दुनिया-जहान में महिला अधिकारों की मुखर पैरोकार की हैसियत से जानी-पहचानी गईं कमला भसीन पिछले सप्ताह(25’ सितंबर ‘21) हमसे सदा के लिए विदा हो गईं हैं। उनके लंबे, संघर्षपूर्ण जीवन और काम-काज के बारे में लिखना यूं तो कठिन है, लेकिन फिर भी ‘सप्रेस’ के लिए सुरेश तोमर ने इस पर कलम चलाई है।
वे कहती थीं – ‘‘सिर्फ महिलाओं के संसद में आने से चीजें बेहतर नही होंगी। मैं चाहती हूँ कि अधिक नारीवादी महिलाएं संसद में पहुंचें। जब नारीवादी महिला स्त्री-पुरूष समानता की बात करेंगी तो वे महिला कास्ट (जाति) के चक्कर में पीछे नहीं हटेंगी। मैं नारीवादी महिला ही नहीं, मैं नारीवादी पुरूष भी चाहती हूँ, क्योंकि यह सोच, कोई जिस्मानी सोच नहीं है। नारीवाद से हमारा मतलब है ‘‘समानता और सिर्फ समानता।’’
देखा जाए तो स्त्री-पुरुष समानता के लिए जो संघर्ष लगभग चार दशक पहले उन्होंने शुरू किया था वह आज पर्याप्त विस्तार पा चुका है। उनका जन्म 1946 में मंडी बहाउ्दीन (पाकिस्तान) में हुआ था। वे अपने आपको पूरे दक्षिण-एशिया का नागरिक मानती थीं। ये बात और है कि वे आधिकारिक तौर पर भारत की नागरिक थीं। वे 75 साल की हो चुकी थीं, पर मैंने हमेशा उन्हें उत्साह और ऊर्जा से भरी एक 25 साल की युवती की तरह ही देखा। इस उम्र में भी काम करने की उनकी सक्रियता प्रेरणास्पद थी। इतनी उम्र के होने के बावजूद वे दिन में लगभग 16-18 घंटे सक्रिय रहतीं थीं। व्यक्ति की सकारात्मकता और दृढ़ लक्ष्य के लिए प्रतिबद्धता उसे सदैव गतिशील और ऊर्जावान बनाए रखती है, और वे इसका जीता जागता उदाहरण थी।
मैं उन्हें तब से जानता था जब वर्ष 2009-10 में मैंने चंबल क्षेत्र में जेंडर समानता विषय पर काम करना शुरू किया था। इस विषय पर लिखना-पढ़ना अलग मसला है और चंबल जैसे स्त्री विरोधी इलाके में काम करना अलग बात है। यहाँ आपको एक व्यवहारिक दृष्टिकोण की जरूरत होती है। नारीवाद का ये व्यवहारिक दृष्टिकोण मुझे कमला दी से ही मिला। कमला दी की लिखी, ‘जागोरी’ द्वारा प्रकाशित उनकी पुस्तिकाओं से ही मैंने जेंडर (स्त्री विमर्श) की अपनी समझ विकसित की। फिर मैंने ‘‘सत्यमेव जयते’’ में आमिर खान से बात करते हुए उन्हें देखा। दिल्ली और भोपाल के कुछ कार्यक्रमों में उन्हें सुना।
नारीवाद पर तमाम किताबों को पढ़ते हुए हमेशा लगता था कि जितने सरल ढंग से कमला दी नारीवाद की व्याख्या करती हैं, कोई दूसरा नहीं कर पाता। उनका कहना था कि जब तक आप पितृसत्ता, मर्दानगी और स्त्री-पुरूष की बराबरी संबंधी पारम्परिक और रूढि़वादी धारणाओं को नहीं समझेंगे, आप स्त्री-पुरूष की असमानता को समाप्त नहीं कर सकते। उनके विचार, गीत, चुटकुले और साथियों के बीच विशिष्ट पहचान रखने वाली उनकी हंसी सभी स्त्री-पुरूष की बराबरी के अस्त्र थे।
वे अपने जीवन की तमाम दुश्वारियों के बावजूद हमेशा हंसती रहती थीं। उनका कहना था कि स्त्री-पुरूष समानता की लड़ाई बहुत लंबी चलने वाली है। हम इसे दुःखी रहकर और गुस्से या नाराजी के साथ नहीं लड़ सकते, यह लड़ाई हंसते-मुस्कुराते हुए ही लड़ी जा सकती है। धर्मशाला (हिमाचल) में बना ‘जागोरी’ का प्रशिक्षण-केन्द्र हर साल मई-जून महिनों में जेंडर समानता की समझ विकसित करने के लिए पन्द्रह दिवसीय प्रशिक्षण आयोजित करता है। जिसका दारोमदार मुख्यतः कमला दी और उनकी सहयोगी आभा भैया पर ही रहता है।
कमला भसीन का कहना था कि पितृसत्ता ने पुरूषों को इस तरह से प्रशिक्षित किया है कि उन्हें सत्ता के चक्कर में इसके लाभ तो नजर आते हैं, परंतु इससे होने वाले नुकसान नजर नहीं आते। सत्ता के अहंकार में पुरूष अपने परिवारों में आत्मीय व्यवहार नहीं कर पाता और वह अपने परिवार में स्त्री और बच्चों के प्रेम और अपनेपन से वंचित हो जाता है। जो पुरूष, स्त्री पर हिंसा करता है वह सुखी कैसे रह सकता है? उसके अंदर बहुत कुछ अधूरा रह जाता है। उनका कहना था कि जिस परिवार में माता-पिता बराबरी के व्यवहार के साथ, एक-दूसरे का सम्मान करते हुए रहते हैं, उस परिवार के बच्चे भी यही भाव देखते और सीखते हैं। जिस परिवार में माता-पिता के बीच असमान व्यवहार, तनाव और हिंसा होती है, पिता रोज मां पर अत्याचार करता है उस परिवार के लड़के उसी तरह का व्यवहार सीखते हैं और लड़कियां हिंसा सहना सीखती हैं।
कमला दी ने जेंडर समानता पर अनेक किताबें लिखीं, ढेरों गीत और लोकगीत लिखे। वे जेंडर समानता के विषय को बहुत आसानी से समझाती थीं। सामाजिक लिंग की समझ, पितृसत्ता, और महिलाओं पर होने वाली हिंसा जैसे विषयों पर लिखी उनकी पुस्तकें और गीत, जेंडर समानता पर काम करने वाले देशभर के तमाम व्यक्तियों और संस्थाओं के लिये बेहद उपयोगी हैं। उनका एक गीत है:- ‘’सीना-पिरोना है धंधा पुराना, हमें दो ये दुनिया गर रफू है कराना।‘’
नाटक ‘द वजाइना मोनोलॉग्स’ की लेखिका ईव एंस्लर द्वारा शुरू किए गए वैश्विक आंदोलन ‘‘उमड़ते सौ करोड़’’ (वन बिलियन राइजिंग) की दक्षिण-एशिया में वे कर्ता-धर्ता थीं। गीत-संगीत और नृत्य के मिश्रण से बना उनका व्यक्तित्व इस विश्वव्यापी आंदोलन के लिये बहुत मुफीद था। ‘संगत’ और ‘जागोरी’ जैसे महत्वपूर्ण संगठनों के पीछे वे ही मुख्य प्रेरणास्रोत थीं। उनकी प्रेरणा से ही सावित्रीबाई फुले के जन्मदिन 3 जनवरी को प्रतिवर्ष ‘भारतीय महिला दिवस’ मनाने का निर्णय लिया गया है। निसंदेह यह पहल भविष्य में बड़ा आंदोलन बनेगी।
यूं तो कमला दी का नारीवाद एक शब्द है जो स्त्री और पुरुष के बीच की समानता को व्यक्त करता है, परंतु विस्तार में जाएं तो उसमें विश्व बंधुत्व समाया हुआ है जहां दो व्यक्तियों के बीच की हर प्रकार की गैर-बराबरी का विरोध है। स्त्री-पुरूष के बीच समानता का जो आंदोलन उन्होंने शुरू किया है वो इसी शिद्दत के साथ आगे बढ़ता रहेगा। कमला भसीन अब शरीर रूप में हमारे साथ नहीं हैं पर वे अपने व्यक्तित्व और अपने समाज के लिए योगदान के माध्यम से हमेशा हमारे बीच रहेंगी।(सप्रेस)
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