कृष्णमूर्ति नहीं चाहते थे कि उन्हें याद भी किया जाए. उन्हें नमन, प्रणाम भी किया जाए, ऐसे मौकों पर किसी तरह की श्रद्धांजलि अर्पित की जाए, इसीलिए एक ‘भगवान’, मैत्रेय बुद्ध, अवतार और मसीहा का दर्जा मिलने के बाद भी उन्होंने इन सारी भूमिकाओं को ठुकराया और पूरे जीवन अकेले ही लोगों के साथ छोटे बड़े समूहों में बातें करते रहे, एक आम इंसान, एक दोस्त की तरह.
जिद्दू कृष्णमूर्ति : जन्म दिवस पर विशेष
कृष्णमूर्ति की जयंती पर कोई जश्न और मृत्यु के दिन कोई शोक नहीं मनाया जाता. उनकी किसी तस्वीर पर, यदि आपको पूरे सेंटर में कहीं दिख भी जाये, तो उसपर कोई माला वगैरह नहीं चढ़ाई जाती. मृत्यु से पहले ही उन्होंने इन बातों को लेकर सख्त हिदायतें दी थीं. इसका ज़िक्र जरुरी है क्योंकि यह बात सुख देती है कि जहां अधिकाँश धार्मिक और तथाकथित क्रांतिकारी राजनीतिक संगठन भी किसी न किसी तरह के कर्मकांड में लिप्त होने में कोई असहजता महसूस नहीं करते, वहां कृष्णमूर्ति के बाग़ी ख्यालों की इज्ज़त रखी गयी है. मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूं, न ही समाज शास्त्री और न ही एकेडमिक्स से जुड़ा कोई विद्वान्. पर जहां तक मैंने पढ़ा और समझा, मुझे नहीं लगता कि किसी ने इतनी प्रबलता के साथ मानव निर्मित सामाजिक ढांचे और इसकी सभी संस्थाओं पर प्रहार किया होगा. संगठित धर्म का इतना प्रबल विरोधी तो कोई होगा ही नहीं. इसके अलावा मानव मनोविज्ञान की इतनी बारीक पड़ताल और दुःख की जड़ों को खंगालने वाला दार्शनिक भी मैंने आजतक नहीं देखा.
दर्शन, मनोविज्ञान और धर्म…इन तीनों को कृष्णमूर्ति ने आपके ड्रॉइंग रूम की मेज पर रख दिया, आपके रोज़मर्रा के सवालों के अनुसंधान के लिए. जीवन के प्रति कर्मकांड-रहित, सिद्धांत और परंपरा विरोधी एक नयी समझ जो कृष्णमूर्ति ने हमारे समक्ष रखी उसके लिए शायद हम तैयार नहीं अभी. ऑल्डस हक्सले ने कहा था कि कृष्णमूर्ति को सुनना बुद्ध को सुनने जैसा है (पढ़ें: भूमिका, द फर्स्ट एंड लास्ट फ्रीडम).
मुझे कृष्णमूर्ति में कोई रहस्यवाद, कोई मूर्खतापूर्ण अनुगमन, कोई सतही रूमानियत, कोई बोझिल बौद्धिकता, बीहड़ दार्शनिकता, कभी दिखाई नहीं देती. ऑल्डस हक्सले ने यह भी कहा था: “काश मैं आपको समझने के लिए अपना सब कुछ दे पाता, पर मेरी यह बुद्धि, मेरी यह बौद्धिकता! यह एक दीवार बनी हुई है मेरे लिए”. किसी ने कृष्णमूर्ति को बुद्ध कहा, किसी ने कहा कि वह नागार्जुन को एक नए मुहावरे के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं; किसी ने कहा वेदांत अपने सर्वोच्च रूप में कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं में देखा जा सकता है, और किसी ने कहा कि वे अस्तित्ववादी हैं और एक अधार्मिक रहस्यवादी का नाम भी उनको कुछ मार्क्सवादियों ने दिया. कुछ ने उन्हें कम्युनिस्ट भी कहा. पर कृष्णमूर्ति ने इन सारी बातों को कोरी बकवास बताते हुए एक ओर सरका दिया. उन्होंने कहा कि मेरे बारे में अटकलें लगाने से बेहतर है आप अपने जीवन का अन्वेषण करें और देखें कि आपने खुद को और समाज को कहाँ पहुंचा दिया है.
कृष्णमूर्ति नहीं चाहते थे कि उन्हें याद भी किया जाए. उन्हें नमन, प्रणाम भी किया जाए, ऐसे मौकों पर किसी तरह की श्रद्धांजलि अर्पित की जाए, इसीलिए एक ‘भगवान’, मैत्रेय बुद्ध, अवतार और मसीहा का दर्जा मिलने के बाद भी उन्होंने इन सारी भूमिकाओं को ठुकराया और पूरे जीवन अकेले ही लोगों के साथ छोटे बड़े समूहों में बातें करते रहे, एक आम इंसान, एक दोस्त की तरह.
कृष्णमूर्ति को किस तरह याद किया जाय. और क्या आवश्यकता है उन्हें याद भी करने की. यदि किसी बात का कोई अर्थ है, तो बस यह, कि उनकी बातों के आलोक में खुद का और अपने आपसी संबंधों का अवलोकन किया जाए और उनकी बातों का कोई अर्थ समझ न आये, तो उन्हें एक तरफ कर दिया जाए. कृष्णमर्ति अक्सर दिल में तो आते हैं, समझ में नहीं आते। उनके बारे में सोच कर एक शेर अक्सर याद आता है:
गए दिनों का सुराग लेकर, कहाँ से आया, किधर गया
बड़ा ही मासूम अजनबी था, मुझे तो हैरान कर गया।
कृष्णमूर्ति ने कुछ असम्भव प्रश्नों के बीज मानव चेतना में रोपने की कोशिश बड़ी गम्भीरता के साथ की. इतने अधिक प्रश्न उठाए कि कुछ लोग उन्हें मज़ाक में प्रश्नमूर्ति भी कहते हैं. नीचे के उद्धरण में वह कहते हैं कि यदि अपने सबंधों को खंगाला न जाए तो जीवन में क्लेश और तकलीफ पैदा होती है. एक ऐसा वक्तव्य है यह जिसके साथ ठहरने की जरूरत है.
आज ग़ालिब का भी एक शेर उनकी जयंती पर याद आ रहा है:
हुई मुद्दत के ग़ालिब मर गया पर याद आता है
वो हर इक बात पे कहना कि यूँ होता तो क्या होता (सप्रेस)