23 जून : 90 वां जन्म दिवस प्रसंग
देश के पहले आधुनिक पर्यावरणविद और गांधी विचारक के रूप में ख्यात चंडीप्रसाद भट्ट आज अपने जीवन के 90 वें वर्ष के पायदान को छूने जा रहे है। जीवन के महत्वपूर्ण पड़ाव पर आज भी शिददत से जुटे है– देश के पर्यावरण को समृद्ध बनाने के लिए।
चंडीप्रसाद भट्ट Chandi Prasad Bhatt का सरल, सौम्य व्यवहार और प्रकृति की गोद में निखरा उनका व्यक्तित्व आज हिमालय के प्रति अपनी पूर्ण आस्था और संकल्प से साथ संवारने में लगा है।
जीवन के नौ दशक के सफर में उनके विचार, कर्म और अहिंसा के बलबूते एक ऐसे आंदोलन को जन्म दिया, जो दुनिया भर चिपको आंदोलन के नाम से मशहूर हुआ। 23 जून 1934 में गोपेश्वर गांव में जन्मे चंडी प्रसाद जी ने 1973 में मंडल गांव के पास पहले ‘चिपको आंदोलन’ का नेतृत्व किया था, जिसमें कटाई को रोकने के लिए जंगल में पेड़ों को गले लगाने के लिए ग्रामीणों के एक समूह का आयोजन किया था। वे कहते है कि “यह मूलतः एक महिला आंदोलन था। खेती, पशुधन और बच्चों की पूरी जिम्मेदारी होने के कारण महिलाओं को वनों की कटाई के कारण आई बाढ़ और भूस्खलन से सबसे अधिक नुकसान उठाना पड़ा था। जीवित रहने की प्रवृत्ति ने ही इस आंदोलन को महिलाओं के बीच इतना लोकप्रिय बना दिया।
चिपको आंदोलन एक अहिंसक आंदोलन था, जिसका उद्देश्य पेड़ों की रक्षा और संरक्षण करना था। पेड़ों की कटाई के खिलाफ और पारिस्थितिक संतुलन के संरक्षण के लिए विद्रोह 1973 में चमोली जिले में शुरू हुआ, जो तेजी से अन्य उत्तरी भारतीय राज्यों में फैल गया। ‘चिपको’ नाम ‘आलिंगन’ शब्द से आया है, क्योंकि ग्रामीणों ने पेड़ों को काटने से बचाने के लिए उन्हें गले लगाया और घेर लिया था।
चंडीप्रसाद भट्ट एवं सुंदरलाल बहुगुणा ने उस दौर में चिपको आंदोलन को उत्तराखंड में स्थापित कर दिया था, परिणामस्वरूप, सरकार को कई कानून लागू करने पड़े, जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने भी वनों की सुरक्षा के पक्ष में फैसला सुनाया था। 1980 के वन संरक्षण अधिनियम ने हर साल लाखों हेक्टेयर वन भूमि को कटने से बचाया। चिपको आंदोलन की पहल आज भी जमीनी स्तर पर लोगों को प्रेरित कर रही है।
Chandi Prasad Bhatt चंडीप्रसाद भट्ट का बचपन में पिता की आसामयिक मृत्यु के बाद आर्थिक संकटों के साथ बचपन बीता, कठिनाईयों के साथ शिक्षा ग्रहण की, और गोपेश्वर में पढ़ाने का कार्य भी किया।
सातवें दशक के प्रारंभ में चंडीप्रसाद जी सर्वोदयी विचार-धारा के संपर्क में आए। वर्ष 1956 में जयप्रकाश नारायण बद्रीनाथ के दौरे पर आये थे। उस वक्त चण्डी प्रसाद भट्ट पीपलकोटी में बुकिंग क्लर्क के रूप में तैनात थे। जेपी के साथ उत्तराखण्ड के सर्वोदयी नेता मानसिंह रावत भी थे। चण्डीप्रसाद भट्ट ने जब जयप्रकाश नारायण का भाषण सुना तो वे बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने मन ही मन श्रम के महत्व, सामाजिक सद्भाव, शराब का विरोध, महिलाओं और दलितों के लिए काम करने का संकल्प लिया और इस दिशा में कार्य करने लगे। 11 सितम्बर 1960 को विनोबा जयंती के मौके पर चण्डीप्रसाद जी ने पूर्ण रूप से सामाजिक सेवा का संकल्प किया और इसके लिए नौकरी छोड़ने का मन बना लिया। इसके बाद भट्ट और अन्य युवाओं ने खुद को सर्वोदय आंदोलन और भूदान-ग्रामदान के गांधीवादी अभियानों में शामिल किया और पूरे उत्तराखंड में आर्थिक विकास और शराब के दुरुपयोग से निपटने के लिए गांवों को संगठित किया।
1964 तक चंडी प्रसाद जी ने गोपेश्वर में ग्रामीणों को उनके निकट रोजगार के लिए संगठित करने के लिए दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल की स्थापना की थी। वन-आधारित उद्योगों में घर, राख के पेड़ों से लकड़ी के उपकरण बनाना और आयुर्वेदिक चिकित्सा के लिए जड़ी-बूटियों को एकत्रित करना, उनका विपणन करना और बुराई तथा शोषण का मुकाबला करना आदि महत्वपूर्ण कार्य हाथ में लिये।
बाहरी व्यावसायिक हितों के पक्ष में पेड़ों और वन उत्पादों पर ग्रामीणों के वैध अधिकारों में कटौती ने भट्ट को 1973 में वन-वार समाज के सदस्यों और ग्रामीणों को सामूहिक चिपको आंदोलन में जंगल के पुनरीक्षण के लिए एकजुट करने में सक्षम बनाया। महिलाएं, जो नियमित रूप से अपनी पीठ पर घरेलू ईंधन और चारा इकट्ठा करने और ले जाने के लिए तीन से पांच मील पैदल चलकर जंगल जाती हैं, ने इसका नेतृत्व किया। आंदोलन के अहिंसक दर्शन के अनुरूप, इन महिलाओं ने अपनी कटाई को रोकने के लिए पेड़ों को गले लगा लिया। जैसे ही आंदोलन ने गति पकड़ी और वैश्विक स्तर पर ध्यान आकर्षित किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को जंगलों में वाणिज्यिक कटाई पर 15 साल का प्रतिबंध लगाने के लिए मजबूर होना पड़ा।
1974 में उन्होंने और सहयोगियों ने बद्रीनाथ मंदिर की सांस्कृतिक और पुरातात्विक विरासत को बचाने के लिए एक आंदोलन का नेतृत्व किया।
वह और उनकी पत्नी अपने हिमालयी पड़ोसियों की तरह सादा जीवन जीते हैं। 2003 में, उन्हें ‘ राष्ट्रीय वन आयोग’ का सदस्य नियुक्त किया गया, जिसने वन प्रबंधन से संबंधित सभी मौजूदा नीतियों और कानूनी ढांचे की समीक्षा की और 2005 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी।
चंडी प्रसादजी को सामाजिक व पर्यावरण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय कार्यों के लिए 1982 में सामुदायिक नेतृत्व के लिए रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया, 1983 में अरकांसस ट्रैवलर्स सम्मान, लिटिल रॉक के मेयर द्वारा सम्मानित नागरिक सम्मान से नवाजा गया। उसके बाद भारत सरकार द्वारा क्रमशः 1986 और 2005 में पद्मश्री और पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। उनको 1987 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा ग्लोबल 500 सम्मान, 1997 में कैलिफोर्निया (अमेरिका) में प्रवासी भारतीयों द्वारा इंडियन फॉर कलेक्टिव एक्शन सम्मान, 2008 में डॉक्टर ऑफ साईंस उपाधि, 2010 रियल हिरोज लाईफटाईम एचीवमेंट अवार्ड तथा रिलाईंस इंडस्ट्रीज द्वारा सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। वही साल 2013 में उन्हें गांधी शांति पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।
90 वर्ष में उम्र में भी उनकी सक्रियता बनी हुई है। आज भी उनका देश के तमाम हिंदी भाषी अखबारों में हिमालयीन क्षेत्र में होने वाली घटनाओं पर लगातार लेखन कार्य जारी है। सर्वोदय प्रेस सर्विस (सप्रेस), इंदौर के प्रतिनिधि के तौर पर अनेक वर्षों तक पत्रकार के रूप में अपनी सेवाएं प्रदान की और आज भी वे शिद्दत के साथ सप्रेस के लिए लिखते आ रहे है।
हाल ही में चंडी प्रसादजी ने बद्रीनाथ और केदारनाथ में पर्यटकों की बढ़ती संख्या पर चिंता जाहिर करते हुए प्रधानमंत्रीजी को पत्र लिखा है। उनका मानना है कि ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, लेकिन हम तीर्थयात्रियों की जांच करने में असमर्थ हैं क्योंकि यह उनके लिए आस्था का विषय है। पर्वतीय क्षेत्र में वाहनों से होने वाले प्रदूषण की जाँच की जानी चाहिए, और यदि प्रभावी कदम नहीं उठाए गए, तो प्राकृतिक आपदा का खतरा हमेशा बना रहेगा, जैसा कि 2013, 2021 में उत्तराखंड क्षेत्र में हुआ था। ऐसी आपदाओं से बचने के लिए एक ऐसी समिति बनाई जानी चाहिए जो सरकार के एक महत्वपूर्ण विभाग की तरह काम करे। इन विभागों को समाधान निकालना चाहिए और उसे जमीन पर लागू करना चाहिए।
उनका मानना है कि “इस सरकार की विकासात्मक प्राथमिकताएँ अत्यधिक गलत हैं। चार लेन के राजमार्गों और बांधों के बहाने हरे-भरे जंगलों की कटाई की गति धीमी जरूर हुई है, लेकिन रुकी नहीं है। चिपको आंदोलन कई मायनों में अनोखा था क्योंकि इसमें महिलाओं की संख्या उन लोगों से अधिक थी, जो जंगल काटना चाहते थे। दुनिया में इसके समानांतर कोई हलचल नहीं है।” हमें ऐसे आंदोलन की ज़रूरत है, लेकिन दूसरे रूप में क्योंकि अब यह केवल पेड़ों के बारे में नहीं है, यह नदियों, जानवरों, ग्लेशियरों आदि के बारे में भी है।
वनों को बचाने में आंदोलन के दीर्घकालिक प्रभाव पर वे कहते हैं, “आज हमारे वन और पर्यावरण पहले से कहीं अधिक ख़तरे में हैं। न केवल वैश्विक, राष्ट्रीय और स्थानीय दबाव बढ़े हैं, बल्कि मूल कारण- आर्थिक विकास की हमारी अवधारणा, जिसमें अनियंत्रित, ‘योजनाबद्ध’ विकास शामिल है- बरकरार है। उनका कहना है कि हिमालय में इसके विनाशकारी परिणाम होंगे। फिर भी, चिपको आंदोलन ने एक मजबूत संदेश भेजा जो एक सफल, अहिंसक गांधीवादी आंदोलन के रूप में पूरे देश और उसके बाहर भी गूंजा। इस कठिन परिस्थिति में जरूरी प्रतीत होता है। उनके भाव, प्रभाव व आभा से निश्चित ही पर्यावरण संरक्षण की दिशा में हम सब शिद्दत से जुट पाएंगे। चंडी प्रसाद जी शतायु हो, लंबे समय तक उनका सान्निध्य और मार्गदर्शन देश को मिलता रहे- यही कामनाएं।
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ऐसे शख्सियत कम ही होते हैं।