कलाएं हमारे जीवन को जिस शिद्दत से प्रभावित करती हैं, उसी तरह से हमारा जीवन भी कलाओं को प्रभावित करता है। कला और जीवन की आपसी द्वंद्वात्मकता पर टिकी इस समझ को बिरले ही जान पाते हैं। आंध्रप्रदेश के ‘गुरुजी’ यानि रवीन्द्र शर्मा उन बिरले कलाकारो में से एक हैं।
व्याख्यान, रिकॉर्डिंग, सवाल-जवाब के लंबे औपचारिक सत्र के बाद गुरुजी बेतकल्लुफी के साथ आश्रम के आँगन में बैठे हुए हैं। स्थानीय कारीगरों द्वारा बनाई गई बाँस की कुर्सियां बहुत आरामदायक हैं। चाय का प्याला उन्होंने अभी-अभी खाली किया है और कुर्ते की जेब से बीड़ी का बंडल निकाल लिया है। मैंने उनके बीड़ी जलाकर एक कश मार लेने की प्रतीक्षा की और धीरे से पूछा, “गाँधी-आश्रम में व्याख्यान के लिए जाने पर दिक्कत नहीं होती?” उन्होंने कहा, “होती है। धीरे से बाहर जाकर सुट्टा मार आता हूँ।” धोती-कुर्ते वाले इस शख्स का पूरा जीवन सहज-स्वाभाविक सादगी के साथ कलाओं की खोज, उसे समझने-बूझने और बरतने में बीत गया। कलाएँ उनकी जिंदगी से उसी तरह जुड़ी हुई थीं जैसे कोई इंसान साँस लेता है। वे इसे अपनी जीवन-शैली का हिस्सा मानते थे।
ललित कलाओं में स्नातकोत्तर उपाधि के लिए जब वे ‘महाराजा सयाजी राव गायकवाड़ विश्वविद्यालय, वड़ोदरा’ पहुँचे; तब भी धोती-कुर्ते में ही थे। दाखिले के लिए इंटरव्यू शुरू हो गया था, पर वे जिज्ञासावश कला-संस्थान के निरीक्षण में लगे थे। उनकी बारी आकर चली गई। सवाल पूछने वाली समिति के माननीय सदस्यों ने उन्हें आखिर में बुलाया। उनकी वेशभूषा से वे वैसे ही थोड़े अप्रसन्न थे। सवाल-जवाब शुरू हुए। समिति के सदस्यों की जिज्ञासा बढ़ती गई। दोपहर के भोजन का वक्त हो गया था पर समिति ने तय किया कि इंटरव्यू जारी रहेगा। भोजन के डिब्बे वहीं खोल लिए गए और प्रतिभागी को भी भोज में शामिल कर लिया गया। इंटरव्यू के बाद भी उन्हें जाने की अनुमति नहीं मिली। कहा कि “घर जाकर कपड़े-वगैरह तो ले आऊँ।” समिति ने कहा, “धोती-कुर्ता ही तो पहनना है..मंगवा देते हैं।”
मौका-ए- वारदात पर उनके दाखिले की कार्रवाई पूरी कराई गई और यह हो जाने के बाद ही कक्ष से बाहर निकलने की अनुमति मिली। मजे की बात तो यह है कि शिक्षा-दीक्षा सम्पन्न हो जाने के बाद भी यूनिवर्सिटी उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं थी। वे अपने एक सहयोगी के विवाह-समारोह में भाग लेने के बहाने वहाँ से भाग लिए। उनका अपना शहर आदिलाबाद उन्हें बार-बार अपनी ओर खींच रहा था।
गुरुजी अपनी आगे की तालीम यहीं जारी रखना चाहते थे। वह तालीम नहीं, जिसमें डिग्री वगैरह हासिल होती है। यह ठेठ गाँव-गँवई में आम जनजातीय लोगों के बीच में जाकर उनकी जीवन-शैली को समझने-बूझने की तालीम थी। उनके रीति-रिवाज, खान-पान, परम्परा और मान्यताएँ, उत्सव और त्यौहार, कला-कौशल और कारीगरी, जन्म-मृत्यु के संस्कार और जीवन-दर्शन का बहुत सूक्ष्मता के साथ अवलोकन। यह काम वे कई बरसों तक करते रहे। यों ग्राम-समाज व उसके मानस को समझने के लिये उन्होंने अपनी किशोरावस्था में ही पहलवानी के शौक को त्याग दिया था। एक अरसे तक वे लाठियाँ भी भाँजते रहे थे।
देशज चीजों को सीखने-जानने की ललक में वे इस गाँव से उस गाँव की खाक छानते रहे। खाना मिला तो ठीक, न मिला तो ठीक। कभी दूध-मट्ठे में ही गुजारा कर लिया, पर अपने काम में लगे रहे। यहाँ तक कि कंधों में गमछा डालकर अंतिम-संस्कार में भी पहुँच जाते। लोग समझते कि कोई नजदीकी होगा। वे देखते हैँ कि वहाँ के समाज ने तीज-त्योहारों से लेकर मृत्यु-संस्कार को भी ‘डिजाइन’ किया हुआ है। यह ‘डिजाइन’ उसी ‘ग्रामीण-अर्थव्यवस्था’ को पुष्ट करने की गरज से है, जिसका जिक्र गाँधी जी के हवाले से आता है।
गुरुजी, यानी रवीन्द्र शर्मा, गाँधीवादी परम्परा के कलाकार और इतिहासकार रहे। वे कई तरह की शिल्पकलाओं के ज्ञाता थे। पत्थरों की मूर्तियां गढ़ते तो उसके औजार खुद ही तैयार करते। लकड़ी का काम करते तो उन्हें पता होता था कि जंगल से इन्हें कब और कैसे काटना है। मिट्टी की मूर्तियां गढ़ते हुए वे तय कर लेते कि इनमें किन रंगों का इस्तेमाल होगा और वे रंग प्राकृतिक विधि से किस तरह से तैयार किये जायेंगे। आखिर में जब इन सबके लिये संग्रहालय बनेगा तो इसकी छत की ढलाई वे खुद ही करेंगे और दरवाजों में लगने वाले पट्ट से लेकर कुंडियों को तराशने तक का काम उनके ही हाथों होगा।
इतना ही नहीं, जो कार्य वे कर रहे हैं उसके बारे में अकादमिक ग्रंथों में क्या कहा गया है, कार्य के सामाजिक संदर्भ क्या हैं, उस कार्य से संबंधित जनजातीय इतिहास क्या है तथा प्राचीन भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था में उसकी क्या भूमिका थी, इन सबकी पड़ताल भी वे साथ-साथ करते चलते हैं और इनका बखान अपनी सरल लेकिन दिलचस्प शैली में। धोती पहनकर ‘आईआईटी’ में व्याख्यान करने के लिये जाने वाला यह शख्स ज्ञान का चलता-फिरता भंडार था। वड़ोदरा में विश्वविद्यालय के उनके पुराने सहपाठी आज भी उन्हें एक ऐसे शख्स के रूप में याद करते हैं जो अपने वेश के कारण पहली नजर में निपट देहाती नजर आता, पर जब अधिकारकपूर्वक अपनी बातें कहता तो शहर के परम विद्वान भी बगलें झांकने लगते।
वे किसी भी अनजान और साधारण श्रोता के लिए सहजता से उपलब्ध रहते। वे वाचिक परम्परा के इतिहासकर रहे। इतिहास- बोध ऐसा जो उन्होंने किताबों से रट्टा मारकर नहीं, बल्कि अनुभव से अर्जित किया। यही अनुभव आगे चलकर उनकी कला के विषय बने। वे कहते थे कि “जीवन की अनुभूतियों को आकार देना ही कला है।”
प्रकृति को लेकर उनकी अवधारणा गाँधी के बहुत करीब थी। गाँधी जी कहते थे कि प्रकृति के पास मनुष्योँ की जरूरत का सारा सामान है, पर वह एक मनुष्य के लालच के आगे छोटी पड़ जाती है। शर्मा जी कहते थे कि मनुष्य और प्रकृति का सम्बंध उसी तरह होना चाहिए जैसे मछली के पानी पीने से तालाब का जल नहीं सूखता है। वे कला-संस्कृति से लेकर धार्मिक परम्पराओं और वैज्ञानिक स्थापनाओं तक की चर्चा सामाजिक सन्दर्भों में करते थे। यहां तक कि बच्चों, महिलाओं व पुरुषों द्वारा खेले जाने वाले विविध देसज खेलों के सामाजिक पहलुओं की चर्चा भी वे विस्तार के साथ करते थे।
उनके लिए समाज का आशय फकत मानव-समूह नहीं था। वे समाज के बहाने उस समूचे परिवेश की चर्चा करते थे जिसमें मनुष्य के साथ पेड़-पौधे, घर-आँगन, तालाब-पोखर, कुएँ-बावड़ी और पगडंडी से लेकर पनघट तक शामिल थे। वे नॉस्टैल्जिक नहीं थे पर फ़क़त भौतिक सुखों या सहूलियत के पैमाने पर इंसान की तरक्की को नहीं आंकते थे। वे परिष्कृत सौंदर्यबोध के साथ ऐसे सामूहिक-सामुदायिक जीवन की कल्पना करते थे, जिसमें विविध कलाओं के अधिकतम आस्वादन के साथ प्रकृति का न्यूनतम दोहन हो। वे एक तरह से मार्क्स के उस सिद्धांत का अनुमोदन करते थे जो कहता है कि मशीन के आने से मानव-श्रम और समय की जो बचत होती है उसका सदुपयोग कलाओं- आदि के विकास में हो न कि बेशी मूल्य तैयार करने में।
“अविष्कार करना भले ही वैज्ञानिकों का कार्य हो पर बाजार में इसे उतारने की अनुमति तभी मिलनी चाहिए जब समाज-शास्त्री इसके लिए अनुमोदन करें।” दवाएँ बनाने वाली कम्पनियां जब कोई नई दवा बाजार में उतारती हैं तो मानव शरीर पर उसका क्या प्रभाव-दुष्प्रभाव होगा, यह जानने के लिए लम्बा शोध किया जाता है। लेकिन जब कोई नया अविष्कार बाजार में अचानक ‘उत्पाद’ के रूप में उतार दिया जाता है तो समाज पर उसका क्या प्रभाव होगा, यह जानने के लिए कोई अध्ययन नहीं किया जाता। बात मार्के की है। जरा ठंडे दिमाग से सोचें। इस बीच हमने बहुत सारे वैज्ञानिक कूड़े से अपने समाज को पाट दिया है। हरेक के हाथ में वैज्ञानिक यंत्र तो हैं पर जेहन में वैज्ञानिक-दृष्टि न हो तो वह बन्दर के हाथ में उस्तरे की तरह है। कभी-कभी लगता है कि अब हवा में ऑक्सीजन कम और सूचनाएँ ज्यादा हैं। इतनी कि दम घुटने लगे।
वे कहते थे कि सभ्यता के मूल में एक अर्थ-व्यवस्था होती है और संस्कृति के मूल में सौंदर्य-बोध होता है। सौंदर्य-बोध को लेकर अपने और योरोपीय मापदण्ड भिन्न है। वहाँ वही सुंदर है जो इन्द्रिय-सुख प्रदान करने वाला हो। अपने यहाँ सौंदर्य को सत्य के साथ जोड़कर देखा जाता है। वह आत्मिक है। आत्मा और परमात्मा के मिलन में ‘माया’ हमेशा बाधा खड़ी करती है। जिसे ऋषि-मुनि माया कहते हैं, वह एक कलाकार के लिए ‘डिजाइन’ है।
कलाकार द्वारा किसी रचना की ‘डिजाइन’ इस बात पर निर्भर करती है कि वह किसके लिए और किस उद्देश्य से रच रहा है! गुरुजी कहते थे कि ‘डिजाइन’ में आत्म-मुग्धता नहीं झलकनी चाहिए। “कलाकार के कैनवास में दुनिया नज़र आनी चाहिए पर इधर कलाकारों ने कैनवास को ही अपनी दुनिया बना लिया है।”(सप्रेस)
[block rendering halted]