सिंधु ताई ने अपना जीवन अनाथ बच्चों और बेसहारा महिलाओं के लिए समर्पित कर दिया है। आज सैकड़ों अनाथ बच्चों वाले उनके परिवार में 250 दामाद हैं और 50 बहुएं हैं। एक हजार से ज्यादा पोते और पोतियां हैं। 350 गाएं भी हैं। आज उनके गोद लिए अनाथ बच्चों में कई डॉक्टर हैं, इंजीनियर हैं, वकील हैं, अध्यापक हैं और कई बच्चे तो बड़े होकर खुद के अनाथालय का संचालन करते हैं। पद्मश्री से अलंकृत सिंधुताई सपकल ‘हजार बच्चों की मां’ के नाम से विख्यात हैं।
अपने ही दुख-दर्द में खुद को डुबोए रखोगे तो बहुत कोशिश के बाद भी तुम्हारी जिंदगी नहीं बचेगी और अगर दूसरों के दुख-दर्द को खुद का समझ कर परायों को अपनाओगे तो न केवल उनकी जिंदगी का भला होगा, बल्कि तुम्हारी जिंदगी भी संवर जाएगी। यह बात एक मुलाकात में देश की प्रख्यात समाज सेविका सिंधुताई सपकाल ने कही। महाराष्ट्र की 70 वर्षीय सिंधु ताई ‘हजार बच्चों की मां’ के नाम से विख्यात हैं। उन्हें उनकी उपलब्धियों के लिए अब तक अपने देश के चार राष्ट्रपतियों सहित कई मुख्यमंत्री सम्मानित कर चुके हैं। इसके अलावा वे देश की विभिन्न संस्थाओं द्वारा पांच सौ से अधिक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से भी पुरस्कृत हो चुकी हैं। उन्हें ‘डीवाई पाटील इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एंड रिसर्च’ द्वारा डॉक्ट्रेट की उपाधि से भी सम्मानित किया जा चुका है।
सिंधुताई अब तक सैकड़ों अनाथ बच्चे बच्चियों को गोद लेकर न सिर्फ उनकी परवरिश करती आ रही हैं, बल्कि उनकी जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए हर संभव कोशिश करती आ रही हैं। उनका कहना है कि केवल अपने ही दुखों को औरों के आगे परोसती रहती तो मैं कब की मर गई होती।
महाराष्ट्र के वर्धा जिले के एक गांव में 14 नवंबर,1948 को जन्मी सिंधुताई अब तक 1500 से अधिक अनाथ बच्चों के साथ सैकड़ों महिलाओं को भी अपना चुकी हैं। वे उन्हें पढ़ाती हैं, उनको अपने पैरों पर खड़े करती हैं फिर उनकी शादी करा कर उन्हें जिंदगी को नए सिरे से शुरू करने में सभी तरह की मदद भी करती हैं। सभी बच्चे उन्हें कृतज्ञता स्वरूप “माई” कह कर बुलाते हैं और उनके नाम पर आश्रम में एक अखंड दीपक जलाए रखते हैं। उनको उनमें किसी दैवीय शक्ति का अहसास होता है।
सिंधुताई अनाथ बच्चों के साथ कोई भेदभाव नहीं हो, इसके लिए उन्होंने शुरू में ही अपनी बेटी ममता को पुणे के दगडूशेठ हलवाई को गोद दे दी। पशुओं के तबेले में जन्मी उनकी यह बेटी आज वकील बन गई है। साथ ही वह एक अनाथालय भी चलाती है। सिंधु ताई को जिस पति ने 20 साल की उम्र में मौत के मुंह में धकेल दिया था। उनको उन्होंने माफ करते हुए वापस बुला लिया। पति के रूप में नहीं, बल्कि उनको अपना सबसे सबसे बड़ा बेटा मानते हुए उनकी पूरी देखभाल की। उन्होंने केवल पति को ही नहीं, बल्कि जिस-जिस ने विपत्ति में उनके साथ दुर्व्यवहार किया, उनको भी खुले मन से माफ किया और उनको हृदय से अपनाया।
सिंधु ताई ने अपना जीवन अनाथ बच्चों और बेसहारा महिलाओं के लिए समर्पित कर दिया है। आज सैकड़ों अनाथ बच्चों वाले उनके परिवार में 250 दामाद हैं और 50 बहुएं हैं। एक हजार से ज्यादा पोते और पोतियां हैं। 350 गाएं भी हैं। आज उनके गोद लिए अनाथ बच्चों में कई डॉक्टर हैं, इंजीनियर हैं, वकील हैं, अध्यापक हैं और कई बच्चे तो बड़े होकर खुद के अनाथालय का संचालन करते हैं।
सिंधु ताई बताती हैं कि उन्हें जब पति ने घर से निकाल दिया तो उनके और उनकी 10 दिन की नवजात बेटी के लिए कहीं कोई बसेरा नहीं था। खाने-पीने के लाले पड़ गए तो आश्रय के लिए वे वापस मायके गईं, लेकिन उनकी मां को उनकी हालत पर थोड़ी सी भी दया नहीं आई। मां ने उनको भगा दिया। तब मजबूरन उन्हें रेल में, गांव में और मंदिर के सामने भजन गाकर भीख मांगने के लिए विवश होना पड़ा। वह अक्सर भीख में मिलने वाली खाने-पीने की सामग्री और पैसे केवल अपने लिए नहीं रखती, बल्कि अन्य भिखारियों के बीच बांट देती थीं। ताई कहती हैं कि इससे मेरा कोई नुक्सान नहीं होता था, बल्कि वे मुझे अपनापन देते, मेरा संरक्षण करते। सिंधु ताई कहती हैं कि दिन भर तो रहता, लेकिन रात को वे श्मशान में चली जातीं। वहां वह खुद को सुरक्षित महसूस करतीं। वहां भूत के डर से कोई नहीं आता। वे कहती हैं कि मुझे मर्दों से बहुत डर लगता था, लेकिन भूत से डर नहीं लगता। मैं बीस साल की थी और इस आशंका से हमेशा घिरी रहती कि कहीं कोई मेरी अस्मत न लूट ले। इसलिए वह किसी गांव में एक दिन से ज्यादा नहीं रुकती।
वास्तव में सिंधु ताई की प्रवृत्ति केवल भीख मांग कर अपना गुजारा करने की नहीं थी। बहुत मज़बूरी की हालत में भी उनका यह मकसद नहीं रहा। उन्हें इतने असह्य दुख-दर्द का सामना इसलिए करने को मजबूर होना पड़ा कि उन्होंने अपने ससुराल में महिलाओं के शोषण के खिलाफ आवाज उठाना शुरू कर दिया था। जो गांव के जमींदारों और वन विभाग के अधिकारियों को नागवार लगने लगा। सिंधुताई को महिलाओं के हक में आवाज बुलंद करने के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ी। वे केवल सामान्य महिला की तरह जीवन जीने की कोशिश करतीं तो शायद उनको इतने अधिक कष्टों का कभी सामना नहीं करना पड़ता। भले उनके जन्म पर कोई खुशी नहीं मनाई गई और उसको फटे कपड़ों जैसा बेकार समझकर उसका नाम “चिंदी” रख दिया।
वह हर हाल में पढ़ना चाहती थीं, पर नियति ने उनकी पढ़ने-लिखने की इच्छा को नेस्तनाबूद कर दिया। आज से सत्तर साल पहले लोग अपनी बेटियों को पढ़ाते नहीं थे। इसलिए उनकी मां भी उनको पढ़ाने के लिए तैयार नहीं थी। इसके बावजूद उनके पिता ने उन्हें स्कूल में दाखिला दिलाया। लेकिन उनकी मां स्कूल जाने के समय पर उनको भैंस चराने के लिए भेज देती थी। मां के डर से सिंधुताई भैंस चराने जाती थी, लेकिन जब भैंस पानी में बैठ जाती तो वह स्कूल की ओर जाती। स्कूल में मास्टर देरी से पहुंचने के लिए उनको दंडित करते थे। उधर जब भैंस पानी से निकलती तो वह अक्सर दूसरों के खेत चर जाती थी। खेत का मालिक डंडे लेकर स्कूल पहुंच जाता और वह भी उसे मारने-पीटने से बाज नहीं आता।
सिंधुताई बहुत सारी चुनौतियों का सामना करते हुए भी पढ़ना चाहती थी, लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। जब वह 10 साल की हुई तो उनकी शादी उनसे 10 साल बड़े व्यक्ति श्रीहरि सपकाल से कर दी गई। अपने पति के घर में बसने के बाद वह केवल एक गृहणी बन कर नहीं रही। जब वह 20 साल की हुई तो वह पहली बार गर्भवती हुई। इसी दौरान सिंधु ताई ने जमींदारों और वन विभाग के अधिकारियों द्वारा ग्रामीण महिलाओं के शोषण के खिलाफ आवाज उठाना शुरू कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि गुस्साए जमींदार ने सिंधु ताई के खिलाफ यह अफवाह उड़ा दी कि उसके गर्भ में पल रहा बच्चा उसके पति का नहीं है। फिर क्या था! सिंधु ताई के सामने दुख का पहाड़ खड़ा हो गया। पूरे गांव में उसकी बदनामी होने लगी तो उसकी जाति के लोगों ने उसका सामाजिक बहिष्कार भी कर दिया। ऐसे में उनके पति ने उन्हें कोई संरक्षण देने के बजाय उसकी इतनी पिटाई की कि वह बेहोश हो गई। पति ने उन्हें बेहोशी की हालत में ही पशुओं के तबेले में धकेल दिया। तबेले में बेहोशी की हालत में ही उन्होंने एक बेटी को जन्म दिया। और खुद ही पत्थर से नाल को काटा। सिंधुताई बताती हैं तबेले में उन्हें एक गाय ने बचाया। गाय ने काफी समय तक उनको अपने आगोश में रखा। उस गाय की याद में उन्होंने गौशाला का निर्माण किया, जहां आज भी 350 गाएं हैं।
जब सिंधुताई की नवजात बेटी केवल 10 दिन की थी, तब उन्हें और उनकी बेटी के सामने भुखमरी की नौबत आ गई। सिंधुताई कहती हैं कि उन्हें उस समय सबसे ज्यादा डर रेलवे के टीटी से लगता था क्योंकि वे उन्हें रेल पर चढ़ने नहीं देते और टिकट मांगते, जो उनके पास होता नहीं था। टीटी उन्हें रेल से जबरन उतार देते, लेकिन वे नहीं रुकती। वे फिर दूसरी ट्रेन पर चढ़ती और इस तरह कभी दिल्ली, कभी नागपुर तो कभी हैदराबाद-सिकंदराबाद और अन्य जगहों तक भजन गाकर भीख मांगने के लिए चली जाती। वे बताती हैं कि गांव में भी भीख मांगती, लेकिन वह कभी एक जगह पर एक दिन से ज्यादा नहीं रुकतीं, क्योंकि उन्हें मर्दों से डर लगता रहता। वे उस समय 20 साल की थीं और उन्हें अपने आबरू के लुटने की आशंका हमेशा बनी रहती थीं।
इसी तरह वह यात्रा करती हुई महाराष्ट्र के चिकलधारा पहुंच गई, जहां एक बाघ संरक्षण योजना के लिए आदिवासी गांवों को खाली करा देने से ग्रामीण काफी परेशान थे। सिंधु ताई ने यहां आदिवासी लोगों के हक में आवाज उठाना शुरू किया तो उनकी कोशिश रंग लाई और सरकार ने गांव से खदेड़े गए आदिवासियों के पुनर्वास की मंजूरी दी। आदिवासियों के बीच सिंधु ताई का आदर बढ़ा और वहां उनके रहने के लिए एक कुटिया बना दी गई। इस समय तक उनके साथ अनेक अनाथ बच्चे जुड़ चुके थे। वे उन बच्चों के लिए भोजन की व्यवस्था करने लगीं। कई सालों तक कठोर मेहनत करके उन्होंने चिकलदरा में ही अनाथ बच्चों के लिए पहला आश्रम बनाया। इसके बाद उन्होंने पुणे सहित कई जगहों में भी आश्रमों का निर्माण किया।
अब वे भीख नहीं मांगती, बल्कि सार्वजनिक सभाओं में भाषण देती हैं। सिंधु ताई कहती हैं कि वे अब अनाथ बच्चों के राशन के लिए भाषण देती हैं। भजन और कविताएं सुनाती हैं। उन्हें अब तक की उपलब्धियों पर कोई घमंड नहीं। वे खुद को समाज सेविका कहलाने में फख्र नहीं करतीं। वे कहती हैं कि उन्होंने कुछ नहीं किया, जो भी हुआ, वह ईश्वर ने करवाया। ईश्वर ने मुझे संकट के समय जिंदगी बख़्शी। मुझे शुरू में बहुत अपमान झेलना पड़ा, लेकिन अब हर जगह सम्मान-ही-सम्मान मिलता है। जब अमिताभ बच्चन ने उनको ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में बुलाया तो अब वह परिचय की मोहताज नहीं रह गईं। आकाशवाणी और दूरदर्शन ने तो बहुत बार उनके कार्य के बारे में कई कार्यक्रमों का प्रसारण किया। पूरा महाराष्ट्र उनको अपना गौरव मानता है।(सप्रेस)
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