अरुण कुमार त्रिपाठी

लोहिया की विद्रोही चेतना अपने ढंग की अनोखी है। वह इतिहास की जरूरी बहसों को बढ़ाती है और व्यर्थ की बहसों को शांत करते हुए उसमें सामंजस्य बिठा देती है। डा. लोहिया अगर भगत सिंह और गांधी के बीच सेतु की तरह काम करते हैं तो वे गांधी और आंबेडकर के चिंतन के बीच भी एक पुल हैं। डा लोहिया अपना जन्मदिन इसलिए नहीं मनाते थे कि उसी दिन भगत सिंह को फांसी सजा हुई थी। संयोग से उन्हें 1942 में लाहौर केंद्रीय जेल में उसी कोठरी में रखकर यातना दी गई थी जिसमे भगत सिंह को रखा गया था। इसी तरह डा.लोहिया मानते थे कि आजादी की लड़ाई और सामाजिक भेदभाव यानी वर्णव्यवस्था के खिलाफ लड़ाई दोनों जरूरी हैं।

अगर माखनलाल चतुर्वेदी एक भारतीय आत्मा थे तो डा. राममनोहर लोहिया एक बेचैन भारतीय आत्मा थे। वे चाहते थे कि इस देश की जनता भीतरी अत्याचारियों के विरुद्ध विद्रोह करे। सरोजिनी नायडू ने महात्मा गांधी के निधन के बाद उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था कि मैं चाहती हूं कि मेरे इस पिता और शिक्षक की आत्मा कभी शांत न हो। ताकि वह संसार को अच्छा बनने के लिए बेचैन करती रहे। लोहिया गांधी की उस बेचैन आत्मा के अंश भी हैं और उनसे स्वतंत्र भी। भारतीय चिंतन परंपरा और राजनीति में लोहिया का योगदान यह है कि वे उसकी जड़ता को तोड़ना चाहते हैं। वे उसे समता और समृद्धि से संपन्न एक विश्व स्तरीय समाज बनाना चाहते हैं। वे अपने समाज से प्यार भी करते हैं और उसके पाखंड और जड़ता पर प्रहार भी करते हैं। वे जलन की राजनीति नहीं करते लेकिन अपनी चिनगारी से अनीति, अत्याचार, दुर्नीति को भष्म कर देना चाहते हैं। इसीलिए लोहिया को श्रद्धांजलि देते हुए सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने जब `लोहिया के न रहने पर’ कविता लिखी तो उन्होंने उनके योगदान को याद करते हुए कुछ इस तरह कहा—-

बर्फ में पड़ी गीली लकड़ियां / अपना तिल तिल कर गरमाता रहा वह

और जब आग पकड़ने ही वाली थी/ खत्म हो गया उसका दौर ……………

ओ मेरे देशवासियों उसके नाम पर / एक चिनगारी और

जो खाक कर दे / दुर्नीति को, ढोंगी व्यवस्था को

कायर मति को/ मूढ़ मति को/ जो मिटा दे दैन्य

शोक व्याधि/ ओ मेरे देशवासियों यही है उसकी समाधि

इस समाज की गीली और कच्ची लकड़ियों को गरमा कर जलाने की कोशिश कर रहे लोहिया की बात आज के दौर में भड़काऊ लग सकती है। अगर आज वे होते तो न जाने कितनी बार देशद्रोह की धारा का सामना कर रहे होते और कितनी बार यूएपीए में पकड़े जा चुके होते। फिर भी सुकरात की तरह वे अपने युवाओं को दर्शन और राजनीति पढ़ाते, उनकी साहित्य और कला में रुचि जगाते और उससे आगे बढ़कर अत्याचारियों से विद्रोह करना सिखाते। लोहिया की विद्रोही चेतना अपने ढंग की अनोखी है। वह इतिहास की जरूरी बहसों को बढ़ाती है और व्यर्थ की बहसों को शांत करते हुए उसमें सामंजस्य बिठा देती है। डा लोहिया अगर भगत सिंह और गांधी के बीच सेतु की तरह काम करते हैं तो वे गांधी और आंबेडकर के चिंतन के बीच भी एक पुल हैं। डा लोहिया अपना जन्मदिन इसलिए नहीं मनाते थे कि उसी दिन भगत सिंह को फांसी सजा हुई थी। संयोग से उन्हें 1942 में लाहौर केंद्रीय जेल में उसी कोठरी में रखकर यातना दी गई थी जिसमे भगत सिंह को रखा गया था। इसी तरह डा लोहिया मानते थे कि आजादी की लड़ाई और सामाजिक भेदभाव यानी वर्णव्यवस्था के खिलाफ लड़ाई दोनों जरूरी हैं। इस प्रकार वे गांधी और आंबेडकर के द्वंद्व में फंसे विमर्श का समाधान प्रस्तुत करते हैं। और वे उन लोगों के लिए भी सीख हैं जो गांधी की तरफ खड़े होकर भगत सिंह की आलोचना करते हैं या भगत सिंह की ओर खड़े होकर गांधी को गाली देते हैं।

हालांकि लोहिया ने समाजवाद के जो मूल सिद्धांत बताए हैं वे हैं समता और समृद्धि लेकिन उनके चिंतन में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अवधारणा सदैव सशक्त रूप से उपस्थित रहे। वे अन्याय से टकराने के हिमायती थी चाहे वह अन्य व्यवस्था का हो, पूंजीवाद का हो, पितृसत्ता का हो या राज्य व्यवस्था का हो। वे अपने से ताकतवर से भी टकराने का साहस भरते थे और युवाओं को परमार्थिक अनुशासनहीनता की सीख देते थे। यह सीख बृजभूषण तिवारी को लिखे उनके पत्र में मौजूद है। जो पत्र आज भी युवाओं के आंदोलन का घोषणा पत्र कहा जा सकता है।

लोहिया ने लोकसभा में नजरबंदी कानून पर जो व्याख्यान दिया वह गहरी अंतर्दृष्टि से प्रेरित है। वे कहते हैं, “आज सरकार और प्रशासन में अराजकता ज्यादा फैल गई है। कायदे कानून का बहुत कम खयाल रखा जाता है।……नतीजा यह होता है कि आज सारे देश में यह भावना फैल गई है कि स्थिरता जिस भी तरीके से भी हो बनाकर रखो। यह स्थिरता क्या है? इसके लिए कुछ थोड़ा सा आपको 1000-1500 वर्ष के इतिहास पर ध्यान देना होगा। हिंदुस्तान बहुत स्थिर हो गया है। इतना स्थिर हो गया है कि आधा मुर्दा बन गया है। आधा तो मैं यूं ही कहे दे रहा हूं। पूरा का पूरा मुर्दा बन गया है। यह देश पिछले 1000-1500 साल में एक बार भी अंदरूनी जालिम के खिलाफ विद्रोह नहीं कर पाया। जब उसने थोड़ा बहुत विद्रोह किया है तो विदेशी आक्रमण या विदेशी राजाओं के खिलाफ विद्रोह किया है, लेकिन अंदरूनी अत्याचारियों के खिलाफ देश ने विद्रोह नहीं किया है। इसलिए बहुत ज्यादा उसे स्थिर मत बनाओ। मैं तो यह भी कहना चाहूंगा कि थोड़ी बहुत अस्थिरता जनता में आए तो वह अच्छा होगा। हमारी जनता मुर्दा बन चुकी है उसे अस्थिर बनाओ। उसे चंचल बनाओ। उसमें कुछ क्रियाशीलता लाओ।’’

उस समय लोहिया गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा को लक्ष्य करके नजरबंदी कानूनों को विरोध करते हैं। वे कहते हैं, “यह नजरबंदी कानून जो सरकार बार बार लाती है वह ताजीराते हिंद की धारा बन गया है। सरकार कहे या न कहे। उन्होंने कहा कि गृहमंत्री ने संविधान में दी गई मौलिक अधिकार की धाराओं को एक दूसरे को काटने वाला बताया है। अगर संविधान की यह मतलब निकाला गया तो संविधान ही खत्म हो जाएगा।’’

इसी बहस के दौरान जब किसी ने कहा कि नजरबंदी की धाराएं इस जनतंत्र के पौधे की रक्षा के लिए लगाई जाने वाली बाड़ हैं, तो लोहिया ने उन्हें समझाते हुए कहा कि यह बाड़ नहीं अमरबेल है। यह तो पेड़ को ही खा जाएगी। इसी बहस में उन्होंने सरकार को सचेत करते हुए कहा कि यहां इंग्लैंड और अमेरिका के कड़े कानूनों का हवाला नहीं देना चाहिए। क्योंकि “हमने तो यह राज्य सत्याग्रह, सिविल नाफरमानी के जरिए बनाया है। सिविल नाफरमानी से बने हुए राज्य के अलग नियम होते हैं। अलग कानून होते हैं। वे कानून वैसे नहीं हो सकते जैसे कि अमेरिका और इंग्लैंड में हैं।’’

लोहिया ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 107, 109 और 144 पर गहरी चोट करते हुए कहा कि यह धाराएं साधारण नागरिक को अपराधी बनाने की औजार बन गई हैं। यह धाराएं गरीब और लाचार आदमी को पीसती हैं।

लोहिया स्वतंत्र लोकतांत्रिक भारत में उन कानूनों पर लगातार चोट करते रहे जिन्हें अंग्रेजों ने अपनी सत्ता कायम करने के लिए चलाया था और जिसे हमारी सरकारों ने समाप्त नहीं किया। लेकिन इसी के साथ उन्होंने भारतीय इतिहास और हिंदू समाज की समस्याओं पर भी बहुत मौलिक तरीके से विचार किया और वर्ग संघर्ष के सिद्धांत की तरह ही उसे उदारता और कट्टरता की लड़ाई के साथ उभरती जटिलता को पकड़ने की कोशिश की। आज भी भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक उभरती तमाम समस्याओं के भीतर कट्टरता और उदारता की लड़ाई को हम देख सकते हैं। वे कहते हैं– “भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाई हिंदू धर्म में उदारता और कट्टरता की लड़ाई पिछले पांच हजार सालों से चल रही है और उसका अंत अभी दिखाई नहीं पड़ता। इस बात की कोई कोशिश नहीं की गई जो होनी चाहिए थी कि इस लड़ाई को नजर में रखकर हिंदुस्तान के इतिहास को देखा जाए।’’

लोहिया बेचैन हैं कि इस लड़ाई का निपटारा उस तरह क्यों नहीं हुआ जिस तरह यूरोप में हुआ। आखिर भारत में सुधार आंदोलनों ने वह असर क्यों नहीं डाला जो पड़ना चाहिए था। यहीं पर लोहिया डा. भीमराव आंबेडकर और ज्योतिराव फुले के करीब खड़े होते हैं और उन्हीं की तर्ज पर भारत की जातियों की संरचना के आधार पर समाजवाद के सिद्धांत का भारतीयकरण करते हैं। जिस तरह फुले द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के समांतर भारत की जाति व्यवस्थाओं की क्रियाओं को सूत्रबद्ध करते हैं और आंबेडकर जाति का समूलनाश का सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं वैसे ही लोहिया जाति तोड़ो का सिद्धांत गढ़ते हैं।

लेकिन लोहिया आंबेडकर की तरह गांधी को खारिज नहीं करते। आंबेडकर तो `कांग्रेस और गांधीजी ने अछूतों के लिए क्या किया’ जैसी पुस्तक लिखकर उन पर काफी तोहमत लगाते हैं जबकि लोहिया गांधी के योगदान को भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा योगदान बताते हैं और गांधी की हत्या के लिए उसी कट्टर जाति व्यवस्था को दोषी ठहराते हैं। हिंदू बनाम हिंदू नामक अपने प्रमुख व्याख्यान में लोहिया कहते हैं, “ महात्मा गांधी की हत्या हिंदू-मुस्लिम झगड़े की उतनी नहीं थी जितनी हिंदू धर्म की उदार और कट्टरपंथी धाराओं की। इससे पहले कभी किसी हिंदू ने वर्ण, स्त्री, संपत्ति और सहिष्णुता के बारे में कट्टरता पर इतनी गहरी चोटें नहीं की थीं। ………………….गांधी जी का हत्यारा वह कट्टरपंथी तत्व था जो हिंदू दिमाग के अंदर बैठा रहता है, कभी दबा हुआ, कभी प्रकट, कुछ हिंदुओं में निष्क्रिय तो कुछ में तेज। जब इतिहास के पन्ने गांधीजी की हत्या को कट्टरपंथी उदार हिंदुत्व के युद्ध की एक घटना के रूप में रखेंगे और उन सभी पर अभियोग लगाएंगे जिन्हें वर्णों के खिलाफ, स्त्रियों के हक में, संपत्ति के खिलाफ और सहिष्णुता के हक में गांधी जी के कामों से गुस्सा था, तब शायद हिंदू धर्म की निष्क्रियता और उदासीनता नष्ट हो जाए।’’

लोहिया गांधी से प्रभावित थे लेकिन उनके भक्त नहीं थे। वे बोल्शेविक क्रांति से भी प्रभावित थे लेकिन उसके पतन के साथ निराश हो गए थे। वे कार्ल मार्क्स से भी प्रभावित थे लेकिन वे मानते थे कि उनके विचार यूरोप के उन्नत औद्योगिक देशों से जिस प्रकार पैदा हुए थे और वहां लागू हुए वैसे वे औपनिवेशिक देशों में लागू नहीं हो सकते। इसीलिए उन्होंने `मार्क्स से आगे का अर्थशास्त्र’ जैसा प्रसिद्ध लेख लिखा  जिसमें भारत के कम्युनिस्टों के आचरण से खिन्नता तो है ही साथ में लेनिन द्वारा मार्क्स के सिद्धांतों की व्याख्या से असहमति भी जताई गई है। लोहिया मानते थे कि साम्राज्यवाद पूंजीवाद का चरम नहीं है बल्कि वे दोनों एक साथ चलने वाली प्रक्रियाएं हैं। पूंजीवाद का वैश्विक रूप किसी गरीब देश के शोषण के बिना खड़ा नहीं हो सकता। वह मजदूरों किसानों का शोषण तो करता ही है। लेकिन उनकी नजर में उससे मुक्ति की लड़ाई हिंसक नहीं होनी चाहिए और न ही सर्वहारा की तानाशाही से उसका विकल्प निकलेगा। यही कारण है कि लोहिया कहते हैं कि वे अगर मार्क्स के समर्थक नहीं हैं तो उनके विरोधी भी नहीं है। जाहिर सी बात है कि वे समता का सिद्धांत उनसे ग्रहण करते हैं। साथ ही अच्छा मनुष्य और समाज बनाने की प्रेरणा गांधी से।

वे गांधीवाद और समाजवाद में कहते हैं,  “पूंजीवाद और साम्यवाद पूर्ण विकसित प्रणालियां हैं और सारी दुनिया पर इनकी पकड़ है। इसका परिणाम है गरीबी युद्ध और भय।’’ लेकिन यह दोनों विचार प्रणालियां बंद हो चुकी हैं। जबकि समाजवाद नाम की तीसरी विचार प्रणाली अभी अविकसित है और इसीलिए इसमें नई संभावना है। वे यह नहीं मानते कि गांधीवाद नाम की कोई नई सैध्दांतिक प्रणाली विकसित करने की जरूरत है। बल्कि गांधी के जीवन और कार्यों की सार अंतर्वस्तु को इस विचार प्रणाली में शामिल किया जाना चाहिए। वे मानते थे , “समाजवाद के लिए गांधी के कार्य एक फिल्टर का काम कर सकते हैं जिनसे छन कर वह कचरे से बच सकता है। ’’ लोहिया ने गांधी और मार्क्स के विचारों के सूत्र लेकर उनकी रस्सी बुनने के बौद्धिक अभ्यास पर भी विचार किया है। लेकिन उसे व्यर्थ मानते थे। उनका कहना था कि उनकी बातों को अगर इस तरह से लिया जाए कि उससे समाजवाद का सुसंगत वस्त्र बुना जा सके तो अच्छा होगा।

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