गणेश शंकर विद्यार्थी की जयंती पर विशेष

गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्तूबर 1890 को अपनी नानी गंगा देवी के घर अतरसुरैया इलाहाबाद (प्रयागराज) में हुआ था। उनका नाम उनकी नानी ने पहले ही चुन लिया था जब उन्होंने अपनी पुत्री यानी गणेश शंकर की मां गोमती देवी को स्वप्न में गणेश की मूर्ति भेंट की थी। जागने पर उन्होंने तय किया कि वे उसका नाम गणेश ही रखेंगी। गणेश जी बचपन में भी दुबले पतले रहे और युवावस्था में भी वैसे ही रहे। उनकी आंखें छोटी-छोटी थीं और बाद में गोल चश्मे के भीतर से भी वैसी ही दिखती थीं। लेकिन इस दुबले-पतले व्यक्ति का साहस अद्वितीय था और उनकी छोटी आंखों की दृष्टि बहुत व्यापक थी।

उनके इसी विलक्षण व्यक्तित्व की प्रशंसा करते हुए महात्मा गांधी ने कहा था, “हमें तो गणेश शंकर विद्यार्थी बनना चाहिए। गणेश शंकर की तरह एक-एक विद्यार्थी अपना अपना शांति दल बना सकते हैं। लेकिन सवाल उठता है कि विद्यार्थी की तरह ऐसे कितने आदमी हैं? वह भले ही हमारे सामने मर गया हो लेकिन उसकी आत्माहुति व्यर्थ नहीं गई है। उसकी आत्मा मेरे दिल पर काम करती रहती है। मुझे जब उसकी याद आती है तो उससे ईर्ष्या होती है। इस देश में दूसरा गणेश शंकर क्यों नहीं पैदा होता? उसकी अहिंसा सिद्ध अहिंसा थी। (मैं चाहता हूं कि) उसी की तरह कुल्हाड़ी के प्रहार सहते हुए मैं शांतिपूर्वक मरूं। मैं चाहता हूं कि मुझे ऐसा मौका मिले और आपको भी मिले। गणेश शंकर को ऐसा मौका मिला था इसलिए उसकी याद आते ही ईर्ष्या होती है। क्यों नहीं ऐसा मौका मुझे मिलता? ’’

अपने इसी श्रद्धांजलि वक्तव्य में गांधी कहते हैं कि, “हिंदू मुसलमानों की सच्ची सेवा गणेश शंकर की तरह करनी है। यही रास्ता दोनों को एक दिन मिला सकता है और एक-दूसरे को भाई बनाने में मदद कर सकता है।’’ नेहरू जी जार्ज बर्नार्ड शा का उल्लेख करते हुए कहते हैं, “मानव जीवन का सच्चा सुख इसी में है कि जीवन का ऐसे उद्देश्य के लिए उपयोग किया जाए, जिसको आप महान और उत्कृष्ट समझते हों। आप अच्छी तरह जीर्ण और जर्जरित हो जाएं, पूर्व इसके कि कूड़े के ढेर पर फेंक दिए जाएं।’’

संयोग ही देखिए कि 1931 मार्च के वे दो-तीन दिन भारतीय इतिहास पर कितने भारी हैं। एक ओर 23 मार्च को क्रांतिकारी भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी पर लटका दिया जाता है और उसके दो दिन बाद 25 मार्च को गणेश शंकर विद्यार्थी की कानपुर के दंगों में हत्या हो जाती है। विद्यार्थी जी महात्मा गांधी के जितने करीबी थे उतने ही करीबी थे भगत सिंह और उनके साथियों के।

इसलिए गणेश शंकर विद्यार्थी की पत्रकारिता और उनके जीवन को समझे बिना हम भारत के स्वाधीनता संग्राम को समझ ही नहीं सकते। गणेश शंकर विद्यार्थी, माखन लाल चतुर्वेदी और बाबू राव विष्णु पराड़कर यह भारतीय पत्रकारिता की ऐसी धाराएं हैं जहां स्वाधीनता की वेगमयी धारा बहती है। उसे वेगमयी धारा में स्वाधीनता संग्राम की सभी धाराओं को संगम होता है और उन्हें किसी भी प्रकार की कोई अड़चन नहीं होती। जो लोग गांधी बनाम भगत सिंह की अनवरत बहसों में लगे रहते हैं उन्हें माखनलाल चतुर्वेदी और गणेश शंकर विद्यार्थी के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए। विद्यार्थी जी के अखबार में भगत सिंह, लाला हरदयाल, पंडित सुंदरलाल, राम प्रसाद विस्मिल के लेख छपते थे। लेकिन इसी के साथ वे महात्मा गांधी के भी अनन्य अनुयायी थे। बल्कि वे उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे। यह रिश्ता वैसा ही था जैसे माखनलाल चतुर्वेदी का स्वतंत्रता आंदोलन की क्रांतिकारी धारा और सत्याग्रही धारा से था। माखनलाल जी तो पहले बंदूक चलाते थे क्रांतिकारियों के साथ। बाद में उन्होंने बनारस में गांधी के चरणों में अपने हथियार रखकर उनका साथ पकड़ा। माखनलाल जी ने जब कर्मवीर निकाला तो यह कहा कि उनके इस अखबार में क्रांतिकारियों के खिलाफ कोई भी बयान और लेख नहीं छपेगा चाहे वह गांधी जी का ही हो।

कुछ ऐसा ही व्यक्तित्व और विचार था गणेश शंकर विद्यार्थी का। पत्रकारिता का इतिहास और गणेश शंकर विद्यार्थी का मोनाग्राफ लिखने वाले कृष्णबिहारी मिश्र लिखते हैं, “गांधीवादी विचार सरणि में अटूट आस्था के बावजूद प्रताप के संपादक ने अपने पत्र में लाला हरदयाल, वीर सावरकर, लाला लाजपत राय, इत्यादि राजनेताओं के विरोधी विचारों को सम्मान के साथ छापा था और उसकी महत्ता को रेखांकित करने वाली टिप्पणियां लिखी थीं,दूसरों के लेख छापे थे। भाई परमानंद का `हरदयाल और सावरकर’ शीर्षक लेख 12 अक्तूबर 1925 के अंक में छपा था। लोकमान्य तिलक को जैसी श्रद्धांजलि प्रताप ने दी थी, वह गणेश शंकर विद्यार्थी के विवेक और औदार्य का प्रमाण है। पंडित मदनमोहन मालवीय, देशबंधु चितरंजन दास और प्रफुल्ल चंद राय की नीतियों से वैमत्य रखते हुए भी…..गणेश शंकर विद्यार्थी उनकी नीतियों के बारे में पूरी गुरुता से टिप्पणी लिखते थे।’’

प्रताप अखबार ने 25 दिसंबर 1927 के अंक में टिप्पणी लिखी है काकोरी केस के चारों युवकों को फांसी। उसकी शुरुआत ही हितैषी की उद्भावना से होती हैः–  

हम सरेदार व सदशौक से जो घर करते हैं

ऊंचा सिर कौम का हो नज यह सर करते हैं

सूख जाए न कहीं पौदा यह आजादी का

खून से अपने इसे इसलिए तर करते हैं

…….

इस गुलामी में खुशी हमको तो आई न नजर

खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं

इस अखबार ने 8 जनवरी 1928 के अंक में शहीद अशफाक उल्ला खां का शव चित्र और उन पर केंद्रित टिप्पणी छापी है। 25 जनवरी के अंक में रामप्रसाद विस्मिल का चित्र और उन पर टिप्पणी है। 12 फरवरी 1928 के अंक में राजेंद्र लाहिड़ी के शव का चित्र छापा है।

यहां एक बात जानना दिलचस्प होगा कि हालांकि विद्यार्थी जी ने महावीर प्रसाद द्विवेदी को अपना गुरु मानते हुए उनके साथ सरस्वती में पत्रकारिता की शुरुआत की लेकिन साहस के मामले में वे उनसे कहीं आगे थे। महात्मा गांधी ने 1917 में जब चंपारण सत्याग्रह आरंभ किया तो सरस्वती पत्रिका गांधी और उनके आंदोलन के विरुद्ध टिप्पणी छापती थी जबकि प्रताप अखबार ने उस आंदोलन का जमकर समर्थन किया और मोतिहारी से भेजी गई एक पत्रकार की कई साहसिक रपटें छापीं। संभवतः प्रताप ने पहली बार गांधी को महात्मा भी लिखा था भारत में।

विद्यार्थी को समझने की जरूरत आज इसलिए है क्योंकि हम अपने स्वाधीनता संग्राम के आपसी झगड़े ही नहीं उसके मेल मिलाप को भी समझ सकें। हम यह जान सकें कि गांधीवादी और क्रांतिकारी लोग एक दूसरे से अलग मत रखते हुए परस्पर बहुत आदर करते थे। उनका मकसद बड़ा था और उसमें किसी तरह की स्वार्थी छीनाझपटी नहीं बल्कि त्याग और बलिदान की होड़ थी।

दरअसल सांप्रदायिक सद्भाव, स्वतंत्रता और लोकतंत्र एक दूसरे के पूरक हैं। यही वे तत्व हैं जो समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का पूरा वितान रचते हैं। यह मूल्य गणेश शंकर विद्यार्थी जी में कूट-कूट कर भले थे। वे धार्मिक कट्टरता पर निरंतर प्रहार करते थे। चाहे वह धार्मिक कट्टरता हो या राजनीतिक। वे ऐसे पत्रकार थे जो हमारे समाज को उदार बनाते हुए स्वतंत्र बना रहे थे। ताकि वहां जो भी व्यवस्था कायम हो उसमें प्रेस की आजादी की सही मायने में उपयोग हो। वह सत्ता के आगे घुटने न टेक दे और अपने विरोधी से अभद्र भाषा में संवाद न करे। साथ ही वह विपरीत मत को भी अपने भीतर स्थान दे।

विद्यार्थी जी के लिए जिस तरह से हिंदू और मुसलमान एक दूसरे के दुश्मन नहीं थे वैसे ही गांधी और भगत सिंह भी शत्रु नहीं थे। एक के साथ रहने का अर्थ दूसरे को गाली देना नहीं होता। उन्हें समझने की जरूरत आज की युवा पीढ़ी को है और हमारे इतिहासकारों को भी जो यह मानते हैं कि आजादी की लड़ाई में हम अंग्रेजों से ज्यादा आपस में लड़ रहे थे।  

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