मंगलेश डबराल : कविता और गद्य में अलग से पहचानी जाती लालटेन की रोशनी बुझ गई

जनवादी कवि मंगेलश डबराल हमेशा हमारे बीच में रहेंगे

प्रस्‍तुति : कुमार सिध्‍दार्थ

9 दिसंबर । वरिष्ठ कवि-लेखक और पत्रकार मंगलेश डबराल का हमारे बीच न रहना साहित्यिक और पत्रकारिता जगत की बडी क्षति है। मंगलेश डबराल समकालीन हिंदी कवियों में सबसे चर्चित नाम थे। डबराल सेवा निवृत्त होने के बाद स्वतंत्र लेखन और पत्रकारिता कर रहे थे। उनके निधन से साहित्य और पत्रकारिता जगत में शोक की लहर फैल गई है।

मंगलेश डबराल का जन्म सन 14 मई, 1948 को टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड के कापफलपानी गाँव में हुआ था। उनकी शिक्षा-दीक्षा देहरादून में हुई । दिल्ली आकर हिन्दी पैट्रियट, प्रतिपक्ष और आसपास में काम करने के बाद वे भोपाल में मध्य प्रदेश कला परिषद्, भारत भवन से प्रकाशित साहित्यिक त्रैमासिक पूर्वाग्रह में सहायक संपादक रहे। मंगलेशजी जनसत्ता के साहित्य संपादक भी रह चुके हैं। इसके अलावा, उन्होंने लखनऊ से प्रकाशित होने वाले अमृत प्रभात में भी काम किया। फिलहाल वे नेशनल बुक ट्रस्ट से जुड़े हुए थे।

मंगलेश डबराल की पांच काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनके नाम-पहाड़ पर लालटेन, घर का रास्ता, हम जो देखते हैं, आवाज भी एक जगह है और नये युग में शत्रु है। इसके अलावा, इनके दो गद्य संग्रह- लेखक की रोटी और कवि का अकेलापन भी प्रकाशित हो चुका है।

उन्‍हें प्राप्‍त कई लब्‍ध प्रति‍ष्ठित पुरस्‍कारों जिनमें ओमप्रकाश स्मृति सम्मान, श्रीकांत वर्मा पुरस्कार, शमशेर सम्मान, पहल सम्मान, कुमार विकल स्मृति सम्मान, साहित्य अकादेमी पुरस्कार, हिंदी अकादमी का साहित्यकार सम्मान आदि उल्‍लेखनीय है।

ख्‍यात पत्रकार ओम थानवी ने कहा कि मंगलेश डबराल के चले जाने से कविता और गद्य में अलग से पहचानी जाती लालटेन की रोशनी बुझ गई। कोरोना ने बहुतों को छीना है। पर मंगलेशजी के जाने से हिंदी साहित्य सदमे में गया है। वे सिद्ध कवि थे। उनका गद्य भी सुघड़ था। उन्होंने मुख्य धारा की पत्रकारिता में साहित्य को ख़ास जगह दी। कला और शास्त्रीय संगीत में भी उनकी ख़ास रुचि थी।

उनका जाना मेरे लिए निजी क्षति है। जनसत्ता में हमने साथ काम किया। बाद में वे भी जनसत्ता आवास में आ गए। तब अजेय कुमार और जब-तब विष्णु खरे की मौजूदगी में हमारे यहाँ बहुत बैठकी हुई। उनका गाना भी ख़ूब सुना। बहसें भी ख़ूब कीं। रवींद्र त्रिपाठी और संजय जोशी की पोस्ट पढ़कर उम्मीद बंध चली थी कि अब वे ख़तरे से बाहर हैं। अजेय कुमार बोले भी कि दिल्ली आइए, मंगलेशजी भी आने वाले हैं। एम्स जाने पर तो सबकी उम्मीद और मज़बूत हो गई थी। लेकिन इस महामारी का भी क्या भरोसा।

संगतकार चला गया, पर उनके साहित्य की संगत बनी रहेगी। यह भरोसा पक्का है। इसे कौन महामारी हिला सकती है? उनकी स्मृति को नमन।

प्रसिद्ध कवि आलोकधन्वा कहते है कि ‘मंगलेश फूल की तरह नाजु़क और पवित्र हैं।’

हिंदी के प्रसिद्ध कवि और आलोचक पंकज चतुर्वेदी ने कहा कि मंगलेशजी ने अपने समूचे वजूद से कविता को संभव किया है; क्योंकि उससे कम या अधूरा कुछ करना एक गुनाह ही होता—

वह कोई बहुत बड़ा मीर था
जिसने कहा प्रेम एक भारी पत्थर है
कैसे उठेगा तुझ जैसे कमज़ोर से

मैंने सोचा
इसे उठाऊँ टुकड़ों–टुकड़ों में

पर तब वह कहाँ होगा प्रेम
वह तो होगा एक हत्याकांड–’’

आज की हिन्दी कविता में मंगलेश डबराल का होना इस मानी में असाधारण है कि उनके कवि में ‘यातना का कवि’ और ‘प्रेम का कवि’ दोनों जैसे एकाकार हो गये हैं—

‘‘यातना का कवि जल्दी ही इस संसार से चला गया
तब प्रेम के कवि ने सोचा मुझे रहना चाहिए यहाँ कुछ दिन और
अंतत: प्रेम ही है यातना का प्रतिकार
अन्याय का प्रतिशोध
फिर वह अकेला झेलता रहा सारी यातना रह सका जितनी देर–’’।

उनके काव्‍य संग्रह ‘पहाड पर लालटेन’, ‘घर का रास्ता’, ‘हम जो देखते हैं’, ‘आवाज भी एक जगह है’, ‘नये युग का शत्रु’, ‘कवि ने कहा’, इत्यादि में मंगलेशजी ने समाज व्यवस्था का आँखों देखा हाल प्रस्तुत किया। कवि समाज के सभी पक्षों के प्रति संवेदन-शीलता झलकती थी। वे जन्मतः पहाड़ी होने के कारण ग्रामीण-जनजीवन सदैव उनकी कविताओं में गूँजता रहेगा। उन्होंने दलितों, वंचितों, किसानों, मजदूरों, स्त्रियों इत्यादि की दबी-कुचली आवाज बुलन्द करके साम्यवादी समाज की स्थापना करने की चेष्टा की। समकालीन परिप्रेक्ष्य में मंगलेश डबराल को निम्न वर्ग एवं निम्नमध्यम वर्ग का प्रतिनिधि कवि माना जा सकता है। वर्तमान त्रासद मनोदशा से ग्रस्त समाज के प्रति कवि सदैव संवेदनशील रहे । सही मायने में कहा जा सकता है कि जनवादी कवि मंगेलश डबराल हमेशा हमारे बीच में रहेंगे।

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