रघुराज सिंह

इसी हफ्ते की शुरुआत में श्याम बेनेगल का सदा के लिए विदा होना हमारे दौर के एक ऐसे युग की समाप्ति का संकेत है जिसने आजादी के बाद बनते देश की जद्दो-जेहद को अपनी फिल्मों के जरिए उजागर किया था। एक तरह से श्याम बेनेगल की फिल्में हमें अपने हालिया इतिहास से रू-ब-रू कराती हैं। ऐसे अप्रतिम फिल्मकार पर प्रस्तुत है, रघुराज सिंह का यह विशेष लेख।

Shyam Benegal श्याम बेनेगल नहीं रहे। वे 90 साल 9 दिन की पकी उम्र में 23 दिसम्बर की शाम हम सबका साथ छोड़ गए। उन जैसी शख्सियत के लिए अंग्रेजी में एक सधा हुआ सही मुहावरा है जिसे श्याम बेनेगल से जोड़कर कहा जाएगा ‘लेट अस सेलिब्रेट श्याम बेनेगल।’ उनके सिनेमा के प्रशंसकों, समीक्षकों और इतिहासकारों ने उनकी मृत्यु को ठीक इसी भावना से लिया है। चौंकाने वाली बात यह है कि हिन्दी मीडिया, खासकर समाचार पत्रों ने उनके न रहने पर उनके सिनेमा की खुसूसियतों के बारे में खासे विस्तार से लिखा है।

श्याम बेनेगल ने अपने पिता से मिले 16 मिमी कैमरे से 12 साल की उम्र में एक घरेलू फिल्म बनाई थी। उन्होंने अपने छात्र जीवन में ही यह निर्णय कर लिया था कि सिनेमा ही उनका कार्यक्षेत्र और अभिव्यक्ति का माध्यम होगा। अर्थशास्त्र की पढ़ाई के बाद वे विज्ञापन की दुनिया में चले गए। बांग्ला फिल्मकार सत्यजीत राय और उनके रिश्ते के भाई गुरूदत्त उन्हें गहरे तक प्रभावित करते थे। उनके सिनेमा में सक्रिय होने के पूर्व मृणाल सेन की ‘भुवनसोम’ और मणि कौल की ‘दुविधा’ जैसी एक अलग शैली की फिल्में आ चुकी थीं।

प्रतिरोध का सिनेमा

साल 1974 में बेनेगल ने ‘अंकुर’ फिल्म के साथ हिन्दी सिनेमा में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई। ‘अंकुर’ एक अलहदा किस्म की फिल्म थी जिसने जनमानस को गहरे तक झकझोरा था। सत्तर का यह दशक वह समय था जब देश आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तौर पर तरह-तरह की चुनौतियों का सामना कर रहा था। इन बदलते हालतों से सिनेमा और बेनेगल जैसे फिल्मकार भी प्रभावित हो रहे थे। यह असर ‘अंकुर’ में साफ देखा जा सकता है। फिल्म में जाति, धर्म और लैंगिक असमानताओं के विविध रंग अपनी बारीकियों और तीक्ष्णताओं के साथ मौजूद हैं और सामंती अत्याचारों को उजागर करते हैं। ‘अंकुर’ का अन्तिम दृश्य कभी न भूलने वाला है जिसमें एक बच्चा हवेली पर पत्थर फेंक रहा है। यह बहुत अर्थवान है जिसमें सामाजिक बदलाव का संदेश बहुत स्पष्ट है।

सन 1976 में आई उनकी एक और फिल्म ‘मंथन’ भी अन्याय से संघर्ष का एक बेहतरीन सिनेमाई दस्तावेज है। बेनेगल इस फिल्म के निर्माण का श्रेय ‘अमूल’ (आणंद मिल्क यूनियन लिमिटेड) के वर्गीस कुरियन को देते हैं। बेनेगल ने कुरियन के सामने प्रस्ताव रखा था कि विज्ञापन फिल्मों की जगह दूध के सहकारी आंदोलन पर फीचर फिल्म बनाना चाहिए जिसका असर और दायरा बडा होगा। कुरियन के सुझाव पर पांच लाख दूध उत्पादकों ने दो-दो रूपये ‘मंथन’ फिल्म के निर्माण के लिए दिए। ‘मंथन’ अपनी तरह की बिलकुल ही अनूठी फिल्म थी जिसने गुजरात के सहकारी आंदोलन की सफलता की इबारत लिखी।

ऐसी ही एक फिल्म ‘सुसमन’ थी जो पोचमपल्ली (तेलंगाना) के साडी बुनकरों की जिन्दगी पर केंद्रित, शोषण के दुष्चक्र के खिलाफ संघर्ष की कहानी है। ‘सुसमन’ के माध्यम से बुनकरों की समस्या सरोकारों के केन्द्र में आई। बेनेगल की ‘अंकुर,’ ‘मंथन’ और ‘सुसमन’ की यह त्रयी सातवें – आठवें दशक में आ रहे राजनीतिक बदलावों और सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं पर गहरी चोट करती है। इन तीनों फिल्मों में व्यक्त अभिप्राय स्पष्ट हैं और चेतावनियां भी।

श्याम बेनेगल ने सिनेमा से जुड़े अपने 50 सालों में 24 फीचर फिल्में, 45 डाक्यूमेंट्री और पचासों विज्ञापन फिल्में बनाईं। ‘मंडी,’ ‘भूमिका,’ ‘जुबेदा,’ ‘जुनून,’ ‘कलयुग,’ ‘त्रिकाल,’ ‘सूरज का सातवां घोडा,’ ‘मम्मो’ जैसी विलक्षण फिल्मों के लिए उन्हें याद किया जाएगा। उनकी फिल्मों का भौगोलिक दायरा बहुत फैला हुआ था। उन्होंने गुजरात, आंध्रप्रदेश, राजस्थान, गोवा, अवध (उत्तरप्रदेश) और महाराष्ट्र की पृष्ठभूमि में अपना सौद्देश्य और गंभीर सिनेमा रचा। शशि कपूर के साथ मिलकर ‘जुनून’ और ‘कलयुग’ जैसी दो फिल्में बनाईं। ये दोनों ही बेनेगल की शैली की फिल्में थीं।

भारत एक खोज

उन्होंने दूरदर्शन के लिए 53 एपीसोड का एक सीरियल बनाया जो जवाहरलाल नेहरू की पुस्तक ‘डिस्कवरी आफ इण्डिया’ पर आधारित था। सीरियल ‘भारत एक खोज’ के लिए एक बडी टीम जुटाई गई और व्यापक शोध किया गया। जितनी अद्भुद यह पुस्तक है उतना ही अद्भुत यह सीरियल। इतिहास की प्रामाणिकता का खासतौर पर ध्यान रखा गया। किरदारों का चयन इसे विशिष्ट बनाता है। आज यह जानना चौंकाने वाला लग सकता है कि इसमें शिवाजी के रूप में नसीरूददीन शाह ने और औरंगजेब के रूप में ओमपुरी ने अभिनय किया है। इसमें महाभारत के प्रसंग में देश की तीन लोक-शैलियों – पण्डवानी, कथकली और छाऊ – का अत्यन्त कल्पनाशील और प्रभावी प्रयोग किया गया है। इसमें राजा-महाराजा और ईश्वर सामान्य से आदमी ही नजर आते हैं। वनराज भाटिया का संगीत सीरियल को गरिमा देता है। ‘भारत एक खोज’ का निर्माण फिल्म और टेलीविजन के इतिहास में बिरला है।

संविधान

श्याम बेनेगल ने ‘राज्यसभा टीवी’ के लिए संविधान पर दस अंकों के धारावाहिक का निर्माण किया। इसमें दर्शाया गया है कि ‘संविधान सभा’ में कितने गंभीर और विस्तृत बहस-मुबाहिसे हुए। ‘संविधान’ का निर्माण ऐसी अनकही कहानी का फिल्म-रूपान्तरण है जो यह बताती है कि इस  बडे लोकतंत्र में संविधान को किस प्रकार आकार दिया गया। सालों चली बहसों को दस घन्टों में समेटना एक असंभव कार्य है जिसे इस धारावाहिक में किया गया है।

श्याम बेनेगल ने अपनी अधिकांश फिल्मों और धारावाहिकों में पहले से स्थापित कलाकारों को सामान्यत: नहीं चुना। इसके विपरीत उन्होंने उस जमाने के नए कलाकारों, जैसे – शबाना आजमी, ओम पुरी, नसीरूद्दीन शाह, अनन्त नाग, स्मिता पाटिल, पंकज कपूर और कुलभूषण खरबंदा को अपनी फिल्मों और धारावाहिकों में जगह दी और उन्हें ऊंचे कद के कलाकारों के रूप में स्थापित किया। वे हमेशा नई प्रतिभाओं की तलाश में रहते थे और उनके काम को पहचानते थे। उनके पटकथा लेखकों में शमा जैदी और सत्यदेव दुबे जैसे व्यक्तित्व जुडे रहे।

श्याम बेनेगल ने फिल्मों और धारावाहिकों के अलावा महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस और सत्यजीत राय पर वृत्तचित्रों का निर्माण किया। ये बायोग्राफिक वृत्तचित्र एक भिन्न शैली में रचे गए जो पारम्परिक शैली से अलग थे। उन्होंने शास्त्रीय संगीत के मूर्धन्य पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर पर भी एक नवाचारी वृत्तचित्र बनाया जिसमें उनकी गायन शैली से इतर उनके संगीत को प्रभावित करने वाले कारकों को बताया गया है। हालांकि यह वृतचित्र कुछ अधूरा सा ही उपलब्ध है। इसमें स्वर्गीय मंसूर के बेटे राजशेखर ने अपने पिता की भूमिका निभाई है। उनकी अंतिम फिल्म ‘मुजीब : द मेकिंग आफ ए नेशन’ थी जो उन्होंने बांग्लादेश के लिए 2023 में बनाई थी।

‘भारत एक खोज’ में श्याम बेनेगल की टीम के सदस्य रहे भोपाल के सुनील शुक्ला बताते हैं कि वे पूरी तरह से परफेक्शनिस्ट थे। सम्पादन के समय फिल्म पर संगीत के पांच-छह ट्रेक चलते हैं, इनमें से वे किसी एक को बिना समय गवाये तुरंत चुनकर उसकी कमियों को दूर करने के निर्देश देते थे। उनकी दूसरी आदत का उल्लेख करते हुए सुनील बताते हैं कि वे कलाकारों को काम करने के लिए पर्याप्त स्पेस देते थे जिससे वे बेहतर कर सकें। श्याम बेनेगल और उन्हें मिले पुरस्कारों के विषय में लिखना एक बडी सूची को बताना होगा। उन्हें वे सब पुरूस्कार मिले, जो मिलना चाहिए थे। दुनियाभर के ‘फिल्म-क्लबों’ ने 100 श्रेष्ठ निर्देशकों में भारत के सत्यजीत राय के अलावा श्याम बेनेगल को चुना था। वे अपने सिनेमा के विषय में बहुत ही रोचक बातें कहते थे। जैसे – ‘प्रत्येक फिल्म सच में तो एक साहस से भरा काम है’ या ‘फिल्म अभिव्यक्ति की दिशा में यात्रा है’ और ‘मेरे लिए हर फिल्म पहली फिल्म होती है और जब वह समाप्त होती है तो अन्तिम फिल्म।’  उनका यह भी कहना था कि ‘मैंने कभी समझौता नहीं किया और न ही किसी ने हस्तक्षेप किया। जो करना चाहता था, वह किया। जैसी फिल्में बनाना चाहता था, वैसी बनाईं। मैं खुशकिस्मत था।’ (सप्रेस)