वरिष्ठ इतिहासकार डॉ. सुरेश मिश्र का गुरूवार (22 अप्रैल) की सुबह भोपाल में निधन हो गया । वे 84 वर्ष के थे। मध्यप्रदेश के इतिहास पर उन्होंने कई पुस्तकों का लेखन और अनुवाद किया। उदयपुर की ऐतिहासिक इमारतों के संरक्षण को लेकर वे अभी सक्रिय थे। वे होशंगाबाद के नर्मदा महाविद्यालय में इतिहास के प्राध्‍यापक रहे। 1990 के आसपास वे खंडवा के नीलकंठेश्वर महाविद्यालय में थे। वहाँ के छात्रावास के वार्डन की जिम्मेदारी भी उनके पास थी। वे बरसों मंडला के ‘कान्‍हा किसली उद्यान’ के वार्डन भी रहे। जीव-जन्तुओं और प्रकृति में उनकी गहरी रुचि रही है। ‘एकलव्‍य’ और ‘समावेश’ से भी उनका गहरा जुड़ाव रहा। वे एक जानदार इतिहासकार थे, उन्होंने मध्यप्रदेश और मध्यभारत के इतिहास पर जबरदस्त काम किया।

मंडला जिले के महाराजपुर में 1937 को जन्में सुरेश मिश्र ने 1960 में इतिहास से एमए और साल 1973 में पीएचडी पूरी की थी। वे खंडवा के एसएन कॉलेज से साल 1997 में प्रोफेसर पद से सेवानिवृत हुए थे।

इतिहास पर उनकी 29 किताबों का प्रकाशन हो चुका है और वे सात किताबों का अनुवाद कर चुके थे। मध्यप्रदेश सरकार ने उन्हें वर्ष 2012 के शंकरदयाल शर्मा सृजन सम्मान से नवाजा था। मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी ने उन्हें साल 2016 में राष्ट्रीय स्तर के माखनलाल चतुर्वेदी सम्मान से नवाजा था। उन्‍हें  ICHR के वरिष्ठ अनुसंधान फेलोशिप से भी सम्मानित किया गया। “शहजादा फिरोजशाह- 1857 का एक भूला हुआ नायक” पर उन्‍होंने काम किया। उन्हें 2007 में स्वराज संस्थान द्वारा स्वराज फैलोशिप से भी सम्मानित किया गया।  पर्यावरण के क्षेत्र में “जीएम क्रॉप्स एंड ग्लोबलाइजेशन: बीटी कॉटन क्रॉप फ़ेल्ट इन वेस्टर्न मध्य प्रदेश, इंडिया” पर उनका अध्ययन 2006 में lNCAS, पुणे, भारत द्वारा प्रकाशित किया गया था और उन्हें सेंटर एंड साइंस एंड एनवायरनमेंट के लिए पर्यावरण पत्रकारिता फैलोशिप से सम्मानित किया गया था। 1989 में उन्होंने सरकार के लिए कान्हा बायोस्फीयर रिजर्व के प्रोजेक्ट डॉक्यूमेंट नंबर 8 का सह-लेखन भी किया।

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उनके निधन को अपूरणीय क्षति बताते हुए लिखा कि राज्य के इतिहास व संस्कृति को समृद्ध करने और ‘मध्यप्रदेश के रणबांकुरे’ व ‘मध्यप्रदेश के सूरमा’ जैसी अमूल्य पुस्तकों के सृजन के लिए सदैव याद किया जायेगा।

खंडहरों को मिश्रजी निष्प्राण नहीं मानते थे। खंडहरों के माध्यम से वे उस काल में पहुँच जाते थे और उस समाज से अपना रिश्ता बना लेते थे। यह बात उनके लेखन में झलकती है कि वे इतिहास को सबसे बड़ा आध्यात्म और समाज विज्ञान मानते थे। वे इतिहास को हिन्दू मुसलमान के नज़रिए से नहीं, बल्कि इतिहास के नज़रिए से ही देखते रहे। इतिहास की सियासत ने उन्हें इसलिए विचलित नहीं किया क्योंकि वे कहते थे कि इतिहास इतिहास ही रहता है, कोई राजनीति उसे बदल नहीं सकती। हर समाज अपने समय में इतने कोनों में अपनी बात, अपने होने के प्रमाण छिपा जाता है, कि उसे मिटाया ही नहीं जा सकता है। जब मानव जीवन को ख़तम करने वाली घटनाएं इतिहास को नहीं छिपा या बदल पायीं, तो ये सियासत क्या कर लेगी?

एक ऐसा व्यक्ति, जिसने जीवन में केवल दोस्ती बनाई, एक भी दोस्ती तोड़ी नहीं। हर दोस्ती निभाई। ये दोस्‍त आज हमसे दोस्‍ती तोड कर दूसरी दुनिया में प्रस्‍थान कर गया।  

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