अमरपाल सिंह वर्मा

कम्प्यूटर, मोबाइल और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की मार्फत फैल रहे आभासी संसार के बावजूद बच्चों में आज भी पारंपरिक खिलौनों के प्रति उत्साह बाकी है। सरकारी आंकड़े तक इसकी तस्दीक करते हैं कि भारत ने खिलौना-बाजार में खासी बढ़त बनाई है, लेकिन ऐसे खुशनुमा माहौल में स्थानीय खिलौना-निर्माता क्यों पिछड़ रहे हैं?

पंजाब के एक छोटे से कस्बे धनौला Dhanaula में पारंपरिक रूप से wooden toys लकड़ी के खिलौने बनाने वाले सैकड़ों कारीगरों की आर्थिक बदहाली परेशान करने वाली है। दशकों से ये कारीगर बच्चों के लिए लकड़ी के ट्रैक्टर, बस, कम्बाइन, ट्रॉली आदि बनाते आ रहे हैं। पहले हजारों घरों के बच्चे इन खिलौनों से खेलकर खुश होते थे जिससे इन कारीगरों के बच्चों के भरण-पोषण का रास्ता खुलता था, पर अब हालात बदल रहे हैं। धनौला Dhanaula के कारीगरों के बनाए खिलौने बड़ी कंपनियों के बनाए अति-आधुनिक खिलौनों से होड़ में पिछड़ रहे हैं। इसका नतीजा इन कारीगरों के परिवारों की तंगहाली के रूप में सामने है।

बरनाला और संगरूर के बीच बसे खिलौनों के लिए मशहूर धनौला Dhanaula के कारीगरों की यह हालत उस समय है, जब भारतीय खिलौना बाजार को संभावनाओं से भरपूर बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि देश में खिलौनों का बाजार फल-फूल रहा है। ‘केंद्रीय व्यापार एवं उद्योग मंत्रालय’ की ओर से इस साल प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि वित्तीय वर्ष 2014-15 से वित्तीय वर्ष 2022-23 के बीच हमारे देश के खिलौना उद्योग में तीव्र गति से उन्नति हुई है।

देश से खिलौनों के निर्यात में 239 फीसदी की बढ़ोतरी

यह रिपोर्ट दावा करती है कि एक ओर जहां हमारे देश से खिलौनों के निर्यात में 239 फीसदी की भारी बढ़ोतरी हुई है, वहीं दूसरी ओर आयात में 52 प्रतिशत तक की कमी आई है। यह भी दावा है कि ‘मेक इन इंडिया’ अभियान से हमारे देश का खिलौना उद्योग नई ऊंचाइयों पर पहुंच गया है। खिलौना उद्योग में हमारी प्रगति से चीन को झटका लगा है।

जैसा कि इस रिपोर्ट में कहा गया है, भारतीय खिलौना बाजार में असीम संभावनाएं हैं और इन्हीं संभावनाओं के बूते वह खुदरा विक्रेताओं, व्यापारियों और उद्यमियों को अपनी ओर खींच रहा है। यह भी दावा है कि वर्ष 2024 में हमारे देश का खिलौना बाजार 1.72 बिलियन अमेरिकी डॉलर का है, जिसके  2028 तक 3 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है। जैसे-जैसे भारतीय अर्थव्यवस्था का विस्तार हो रहा है, लोग अपने बच्चों के लिए अधिक संसाधन जुटा रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप खिलौनों पर खर्च बढ़ रहा है।

इन आंकड़ों से हम देश के खिलौना बाजार में बरस रहे पैसे का अंदाजा आराम से लगा सकते हैं। देश-विदेश में भारत निर्मित खिलौनों की मांग बढऩे से जहां खिलौना निर्माताओं की चांदी हो गई है, वहीं खुदरा विक्रेता को भी फायदा मिल रहा है। यकीनन, खिलौना बाजार की इस प्रगति की हमें खुशी मनानी चाहिए, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि खुशी की इस बेला में धनौला कस्बे के खिलौने बनाने वाले कारीगर उदास क्यों हैं?

कारीगर हमारी धरोहर हैं, इन्हें संरक्षण दिया जाना चाहिए

यह सही है कि बदलते परिवेश में बच्चों की पसंद बदल रही है। वे इलेक्ट्रॉनिक खिलौनों को तरजीह देते हैं। चीन निर्मित खिलौनों ने बच्चों की पसंद को बदलने में बड़ी भूमिका निभाई है, लेकिन क्या ऐसे में पारंपरिक कारीगरों को उपेक्षित छोड़ दिया जाना चाहिए? अकेले पंजाब के धनौला में ही सैकड़ों कारीगर हैं, जिनके परिवारों की रोजी-रोटी लकड़ी के खिलौने बेचकर ही चलती है। पूरे देश में तो ऐसे पांरपरिक कारीगरों की संख्या लाखों में होगी, जिनकी कला प्राचीन भले ही है, लेकिन हमारी संस्कृति से जुड़ी हुई है। ये कारीगर हमारी धरोहर हैं, इन्हें संरक्षण दिया जाना चाहिए।

स्थानीय कारीगरों के बनाए खिलौने क्यों पिछड़ रहे हैं?

सरकारी दावा है कि ‘मेक इन इंडिया’ अभियान घरेलू खिलौना उत्पादन को सक्रिय रूप से बढ़ावा देता है, स्थानीय रूप से निर्मित खिलौनों की ओर रूझान बढ़ाता है और आयात पर निर्भरता कम करता है। अगर यह सच है तो धनौला के स्थानीय कारीगरों के बनाए खिलौने क्यों पिछड़ रहे हैं? क्यों धनौला के कारीगर खिलौने बनाने का काम छोडऩे पर मजबूर हो रहे हैं? उनके बनाए खिलौनों की ओर रूझान बढ़ाने की कोशिश क्यों नहीं की जा रही है?

‘केंद्रीय व्यापार एवं उद्योग मंत्रालय’ की रिपोर्ट में संभावना जताई गई है कि जैसे-जैसे शहरीकरण बढ़ेगा, खिलौनों की मांग बढ़ेगी और खिलौना बाजार और फले-फूलेगा, लेकिन खुशी के इस मौके का आनंद मनाने का मौका दूरदराज के छोटे कारीगरों को भी तो मिलना चाहिए। धनौला जैसी छोटी जगहों के कारीगरों को यह कहकर तो उपेक्षित नहीं छोड़ा जा सकता कि उनके खिलौने ‘आउटडेटेड’ हो गए हैं। सरकार को ऐसे गरीब कारीगरों की भी सुध लेनी चाहिए। अगर उन्हें प्रोत्साहित किया जाए तो ये कारीगर अपने पारंपरिक खिलौनों को आधुनिक शैली में ढाल सकते हैं। उन्हें इस बारे में ट्रेनिंग दी जा सकती है। ऑनलाइन मार्केटिंग सिखाई जा सकती है। ‘मुद्रा लोन’ जैसी योजनाओं का लाभ ऐसे छोटे कारीगरों को भी तो मिलना चाहिए। जब सरकारी अधिकारी इन कारीगरों की बस्तियों तक पहुंच कर उनका हाल पूछेंगे तो हो सकता है कोई रास्ता निकल ही आए। सरकार चाहे तो क्या नहीं कर सकती? (सप्रेस)

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