यादें : देश के कालजयी हिंदी संपादक और चिंतक राजेंद्र माथुर

31 वीं पुण्‍यतिथि

वह राजेंद्र माथुर का पहला तार था। छतरपुर जैसे छोटे से कस्बे में किसी नौजवान पत्रकार को नईदुनिया के प्रधान सम्पादक का तार। साइकिल उठाकर पूरे शहर के परिचितों को दिखाता फिरा | वो 1977 के चुनाव के दिन थे |नई दुनिया ने एक लेख माँगा था | मेरे जैसे कस्बाई और देहाती पत्रकार के लिए यकीनन गर्व की बात थी |उन दिनों की नई दुनिया देश की हिंदी पत्रकारिता का सर्वश्रेष्ठ नाम था| आलेख भेजा |छपा | नई दुनिया और राजेंद्र माथुर से रिश्ते की शुरुआत | मैं लिखता | माथुर साहब हर दूसरे तीसरे आलेख पर अपनी राय देते |वे पत्र खुद लिखा करते थे |इन पत्रों ने लगातार मेरा हौसला बढाया |आम पत्रकारों की तरह मैं भी नई दुनिया का संवाददाता बनना चाहता था |लेकिन नई दुनिया की नीति हर जिले में संवाददाता बनाने की नहीं थी |मैं आग्रह करता रहा |नईदुनिया ठुकराती रही |अलबत्ता आलेख ज़रूर छपते रहे | मेरे लिए यही बहुत था | एक दिन माथुर साहब का तार मिला | इंदौर मिलने आइए| आने जाने का किराया दे देंगे | मैं उस अलौकिक अखबार के दफ्तर में था | जिस अखबार का संवाददाता न बन सका ,उसका उप संपादक बनने का प्रस्ताव |लॉटरी खुल गई |राजेंद्र माथुर से रिश्ते का एक नया रूप |

पत्रकार के तौर पर बुंदेलखंड जैसे पिछड़े इलाके से अंग्रेज़ी में लिखने का अवसर कम ही आता था | यू.एन .आई और पी .टी .आई के साथ काम करते हुए स्थानीय खबरें ही भेजीं थीं | माथुरजी ने ज्वाइन करते ही सम्पादकीय पन्ने के लिए एक आलेख अनुवाद के लिए दिया |अगर मुझे याद है तो वो आलेख कुलदीप नैयर का था । शायद वे मेरी अंग्रेज़ी जांचना चाहते थे |ज़ाहिर था -मैं उनकी अपेक्षा पर खरा नहीं उतरा |इसके बाद उनका आदेश था -रोज सुबह घर आओ |मैं अंग्रेज़ी अनुवाद सिखाऊंगा |अगले दिन से सुबह किराए पर साइकल लेकर पांच किलोमीटर दूर उनके घर जाता और वे मुझे अंग्रेज़ी पढ़ाते| राजेंद्र माथुर का यह नया रूप मेरे सामने था |दिन गुजरते रहे |वे अखबार की हर विधा में मुझे पारंगत देखना चाहते थे |शायद मैं कुछ कर भी पाया |इसी बीच वे नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक बन कर दिल्ली जा पहुंचे | मैं उनके पैरों की धूल भी न था मगर कुछ साल बाद नईदुनिया प्रबंधन ने मुझ पर भरोसा किया | मैं सह संपादक के रूप में उसी कुर्सी पर बैठकर कमोबेश वही सारे काम कर रहा था ,जिस पर माथुर साहब बैठते थे | रोज़ मैं उस लकड़ी की कुर्सी पर बैठने से पहले प्रणाम करता था ।

सिलसिला चलता रहा | माथुर साहब जब इंदौर आते ,मैं उनसे मिलने पहुँच जाता । वे बड़े उत्साह से नवभारत टाइम्स में हो रहे बदलावों का ज़िक्र किया करते थे । एक दिन ( शायद 28 जुलाई 1985 ) दिल्ली से उनका फोन नई दुनिया के दफ्तर आया । मैं उन दिनों तक अखबार की अनेक ज़िम्मेदारियाँ सँभाल रहा था । माथुर जी ने कहा -एक सप्ताह के भीतर जयपुर पहुंचो । नवभारत टाइम्स जयपुर संस्करण शुरू करने जा रहा था |माथुर साहब एक नए अंदाज़ और अवतार मैं थे | मैंने मुख्य उप संपादक के रूप में जयपुर ज्वाइन किया । इसके बाद अगले पाँच – छह साल उनके मार्गदर्शन में काम किया । राजेन्द्र माथुर और सुरेन्द्र प्रताप सिंह की जोड़ी ने देश की हिंदी पत्रकारिता को ऐसे सुनहरे दिन दिखाए ,जो उस दौर के हिंदुस्तान में लोगों को चमत्कृत कर रही थी |आज तो सिर्फ उन दिनों की यादों कीतड़प बाकी है | राजेंद्र माथुर के साथ काम करने का अनुभव अनमोल मोती की तरह मेरे पास है |वे जितने अच्छे पत्रकार थे ,उससे अच्छे लेखक | जितने अच्छे लेखक थे,उससे अच्छे सम्पादक | जितने अच्छे संपादक थे ,उससे अच्छे इंसान | किसी भी देश को ऐसे देवदूत बार बार नहीं मिलते |

कुछ साल पहले मैं एक पत्रकारिता संस्थान में गया |छात्रों से बातचीत के दौरान मैने उनसे राजेंद्र माथुर के बारे में पूछा| अफ़सोस ! कम छात्र ही थे जो माथुर जी के बारे में ठीक-ठाक जानकारी रखते थे |मेरे लिए यह एक सदमें से कम नहीं था | कहीं न कहीं बड़ी गलती हुई है |नई पीढी अगर माथुर साहब का लिखा नहीं पढ़ रही है ,उन्हें नहीं जान रही है तो हम लोग भी कम ज़िम्मेदार नहीं हैं |एक तो उनके लेखन को सामने लाने में देरी हुई | दूसरे पत्रकारिता के पाठ्यक्रमों में राजेंद्र माथुर को जो जगह मिलनी चाहिए,वह नहीं मिल पाई| तीसरा टेलिविजन पत्रकारिता ने माथुर साहब को कहीं गुम कर दिया| यह गलती अब भी ठीक की जा सकती है |यह सोचकर मैंने तय किया कि अगर नई पीढी के पत्रकार माथुर जी का लेखन नहीं पढना चाहते तो कम से कम उनके बारे में न्यूनतम जानकारी तो रखें |

मैंने राजेंद्र माथुर पर वृत चित्र बनाने का फैसला किया | यह 2005 की बात है। फैसला तो कर लिया ,लेकिन जो हमारे बीच से करीब दो दशक पहले जा चुका हो ,उस पर फिल्म बनाना आसान नहीं था| और फिर माथुर जी जैसा संपादक ,जिन्होंने अपने बारे में कभी प्रचार -प्रसार का सहारा नहीं लिया हो ।हम लोग तो फिर भी अपनी कुछ तस्वीरें ,वीडियो इत्यादि सुरक्षित करते रहते हैं। बहुत कुछ सामग्री मेरे पास थी ,लेकिन उनकी आवाज़ , उनके विजुअल्स खोजना आसान नहीं था |तीन सालभटकता रहा |कई बार लगता -फिल्म नहीं बन पाएगी |फिर अन्दर से ताक़त जुटाता और खोज में लग जाता |श्रीमती मोहिनी माथुर ने फिल्म के लिए बहुत सहयोग किया | आलोक मेहता जी ने अपने ख़ज़ाने से माथुर जी के बारे में कुछ दुर्लभ सामग्री निकाली | इस तरह तीन – चार साल में फ़िल्म तैयार हो ही गई ।जो भी मेरी अपनी बचत थी ,उसका इससे बेहतर कोई और इस्तेमाल नहीं हो सकता था। इसका पहला शो 2010 में इंदौर प्रेस क्लब में हो चुका है |माथुर जी इसके अध्यक्ष रहे थे |उनके नाम पर सभागार भी वहां है |फिल्म का शो इसी ऑडिटोरियम में हुआ | इसके बाद यह फिल्म देश के क़रीब एक दर्ज़न राज्यों के पत्रकारों, मीडिया के छात्रों और विश्व विद्यालयों के बीच दिखाई जा चुकी है ।अभी भी दिखाई जा रही है ।

इन्ही दिनों मुझे संसद के दूसरे राज्यसभा टेलीविजन चैनल को शुरू करने की ज़िम्मेदारी मिली। मैंने कार्यकारी संपादक के पद पर ज्वॉइन किया ।उसके बाद कार्यकारी निदेशक के तौर पर काम किया। उन्हीं दिनों मैंने आधा घण्टे की एक फ़िल्म उनकी नज़र उनका शहर श्रृंखला के तहत तैयार की । जब तक मैं वहाँ रहा ,माथुर जी की हर जन्म तिथि और पुण्यतिथि पर यह फिल्म दिखाई जाती रही । अब तो यह चैनल ही अंतिम साँसें गिन रहा है। इन दिनों मैं राजेंद्र माथुर जी पर एक ग्रन्थ तैयार कर रहा हूँ । इसमें माथुर जी के कुछ अब तक अप्रकाशित आलेख ,उनका जीवनवृत ,उनका इतिहास बोध ,उनके समकालीन संपादकों के आलेख और कुछ दुर्लभ चित्र तथा दस्तावेज़ शामिल किए जाएंगे । पत्रकारिता के छात्रों और पत्रकारों के लिए यह एक संग्रहणीय ग्रन्थ हो सकता है ।आज़ाद भारत के इतिहास में इतना विलक्षण संपादक दूसरा नहीं हुआ। उनके साथ संपर्क के चौदह साल मेरे लिए अनमोल धरोहर हैं।मेरी सादर विनम्र श्रद्धांजलि।

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