ध्यान से देखें तो आजादी के बाद से ही गांधी और उनके बाद विनोबा ने लगातार हमारे विकास की बातें की हैं। ये बातें सम-सामयिक सत्ता-प्रतिष्ठानों को कभी नहीं सुहाई और नतीजे में अब हम विकास को विनाश की संज्ञा देने के लिए मजबूर हो गए हैं। क्या अब भी विनोबा की बातों से कुछ सीखा-सुधारा जा सकता है प्रस्तुत है, विनोबा की पुण्यतिथि (15 नवंबर) पर डॉ. विजय श्रीवास्तव का यह विशेष आलेख।
महान गांधीवादी विचारक, कर्मयोगी और भूदान आंदोलन के प्रणेता भारतरत्न विनोबा भावे न केवल भारत के गौरव थे, अपितु समस्त संसार के आध्यात्मिक गुरू भी थे। उनका भूदान और ग्रामदान का विचार पश्चिमी देशों के चिंतकों को भी सम्मोहित करता है। लुई फिशर ने उनके योगदान को स्मरण करते हुए कहा था कि “ग्रामदान हाल के समय में पूरब से आया सबसे रचनात्मक विचार है। आजादी के प्रारम्भिक वर्षों में नेहरु ने उस बाजार आधारित मॉडल पर केंद्रीय योजनाओं के माध्यम से भारत का नवनिर्माण करना चाहा जिसे महात्मा गांधी ने 1910 में उनकी कालजयी रचना “हिंद स्वराज” में सिरे से खारिज कर दिया था। दुर्भाग्य से नेहरु ने विकास के गांधी जी के सर्वोदय मॉडल की जगह पूंजीवादी मॉडलों को तरजीह दी। महात्मा गांधी के देहावसान के बाद देश में नेहरु की समाजवादी अर्थव्यवस्था ने गांधीवादी विचारकों के मध्य एक निराशा का माहौल बना दिया था। विनोबा ने इन निराशाओं के भंवर को पीछे छोड़ते हुये लोकनीति में सामुदायिक अहिंसा का एक महान प्रयोग किया, जिसने आगे चलकर भूदान और ग्रामदान का रुप ले लिया।
गांधी की भांति विनोबा भी अहिंसक, विकेंद्रीकृत समाज को सच्चे अर्थों में कल्याणकारी समाज मानते थे। विनोबा महान गांधीवादी आर्थिक अर्थशास्त्री जेसी कुमारप्पा की स्थायी समाज व्यवस्था के उच्चतम स्तर को प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील भी थे। वे एक ऐसे ग्रामीण समाज का निर्माण करना चाहते थे, जिसमें विभिन्न आर्थिक एवं सामाजिक संगठन एक-दूसरे से बिना किसी स्वार्थ के परस्पर सौहार्दपूर्ण विनिमय करते हों। नि:संदेह विनोबा का यह सामाजिक और आर्थिक दर्शन गांधी के विचारों का एक प्रवाह है। अपरिग्रह, न्यासिता, स्वदेशी, सत्याग्रह, विकेंद्रीकरण और सर्वोदय विनोबा के आर्थिक दर्शन के महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं और इसके आधार पर ही वे एक शोषणरहित अहिंसक समाज की स्थापना करना करना चाहते हैं।
कुछ लोग अपने विचारों से समाज में एक वैचारिक क्रांति पैदा करते हैं और कुछ लोग अपने कार्यों से क्रांतिकारी विचार पैदा करते हैं। विनोबा वास्तव में दोनों प्रकार के लोगों का एक सम्मिश्रण हैं इसलिए उन्हें एक कर्मयोगी क्रांतिकारी कहना उचित होगा। उन्होंने भूदान और ग्रामदान के विचार को एक क्रांतिकारी आंदोलन में परिवर्तित कर दिया। उनका यह अहिंसक आंदोलन समता मूलक, संघर्ष विहीन समाज के निर्माण के लिये एक अद्वितीय प्रयास था, क्योंकि भूदान और ग्रामदान का विचार आर्थिक एवं सामाजिक असमानताओं को समाप्त करने के लिये एक अहिंसक माध्यम बनकर सामने आया। वर्तमान समय में जब भूमि-अधिग्रहण कानून को लेकर तमाम प्रकार की हिंसक घटनाएं हो रही हैं, लोगों को विनोबा की वैचारिक अहिंसक क्रांति से सीखना चाहिये। ये कार्य बाजारवादी ताकतों के मोहपाश में फंसी हुई केंद्रीय सत्ता नहीं कर सकती, इसके लिये सामुदाय़िक तौर पर विकेंद्रीकृत प्रयास करने होंगे। यहां ये बात भी विचारणीय है कि वर्तमान भारत में जो भी भूमि संबधी समस्याएं उत्पन्न हुयी हैं कहीं-न-कहीं उनका प्रादुर्भाव गांधी के विचारों की अवहेलना के कारण ही हुआ है।
आधुनिक सभ्यता के मानव जीवन पर पड़ने वाले कुप्रभावों का विवेचन विनोबा भी अपने साहित्य में गांधी की ही भांति करते हैं। विनोबा भावे अपनी पुस्तक “स्वराज शास्त्र” एवं “लोक नीति” में जिन राजनीतिक विचारों की सारगर्भित व्याख्या की है, वह गांधी की ‘हिंद स्वराज’ की दृष्टि से ही प्रभावित है। इस अर्थ में बेहतर समझा जा सकता है कि विनोबा लोक व्यवहार में ग्राम आधारित गणतंत्रीय व्यवस्था में स्वशासन की अवधारणा को सरकार से मुक्ति के संदर्भ में देखते थे। आज जिस अधिकतम शासन और न्यूनतम सरकार की बात की जाती है, उसकी नींव विनोबा की दूरदर्शी सोच में पहले से ही दिखाई देती है।
विनोबा ने न केवल सर्वोदय़ के सिद्दांत की व्याख्या की अपितु अपने रचनात्मक कार्यक्रमों में इसे साकार करने के लिये अथक शारीरिक और मानसिक श्रम भी किया। हजारों किलोमीटर की देशव्यापी पदयात्रा करके उन्होंने जमींदारों, भू-स्वामियों का सत्याग्रह के माध्यम से ह्रदय परिवर्तन किया और वंचितों, भूमिहीन मजदूरों, दलितों को उनका मालिकाना हक दिलाया। भूमि वितरण की इस सुधारवादी प्रकिया के दौरान उन्होंने “सबै भूमि गोपाल की” का नारा देकर इसे एक सामुदायिक कार्यक्रम के तौर पर विकसित भी किया।
विनोबा का आर्थिक एवं सामाजिक दर्शन सर्वोदयी समाज के निर्माण के लिये तीन प्रकार के विकेंद्रीकरण को मुख्यरूप से आवश्यक मानता है – सत्ता का विकेंद्रीकरण, आर्थिक तंत्र का विकेंद्रीकरण और ज्ञान का विकेंद्रीकरण। शासन के विकेंद्रीकरण का अर्थ है “लोगों के हाथों में स्वयं का शासन और समाज के हितों के लिये सामुदायिक योजना बनाना, आर्थिक विकेंद्रीकरण से आशय ग्राम आधारित कुटीर और लघु उद्योगों को गांवों में विकसित करना और ज्ञान के विकेंद्रीकरण का मतलब है नवाचार और मानव कल्याणकारी तकनीक को गांवों तक पहुंचाना। ग्राम विश्वविदयालयों की स्थापना एक सामुदायिक योजना के अन्तर्गत करना। इन तीन घटकों के विकेंद्रीकरण के माध्यम से ही एक अहिंसक और शांतिपूर्ण समाज की रचना की जा सकती है। किंतु खेद का विषय है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात इन तीनों ही घटकों का केंद्रीयकृत रुप भारतीय समाज पर जबरन थोप दिया गया।
भू-मंडलीकरण के दौर में आवश्यकता इस बात की है कि विनोबा जैसे मनीषियों के सामाजिक एवं आर्थिक चिंतन का न केवल गहन अध्ययन किया जाये, अपितु सामाज में व्याप्त हिंसा, असमानता, गरीबी और बेरोजगारी जैसी समस्याओं के निराकरण के लिये उनका युध्द स्तर पर प्रय़ोग भी किया जाय। इस कार्य के लिये न केवल शासन, संगठन और विधायी शक्तियों को बल्कि जनमानस को भी अपनी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। विनोबा के पावन विचारों को लोगों के मन तक पहुंचाना होगा, तभी हम इस अहिंसक क्रांतिकारी युगपुरुष के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि व्यक्त कर पायेंगे और उनके जय जगत का सपना भी पूरा होगा। (सप्रेस)
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