जयप्रकाश नारायण जन्मदिन : 11 अक्टूबर
हमारे देश में सत्तर का दशक भारी उथल-पुथल का रहा है। इन्हीं दस सालों में नक्सलवाद पनपा, बांग्लदेश की लड़ाई हुई, बिहार में ‘सम्पूर्ण क्रांति’ और गुजरात में ‘नवनिर्माण’ आंदोलन खड़े हुए, पहली बार आपातकाल लगा और फिर ‘जनतापार्टी’ की गैर-कांग्रेसी सरकार बनी, बैकों, कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण हुआ, यहां तक कि अभिताभ बच्चन जैसी सिनेमाई हस्ती तक खड़ी हुई। इसी दौर में सन् 74-75 में जयप्रकाश नारायण की अगुआई में बिहार से शुरू हुए ‘सम्पूर्ण क्रांति’ आंदोलन ने हमारे देश की दिशा और दशा बदलने में महती भूमिका निभाई। प्रस्तुत है, जेपी के जन्मदिन पर ;सम्पूर्ण क्रांति’ आंदोलन की शुरूआती टीम में जेपी के साथ सक्रिय रहे सामाजिक कार्यकर्ता कुमार शुभमूर्ति का लेख।
’या तो काम पूरा होगा, या मेरी हड्डी गिरेगी’ यह घोषणा अखबारों में पढ़ी तो पहला सवाल यही खड़ा हुआ कि किसकी हड्डी गिरेगी और कौन-सा काम पूरा करना है? यह घोषणा जयप्रकाश नारायण की थी और काम था, वहीं जिसके बारे में हम ’सर्वोदय जगत’ पत्रिका में पढ़ते रहते थे। ’गांधी के सपनों का भारत’ ग्राम स्वराज्यों का संघ होगा। जिसका एक रास्ता विनोबा ने बताया था-ग्रामदान से ग्रामस्वराज्य। इस काम का मर्म सर्वोदय आंदोलन की इस पत्रिका में धीरेन्द (धीरेन्द मजूदार) दादा धर्माधिकारी और आचार्य राममूर्ति के लेखों और संपादकीय के जरिए समझाया जाता था। विनोबा ने ग्रामदान की जो योजना रखी थी उसे पढ़कर लगता था मानो क्रांति कितनी आसान है। बस एक जोरदार प्रयास करने की जरूरत है। मुजफ्फरपुर के प्रसिद्ध लंगर सिंह कॉलेज में फिजिक्स-केमिस्ट्री की किताबों के साथ हम गांधी-विनोबा की किताबें भी पढ़ते रहते थे। ऐसे माहौल में जो लगभग व्यक्तिगत ही था, जयप्रकाश जी की यह घोषणा पढ़ी तो रोमांच हो आया। मुजफ्फरपुर हर, जो एक तरह से छात्रों का हर था, उस मुसहरी प्रखंड के बीच में बसा था जो पिछडे़ हुए सामन्ती गांवों का बसेरा था। बिहार में पहली बार यहीं नक्सलवाद की चिंगारी भी जली थी। धुंआ उठने लगा था और दो सर्वोदय कार्यकर्ताओं को जाने से मार देने की धमकी भी दी गई थी। ’मैं इस परिवार का मुखिया हूं’-ऐसी तीव्र भावना के चलते जयप्रकाश जी, उत्तराखंड के पहाड़ों में आराम की जरूरत को छोड़कर बिहार के इस मैदानी गांव में आ गए थे और ग्रामस्वराज्य का काम पूरा करने में जुट गए थे।
मुजफ्फरपुर में रहने वाले हम जैसे कुछ युवकों के लिये यह सुनहरा अवसर था कि समाज के जाने-पहचाने, पिटे-पिटाए रास्ते को छोड़कर अनजाने रास्ते पर निकल पड़ते। क्रांति के साथ रोमांस के इन क्षणों में जयप्रकाश जी से बेहतर साथी और कौन होता? यह 1970-71 का वह वर्ष था, जब हम लोग 19-20 वर्षों के हुआ करते थे। कुछ ही दिनों में ’तरूण शांति सेना’ का मंच संगठित हो गया था और गांवों में युवक पदयात्रा करते दीखने लगे गाड़ियां आती-जाती थीं और हम रोज प्लेटफार्म टिकट खरीदकर डिब्बों में जाकर आर्थिक सहयोग और किताबों की बिक्री करते। कुछ मिनटों में ही जयप्रका के नाम पर हमारे गुल्लक भर जाते। निचले दर्जे के डिब्बों के यात्रियों से भी इसमें भरपूर सहयोग मिलता।
इसी बीच भूमि सुधार संबंधी कुछ कानूनों को लागू करने का आंदोलन चल पड़ा। यह आंदोलन सभी वामपंथी और समाजवादी पार्टियां मिलकर चला रही थीं। उन्होंने जेपी से इस आंदोलन का नेतृत्व करने का आग्रह किया। जे.पी. ने विपक्षी दलों के इस आंदोलन का समर्थन तो किया पर नेतृत्व करने से इंकार कर दिया। उन्होंने लिखा कि ’भूमि समस्या पर काम तो होना चाहिए, लेकिन मैं अभी एक ऐसे काम में जुटा हूं जो कहीं ज्यादा बुनियादी और क्रांतिकारी है। इसे छोड़कर मैं अन्य किसी काम में नहीं जुट सकता।’ इसी बीच जयप्रकाश जी ने दो पर्चे, लीफलेट लिखे जो देशभर में खूब पढ़े गए। इनमें से एक था- ’’ये भूमि हड़पने वाले’’ और दूसरा था ’’आमने-सामने।’’ इन्हें पढ़कर बिहार के सामन्ती समाज और देश की नकारात्मक राजनीति के प्रति जयप्रकाश जी की गहरी समझ और उनके हल के प्रति उनकी दृष्टि की झलक मिलती है।
इन पर्चानुमा आलेखों में जेपी का दर्द झलकता था, समस्याओं को हल करने की तड़प दृष्टिगोचर होती थी। उनकी संवेदनशीलता केवल भावनात्मक नहीं थी, वैचारिक भी थी वर्ष दो वर्ष बीतते लगने लगा था, जैसे उनका फोकस बदल रहा है। गहराई में जाकर उनकी बात को समझने की हैसियत उस वक्त हमारी नहीं थी, पर आज लगता है जैसे ’हड्डी गिराने’ के उस संकल्प से जेपी को कोई नया बोध प्राप्त हुआ था। उनकी भावना और चिंतन का कैनवास इतना बड़ा था कि उसमें गांवों की दरिद्रता भर नहीं थी, बल्कि देश की उस राजनीति का चेहरा भी था जो दे के आमजनों के घनघोर कष्टों और संकटों के प्रति बे-परवाह थीं। देश का मतलब भी जे.पी. के लिए सिर्फ भारत नहीं, बल्कि पूरा भारतीय उप-महाद्वीप था जिसकी जद में पूरा पश्चिमी पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) आता था।
प्रभावती दीदी की अचानक पता चली बीमारी के इलाज के लिये जब सामाजिक कार्यों से जेपी ने एक वर्ष की छुटटी ली तो सर्वोदय के साथियों के नाम एक पत्र लिखा। इसमें उन्होंने लिखा कि ’एक साल बाद मैं फिर से जो काम शुरू करूंगा वह निश्चित रूप से वही होगा जो आज कर रहा हूं लेकिन यह भी निश्चित है कि आज जिस तरह से कर रहा हूं उस तरह से नहीं करूंगा।’ इस दूसरे तरीके के काम की बुनियादी मानो उस ’सहरसा’ में पड़ रही थीं, जिसके बारे में विनोबा ने पवनार आश्रम में ही रहते हुए देश भर के सर्वोदय कार्यकर्ताओं को ’सहरसा में धंसो’ का आव्हान किया था। मुसहरी में जो युवा अलग-अलग काम कर रहे थे। वे सहरसा में आकर एक टीम बन गये थे। मेरे जैसे टीम के कुछ सदस्य सहरसा में ही ’धंसे’ थे, तो कुछ चाहे देश में कहीं भी हों सहरसा आते-जाते रहते थे और टीम को मजबूत बनाते थे। सहरसा में ग्रामस्वराज्य का जो सघन आंदोलन चला उसका नेतृत्व विनोबा ने निर्मला दीदी और कृष्णराज भाई को सौंपा था। इन दोनों के मन में जे.पी. के प्रति बहुत प्रेम था लेकिन श्रद्धा ही नहीं पूर्ण श्रद्धा थी विनोबा पर। हमारी टीम का भी यही हाल था। सहरसा में 2-3 वर्षों के काम का जो अनुभव आया उसने हमारे प्रेम और श्रद्धा को तो प्रभावित नहीं किया, लेकिन सोचने के तरीके और काम के प्रति समर्पण को जरूर बदल दिया।
सहरसा में हमारी युवा टीम की एक अलग पहचान बन गयी थी। इसमें नाम गिने जाएं तो उत्तराखंड की निर्मला दीदी द्वारा प्रशिक्षित जानकी बहन थीं, कृषि की पढ़ाई किए लखन दीन, केन्या में जन्मे, अमरीका में पढ़े, भारतीय मूल के ब्रिटि नागरिक किशोर शाह, प्रसिद्ध पत्रिका ’धर्मयुग’ के पत्रकार कुमार प्रशांत बाद में चौथी दुनिया के संपादक बने संतोष भारतीय, कुमारी वंदना शोभना शास्त्री और सहरसा जिले के ही स्कूली छात्र कुमार कलानन्द मणि और महादेव विद्रोही आदि थे। कुछ ऐसे मित्र भी थे जो युवावस्था पार कर चुके थे, पर हमारी टीम के साथ कार्यकारी संबंध रखते थे। उनमें अमरनाथ भाई, रामचंद्र राही, बाबूराव चंदावार, कुसुम कावली, सरोज बहन,डेनियल भाई आदि प्रमुख थे। हमारी टीम के काम करने का तरीका लगभग वैसा ही था जो जयप्रकाश जी का था। गांव के घर-घर जाकर परिचय करना, वैचारिक चर्चा करना और थे। हर के स्कूलों, कॉलेजों में गांधी और सर्वोदय विचार की किताबें बिकने लगी थीं और किताबों की बिक्री से मिलने वाले ’कमीन’ से युवकों का जेब-खर्च चलने लगा था। रेल्वे स्टेशन से देशभर की उन्हें ग्रामदान पर आधारित ग्राम संगठन में शामिल करना। किसी गांव में हम पन्द्रह दिन रहते थे, तो कहीं महीने भर। हमने एक प्रखंड राधोपुर सघन कार्य के लिए चुन लिया था। इसी कस्बे के किनारे जन-सहयोग से बना हमारा आश्रम था-’विनोबा आश्रम।’ हम जिस गांव में भी जाते, वहां एक माहौल बन जाता। ग्रामस्वराज्य की एक-एक बातों पर शर्तो पर सहमति बन जाती। लिखित स्वीकृति भी प्राप्त हो जाती, लेकिन उस गांव से निकल जाने के बाद जब हम फिर 2-3 महीने के बाद वहां ढाक के तीन पात’। लगता था, जैसे किसी पत्थर के भारी टुकड़े की बड़ी मेहनत से पहाड़ पर चढ़ाया, लेकिन छोड़ते ही वह फिर उसी तराई में लुढक गया।
हम जैसे मुश्किल में पड़ गए थे। राह खोजे नहीं मिलती थी। धीरेन्दा की लोक गंगा यात्रा भी हमारे प्रखंड से गुजरी। उनसे रोज चर्चा होती थी। उनकी बातें उत्साह से ज्यादा धीरज बंधाती थीं। हम सबों में हौसला था, पर इस प्रश्ना का कोई जवाब नहीं था कि हमारे बिना भी लोग कैसे अपने गांव में ग्रामस्वराज्य का नेतृत्व करते रहेंगे। हमें गांधी का ’जिन्दा हीद’ याद आता तो कभी विनोबा का ’गणसेवक्त्व।’ हमारी सोच के इसी माहौल में सहरसा आंदोलन के नेतृत्व ने जयप्रकाश नारायण को सहरसा आमंत्रित किया। मुसहरी के काम से ही पहचानी गई युवाओं की टीम जहां काम करती है, उस राधोपुर में उन्हें आना ही था। 31 जनवरी 1974 की शाम जयप्रकाश जी राधोपुर आये। हमने जो प्रचार किया था, वह किया था, लेकिन उस दिन शाम की सभा में निपट देहात राधोपुर में न जाने कहां से लाखों लोग जुट गये थे। उनके आने के रास्ते के दोनों ओर विपन्न-सम्पन्न, युवा-वृद्ध आम लोगों की चौड़ी सी दीवार ही बन गई थी। उसी दिन पहली बार जयप्रकाश जी ने घोषणा की कि ’मुझे क्षितिज पर 1942 की क्रांति की लालिमा दिखाई पड़ रही है।’ पर मुझे न तो वैसी कोई लालिमा दीख रही थी और न माहौल लेकिन आंखों में आशा और विश्वास लिये हजारों-हजार की संख्या में लोगों के जुट जाने का और कोई तर्क नहीं था।
क्रांति घटित होने से परिस्थिति का भी बड़ा हाथ होता है, यह जो हम जानते थे उसे आंखों के सामने देख-समझ रहे थे। उसके बाद तो माहौल बदलता ही चला गया। ’लोकतंत्र के लिये युवा’ का जो आह्वान हुआ था, वह जून का महीना आते-न-आते ’संपूर्ण क्रांति’ के आह्वान में बदल गया। धीरेन्द्र मजूमदार की ’लोक गंगा यात्रा’ जारी रही, लेकिन उन्होंने कहा कि सर्वोदय आंदोलन को आगे ले जाने के लिए समाज का यह आंदोलन बहुत जरूरी है। पुराने ढाँचे से उठकर समाज नये ढाँचे में तभी बैठेगा। ऐसे में वह युवा टीम भी पुराने ढाँचे से बाहर निकल गई।
आगे बिहार आंदोलन की तो एक अलग ही गाथा है। जेपी लोकनायक बने। वंशगत तानाशाही समाप्त हुई। कानून और संविधान का गलत इस्तेमाल कर आपातकाल घोषित कर देना बहुत कठिन हो गया। यही कारण है कि हमारे देश में आज विधिवत तानाशाही स्थापित नहीं हो पायी है। अघोषित रूप से जो कुछ चल रहा है उसके विरूद्ध जागरूक जनमत इस बात की गांरटी देता है। आज दुनिया में सबसे बड़े लोकतंत्र होने का जो गौरव भारत को प्राप्त है उसमें लोकनायक जयप्रकाश का बहुत बड़ा योगदान है। लोकतंत्र की इस डोर को पकड़ कर ही हम गांधी-विनोबा-जयप्रकाश के सपनों का भारत बना सकते हैं। (सप्रेस)