अरविंद ओझा का जीवन सरल, सहज व सादगीपूर्ण था। वे जमीनी सामाजिक कार्यकर्ता तो थे ही पर उनकी पठन-पाठन में गहरी रूचि थी। उन्हें यहां गुरूजी के नाम से जाना जाता था। वे कहानीकार व कवि भी थे। वे बहुत संवेदनशील इंसान थे। उन्होंने कईयों की जिंदगी को छुआ, प्रभावित किया और बदला। संस्था के विकास के साथ कार्यकर्ताओं को भी प्रशिक्षित, कुशल व दक्ष बनाया। उनके जीवन को मोड़ा व सार्थक बनाया। उन्होंने जो पौधा रेगिस्तान की धरती में रोपा है, उसे उनके साथी सहेजेंगे। यह उनकी विरासत है। ऐसा संकल्प यहां लोगों ने लिया है, जिससे भविष्य की उम्मीद बनती है।
रात के 12 बजे हैं। युवा जोश से नाच रहे हैं, झूम रहे हैं, गा रहे हैं, – मैं तुमको विश्वास दूं, तुम मुझको विश्वास दो, शंकाओं के सागर हम लांघ जाएंगे, मरूधरा को मिलकर स्वर्ग बनाएंगे… भावुक माहौल है। पंडाल में सामाजिक कार्यकर्ताओं का जमावड़ा है। देश भर से लोग जुटे हैं। और यह सब अपने वरिष्ठ साथी अरविंद ओझा का जन्मदिन मना रहे हैं।
मैं सोच रहा हूं क्या यह बदलाव की मस्ती है, जोश है, यह गीत ऐसा नहीं था जो कार्यक्रम की समाप्ति पर ही भुला दिया जाए, इसमें बदलाव का संकल्प था। एक सपना था, जिसे अरविंद ओझा जी व उनके साथियों ने पौधे की तरह सींचा था, जो आज उरमूल संस्था के रूप में खड़ा है।
यह 14 फरवरी का दिन था। 13-14 फरवरी को मरू मंथन नामक कार्यक्रम हुआ। जिसमें सामाजिक कार्यकर्ता, शासकीय अधिकारी, पशु चिकित्सक, पर्यावरणविद् व नीति निर्माण के सहयोगी शामिल थे।
अरविंद ओझा का गत वर्ष नवंबर में कोरोना से निधन हो गया। वे ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता थे जिन्होंने थार की मरुस्थली धरती में बदलाव के बीज बोए। इरमा से निकले मेधावी छात्र संजय घोष के साथ समाज कार्य की शुरूआत की। यह 80 के दशक का साल था। मरूस्थल यानी शुष्क क्षेत्र। थार के मरुस्थल में दूर दूर तक रेत ही रेत है। रेत के मैदान हैं। रेत के ही धौरे हैं, पहाड़ हैं। छोटी कंटीली झाड़ियां हैं। विरल पेड़ पौधे हैं। कम पानी और गरमी ज्यादा है। कृषि और पशुपालन यहां की प्रमुख आजीविका है। कुछ समय पहले तक ऊंट ही यहां आवागमन का साधन था। ऊंट यहां की जीवनरेखा है। पर अब ऊंट संकट में है।
ऐसी कठिन परिस्थतियों में भी यहां जीवंत जीवन है। अनंत संभावनाएं हैं। उरमूल संस्था ने यहां स्वास्थ्य, शिक्षा, कसीदाकारी, कढाई बुनाई, स्थाई आजीविका, टिकाऊ कृषि, किचिन गार्डन जैसे कई कार्यक्रम चलाए। ऊंटपालकों व पशुपालकों की आजीविका के लिए काम किया। समुदाय के साथ मिलकर चरागाह व ओरण के संरक्षण का काम किया है। अरविंद ओझा ने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा मरुस्थल की सूरत बदलने में लगा दिया। यह उनकी कर्मभूमि थी। उनके इन प्रयासों से थार के लोगों में उम्मीद जागी।
उनकी संस्था का नाम उरमूल सीमांत समिति है। इसका मुख्य केन्द्र बज्जू (बीकानेर) में स्थित है। लेकिन उरमूल की और शाखाएं भी हैं, पर अब सभी स्वतंत्र ढंग से काम कर रही हैं। विकेन्द्रीकरण की सोच से किया गया। अरविंद जी इन संस्थाओं के सह संस्थापकों में एक थे।
बज्जू का उरमूल सीमांत समिति का परिसर हरा-भरा है। यह टिकाऊ विकास का अच्छा उदाहरण भी है। जहां बारिश की एक एक बूंद सहेजने का जतन किया जाता है। छत के पानी को नालियों के जरिए टंकियों में भरा जाता है, जिसका उपयोग सालभर होता है। वैसे भी राजस्थान में पानी बचाने व संजोने की पानीदार परंपरा रही है। कुंईयां, कुंडियां, टांके, तालाब आदि की बड़ी संख्या हैं।
टिकाऊ खेती के लिए केंचुआ खाद से लेकर जैव कीटनाशक तैयार किए जाते हैं। सब्जी बाड़ी है जिसमें जैविक सब्जियां तैयार होती हैं। यहां कई तरह की प्रजातियों पेड़ पौधे हैं। परिसर में गौशाला है। गाय गोबर से गोबर गैस बनती है, उससे जो जैव खाद बनती है,वह पौधे व सब्जी बाड़ी में काम आती है। पशु आहार भी तैयार किया जाता है और पशुपालकों को दिया जाता है। टिकाऊ खेती का कार्यक्रम किसानों के बीच किया जा रहा है। सब्जी बाड़ी का काम स्कूलों में किया जा रहा है जिससे बच्चों को मध्यान्ह भोजन में पोषण मिले और गांवों में भी पारंपरिक सब्जी बाड़ी की ओर लौटे। तो कुल मिलाकर, परिसर में वह सब काम होते हैं, जो संस्था गांव-समाज में करती है। यानी जमीनी काम करके उससे लोगों को जोड़ना और उन्हें ऐसा करने के प्रेरित करना, उनमें सपना जगाना। यही अरविंद ओझा ने किया। उन्होंने न केवल इसकी नींव डाली बल्कि अपने साथियों के साथ पल्लवित पुष्पित भी किया।
मैं यहां दूसरी बार आया हूं। पहली बार जब गया था तब अरविंद जी से मिला था। और उनकी संजीदगी व सादगी से प्रभावित हुआ था। उन्होंने हमें गांवों में भेजा था, जहां मैं ऐसी महिलाओं से मिला था, जो कसीदाकारी का काम करती थी, और उनकी घर बैठे 4-5 हजार रूपए की कमाई हो जाती थी। उन महिलाओं की आंखों में चमक देखी थी, उसमें आगे बढ़ने का विश्वास था। उरमूल ने अच्छी डिजाइन से लेकर मार्केटिंग तक की कड़ी जोड़ी है, जिससे सैकड़ों महिलाओं को रोजगार उपलब्ध हुआ है। यह सिलसिला आगे बढ़ रहा है।
इस मरु मंथन कार्यक्रम का आयोजन को उरमूल के नए पुराने साथियों ने मिलकर किया था। यहां अरविंद जी के बारे में उनके साथियों ने कई संस्मरण सुनाए। उनके परिवारजन भी इसमें शामिल थे।
अरविंद जी का जीवन सरल, सहज व सादगीपूर्ण था। वे जमीनी सामाजिक कार्यकर्ता तो थे ही पर उनकी पठन-पाठन में गहरी रूचि थी। उन्हें यहां गुरूजी के नाम से जाना जाता था। वे कहानीकार व कवि भी थे। वे बहुत संवेदनशील इंसान थे। उन्होंने कईयों की जिंदगी को छुआ, प्रभावित किया और बदला। संस्था के विकास के साथ कार्यकर्ताओं को भी प्रशिक्षित, कुशल व दक्ष बनाया। उनके जीवन को मोड़ा व सार्थक बनाया। उन्होंने जो पौधा रेगिस्तान की धरती में रोपा है, उसे उनके साथी सहेजेंगे। यह उनकी विरासत है। ऐसा संकल्प यहां लोगों ने लिया है, जिससे भविष्य की उम्मीद बनती है। (सप्रेस)
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Very Nice…