह न मिलने पर मस्जिदों में सो जाने वाले तुलसी  को तुमसे अपनी बेटी या बेटे का रिश्ता तो करना नहीं है। तब तुम मेरा बिगाड़ भी क्या लोगे। तुम्हें गाली बकने,षड्यंत्र रचनेऔर प्रवाद फैलाने में मजा आता है तो करते रहो–मेरे ठेंगे से।

ऐसे में तुलसी को राम की यह उदारता अगर याद आती है और वे अपने ‘राम’को याद करते हुए यहाँ तक लिखते चले गए -बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर राम सरिस कोउ नाहीं। इस सोचते हुए मनुष्यता की उच्चतम मर्यादाएं ध्यान में आती हैं जो किसी को भी देवत्व की ओर ले जाती हैं। राम तभी तो हमारे ईश्वरोपम जैसे हुए।

पं. संजीव अभ्यंकर ने अपना गायन पद की इन्ही दो शुरुआती पंक्तियों तक सीमित रखा और बार बार -बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर राम सरिस कोउ नाहीं-के इतने आवर्त लिए कि यह पंक्ति हमारे कलेजे तक उतरती चली गई।

स्मृतियों ने कहा अगर तुम सच्चे रामभक्त हो तो द्रवित होने की उदारता को अपने आचरण की पहचान बनाओ। जो द्रवित होना नहीं जानता राम से उसका क्या संबंध?

इसके अलावा जो भी राम तुम्हें जहाँ तहाँ ढोंग करते सुनाई और दिखाई दे रहे हैं,वे राम के प्रेत तो हो सकते हैं, राम तो कैसे भी नहीं। राम होने के लिए उदारता और द्रवणशीलता पहली और आधारभूत शर्त है।

हमारे महान कवियों ने हिन्दुत्व की धर्मपरायणता की जैसी उदात्त कल्पनाएँ की हैं और सपने देखे हैं, वे यही हैं। तभी तो इकबाल जेसे महान उर्दू शायर ने भी यह महसूस किया कि राम तो इमामेहिन्द हैं।

कलाएँ शायद यही करती भी हैं कि वे हमारी भूली बिसरी और लगभग विकृत हो उठीं आधारभूत स्मृतियों को होश में लाकर उस चेतना तक पहुँचाती हैं जहाँ पहुँच कर कोई भी संस्कृति, परंपरा और समाज विश्व बोध के उच्चतम शिखरों का स्पर्श कर पाता है। न केवल स्पर्श कर पाता है,बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए मार्गदर्शी प्रकाश -स्तंभ  के रूप में वरेण्य भी हो उठता है।

पं. संजीव अभ्यंकर तुलसी की इन पंक्तियों को दुहराते हुए कितने तुलसीमय  हो चुके थे, कितने राममय और कितने अलबेले गायक शिरोमणि यह तो भारत भवन के अंतरंग के रसिकों का ही समाज जाने। तुलसी भी उस वक्त अगर कहीं होते तो पं.संजीव अभ्यंकर ही हो उठते।

उल्‍लेखनीय है कि पंडित संजीव अभ्यंकर (Sanjeev Abhyankar) को 1999 में हिंदी फिल्म गॉडमदर के गीत सुनो रे भाइला में सर्वश्रेष्ठ पुरुष पार्श्वगायक के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्रदान किया गया था। और शास्त्रीय कला के क्षेत्र में निरंतर उत्कृष्टता के लिए मध्य प्रदेश सरकार द्वारा  कुमार गंधर्व राष्ट्रीय पुरस्कार 2008 से भी नवाजा गया था।

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