शास्त्रीय संगीत के प्रसिद्ध गायक पंडित जसराज अब इस दुनिया में नहीं रहे है। मेवाती घराने के पंडित जसराज का 17 अगस्त को अमेरिका के न्यू जर्सी में अपनी अंतिम सांस ली । वे 90 साल के थे। अपने 80 साल के म्यूजिक करियर में पंडित जसराज को कई अवॉर्ड व सम्मान मिले। इनमें पद्मश्री, पद्म भूषण और पद्म विभूषण भी शामिल हैं. बीते साल International Astronomical Union ने मार्स और जुपिटर के बीच एक छोटे से प्लैनेट का नाम उनके नाम पर रखा था, जो कि भारतीय शास्त्रीय संगीत की दुनिया में प्रमुख माने जाते हैं। उस मामूली सा गृह 2006 VP32 (संख्या-300128) था, जिसका नाम ‘पंडित जसराज’ रख दिया गया था।
पंडित जसराज से दो बार मिलने का मौका मिला। पहली बार कोई 25-26 बरस पहले भिलाई में ”बालाजी संगीत कल्याणोत्व” नामक आयोजन में और फिर 2005-06 के आस-पास जमशेदपुर में एक सभा के सिलसिले में। अपनी आदत से लाचार, सभा से पूर्व मैं पंडितजी से मिलने भी पहुंचा। जमशेदपुर का आयोजन मुंबई के किन्हीं अजगैवी प्रकाशन वालों ने कराया था। इस प्रकाशन का नाम मैंने पहले कभी नहीं सुना था, पर आयोजन के तामझाम से लग रहा था कि वे किताबों के धंधे में मोटी कमाई कर रहे होंगे। आयोजक थोड़े ठसन वाले थे और चूंकि पंडितजी को उन्होंने आमंत्रित किया था, इसलिए वे उन पर अपना पूरा अधिकार छाँट रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि पंडितजी कहां ठहरे हैं तो उन्होंने यह कहकर बताने से साफ इंकार कर दिया कि वे कलकत्ते से कार से आये हैं, थके हैं और किसी से मिलना नहीं चाहते। मुझे उन पर गुस्सा नहीं आया, उनकी सादगी पर तरस आया।
‘सेंटर पाइंट’ जमशेदपुर के अभिजात्य इलाके में है, सबसे बड़ा होटल माना जाता है और कोई बड़ा आदमी आये तो यहीं ठहरता है, ये बातें सभी को मालूम हैं। प्रकाशक महोदय के दो-तीन शागिर्द आयोजन की तैयारियों में व्यस्त थे। मैंने उनमें से एक से अधिकारपूर्वक पूछा कि ‘सेंटर पाइंट’ में पंडित जी किस कमरे में है? उसने कमरे का नंबर तो नहीं बताया पर उनके वहां होने की पुष्टि कर दी। मुझे बस इतनी ही जरूरत थी। आनन-फानन में मैं अपने मित्र के साथ होटल की लॉबी में पहुंच गया। पंडितजी के कमरे में खबर भिजवा दी और प्रतीक्षा करने लगे।
मित्र ने कहा कि सेलीब्रिटी होने की अपनी मजबूरियां होती है। कभी-कभी वे किसी से मिलना नहीं चाहते पर कोई मिलने नहीं आये तो लगता होगा ”अरे! कोई आया नहीं।” लेकिन संगीतज्ञों से मिलने मेरा अपना तर्जुबा है कि वे अपने चाहने वालों को कभी निराश नहीं करते। मैंने अपना परिचय पत्रकार के रूप में दिया था। कोई दस मिनट बाद ही बुलावा आ गया। लंबे सफेद बाल, चमकता हुआ माथा और चेहरे पर वही दिव्य मुस्कुराहट। उनका आभा मंडल कुछ ऐसा है कि मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि पंडितजी जैसी हस्तियों के होते हुए लोग स्वयंभू भगवानों के पीछे किसलिये अपनी ऊर्जा नष्ट करते हैं। ताउम्र की तपस्या चेहरे पर झलकती है। प्रकृतस्थ होने में मुझे थोड़ा समय लगा। ”तुम मुखातिब भी हो, करीब भी/तुम्हें देखे या तुमसे बातें करे,” गालिब ने किसी ऐसे ही मौके पर कहा होगा।
मैंने बातें करने का फैसला किया। पूछा कि इन दिनों संगीत के रियलिटी शो में इलाकाई भावनाओं को हवा देकर एसएमएस के जरिये ‘सुरों के सरताज’ बनाने का जो सिलसिला चल निकला है, वह कहां तक जायज है? पंडितजी सचमुच थके हुए थे। या शायद मेरे प्रश्न का अभिप्राय समझने में उनसे गलती हुई। या उनकी भव्यता व शख्सियत से आक्रांत मैं ही अपनी बात को सही ढंग से नहीं रख पाया था। वे पहले ही सवाल पर उखड़ गये, ‘कहा ‘आपको जो लिखना है लिख मारिये, हम इन सब पचड़ों में नहीं पड़ते।’
मुझे जरा भी असहज नहीं लगा। पंडितजी के पास रोज ऐसे कई सिटी रिपोर्टर आते होंगे जिन्हें संगीत की नहीं बल्कि डबल कॉलम न्यूज की चिंता रहती होगी। या ऐसे न्यूज चैनल वाले आते होंगे जो पंडित भीमसेन जोशी के गुजरने पर उनकी फुटेज चस्पां कर देते हैं। इस तरह की बातें होती ही रहती होंगी। मैंने धैर्य नहीं खोया और बातचीत का सिलसिला जारी रखा तो पंडितजी भी सहज हो गये। जब उन्हें बताया कि बीसेक साल पहले भी आप से मिला था तो उनकी दिव्य मुस्कुराहट वापस लौट आयी, कहा कि ‘तब आपकी उम्र क्या रही होगी? आपको देखकर तो ऐसा लगता नहीं।’ फिर वे पूरी आत्मीयता से बातें करने लगे। मैं लिखना-लिखाना भूल गया। सोचा भाड़ में गया इंटरव्यू, मौका मिला है तो रस लेकर सिर्फ बातें ही की जायें।
बिसमिल्ला खां साहब के साथ जुगलबंदी करने वालीं डॉ. शोमा घोष से एक दिन पहले बातें हुई थीं तो उन्होंने संगीत की पाइरेसी को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त की थी। लिहाजा मैंने पंडितजी को उन्हीं का एक सीडी दिखाया जिसमें कोई 25 एलबम थे और जिसे मैंने महज 25 रुपयों में हासिल किया था। पंडितजी ने पूछा कि ‘यह आपको कहां मिला? मैंने कहा, ” कलकत्ते में फुटपाथ पर।” पंडितजी ने कहा कि ‘वो बहुत बढ़िया काम कर रहा है। शास्त्रीय संगीत की पाइरेसी हो रही है, इसका मतलब ये है कि लोग शास्त्रीय संगीत सुन रहे हैं। हमारे लिये इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है?’
और भी ढेर सारी बातें हुई। रसधारा-सी बहने लगी। यह सिलसिला देर रात तक चला जब उन्होंने अपनी बेहद लोकप्रिय व खुद की पसंदीदा रचना ”ओम नमो भगवते वासुदेवाय” सुनाई। अद्भुत होती है उनकी यह प्रस्तुति। स्वरों का वे ऐसा वितान खड़ा करते हैं जहां गाने व सुनने वाले एकाकार हो जाते हैं। जिसे आत्मा से परमात्मा का मिलन कहा जाता है और जिसके बारे में मेरी मालूमात बहुत थोड़ी है, यदि होता होगा तो शर्तिया ऐसा ही होता होगा। वे आपको एक अलग दुनिया में ले जाते हैं, जिसका वर्णन लगभग नामुमकिन है।