स्मृति शेष : शीतला सिंह
पत्रकारिता के पितामह कहलाने वाले देश के वरिष्ठ पत्रकार शीतला सिंह अभी कुछ दिन पहले हम सबसे सदा के लिए विदा हुए हैं। ‘सप्रेस’ का उनसे सम्बंध रहा था। प्रस्तुत है, निमीषा सिंह की लिखी श्रद्धांजलि।
निमीषा सिंह
सहकारिता के माध्यम से निकलने वाले अखबारों की दुनिया के आखिरी मोर्चे के रूप में डटे ‘जनमोर्चा’ के संपादक शीतला सिंह का मंगलवार को 94 वर्ष की उम्र में अयोध्या के जिला अस्पताल में निधन हो गया। पिछले 70 सालों से सहकारिता के माध्यम से निकलने वाला ‘जनमोर्चा’ आखिरी अखबार है।
आज के दौर में जब पत्रकारिता अंधी दौड़ में शामिल चुकी है, समर्पण की भावना का अभाव दिख रहा है। पत्रकारिता का सम्पूर्ण रूप से व्यावसायीकरण हो चुका है। आए दिन पत्रकारों की निष्पक्षता पर सवालिया निशान उठ रहे हैं। ऐसे में शीतला सिंह का जाना निसंदेह एक ऐसी क्षति है जिसकी भरपाई शायद ही कभी संभव हो। उनके जाने से अगर सबसे ज्यादा क्षति हुई है तो युवा निष्पक्ष पत्रकार बनने की संभावना की, उनकी वैचारिक सोच की।
करीब दो दशक पुरानी बात होगी, ‘द पायोनियर’ के ‘न्यूज़ मेकर’ कॉलम में एक पत्रकार की शख्शियत ने सबको आकर्षित किया था, जिसमें बताया गया था कि फ़ैज़ाबाद में शीतला सिंह नाम के एक पत्रकार हैं जो सहकारिता मॉडल पर निकलने वाले अखबार ‘जनमोर्चा’ का सम्पादन करते हैं, साथ ही घूम-घूमकर अखबार बेचते भी हैं।
संपादक बाबू शीतला सिंह की कठिन तपस्या ने ‘जनमोर्चा’ को न केवल साढ़े छह दशकों तक चालू रखा, बल्कि दैनिक को पाठकों की लत बना दिया। एक दौर था जब पाठकों की सुबह की शुरुआत ‘दैनिक जनमोर्चा’ पढ़ने से होती थी। संपादकीय पढ़ने के लिए पाठक बेताब रहते थे। अपनी पत्रकारिता के माध्यम से श्री सिंह ने खुद को समाज के सबसे निचले पायदान के लोगों के दर्द से जोड़ा। ‘जनमोर्चा’ वास्तव मे लोगों का मोर्चा बना।
‘यश भारती सम्मान’ से सम्मानित ‘प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया’ के सदस्य रह चुके बाबू शीतला सिंह ने देश को आजादी मिलने के बाद वर्ष 1958 में पत्रकारिता की शुरुआत की थी। आजादी मिलने के तुरंत बाद सहकारी-आंदोलन का सूत्रपात हुआ था और उसी समय देशभर में 350 सहकारी अखबार शुरू हुए थे, लेकिन सहकारिता की आखिरी लौ के रूप में श्री सिंह ने बाजार में गुमनाम होने के बजाय लड़ना पसंद किया था।
उत्तरप्रदेश के अयोध्या-फैजाबाद की पहचान ‘मंदिर-मस्जिद’ की जंग से तो थी ही साथ ही ‘जनमोर्चा’ और उसके संपादक शीतला सिंह की बेबाक कलम भी वहाँ की एक पहचान थी। सरकार द्वारा उनकी कलम को तोड़ने और उनकी लेखनी को कमजोर करने की भरसक कोशिश की गई, पर वो अपने उसूलों के साथ अडिग रहे, जुटे रहे।
निश्चित तौर पर मीडिया को न सरकारी होना चाहिये न ही दरबारी। हमारी पत्रकारिता पर अक्सर यह आरोप लगता रहता है कि मालिक और सत्ताधारी लोगों के बीच सांठगांठ है या मीडिया बिक चुका है। चूंकि अभी पत्र-पत्रिकाओं की आवाज पत्रकारों या संपादक की आवाज न होकर उसके मालिक की आवाज बन चुकी है, तो जाहिर है सब कुछ मालिक और राजनेताओं के समीकरण से तय किया जाता है।
गौरतलब है कि 90 के दशक में जब मुख्यधारा का मीडिया अपने-अपने हिसाब से ‘मंदिर-मस्जिद विवाद’ का कारोबार कर रहा था, उस वक्त ‘जनमोर्चा’ के छापेखाने से निकलने वाली प्रतियां संविधान, कानून और सरकार पर सवाल उठा रही थीं। इस मुद्दे पर अखबार के संपादक बाबू शीतला सिंह ने सीधे सरकार के खिलाफ और संविधान के पक्ष में मोर्चा खोल दिया था।
निर्भीक और ईमानदार पत्रकारिता का अभियान उन्होंने तब भी जारी रखा जब पत्रकारिता के बड़े हिस्से को आस्था के आगे समर्पण करते देर नहीं लगी। ‘जनमोर्चा’ सिर्फ एक अखबार का नाम भर नहीं, बल्कि क्रांति का परिचायक बना, समाज का आईना बना। बाबरी-ध्वंस और राज्य में सांप्रदायिक विवाद की कोशिशों का हमेशा विरोध करने वाले शीतला जी एक धर्मनिरपेक्ष समाज के पक्षधर रहे, जहां सांप्रदायिकता को कोई स्थान न हो। यही उनके उसूल भी थे।
देश में इमरजेंसी के दौरान भी, जब अखबारों का मुह बंद कर दिया गया था, ज़्यादातर अखबारों ने आसानी से इस स्थिति को स्वीकार कर अपने कार्य पर सरकारी नियंत्रण को लागू कर लिया था। उस वक्त भी शीतला सिंह ने खुलकर आपातकाल का और इन्दिरा गांधी के नीतियों का विरोध किया था नतीजतन लखनऊ के उनके कार्यालय में ताला लगा दिया गया और तमाम लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया।
अयोध्या (फैजाबाद) जैसे छोटे शहर में उन्होंने पत्रकारों को बिना डरे, निष्पक्ष रिपोर्टिंग के लिए प्रेरित किया। पत्रकारों के काम के घंटे नियत हों और उन्हें फैक्टरी कर्मियों से बेहतर वेतन मिले, इस विषय पर उन्होंने मजबूती से अपनी बात रखी। यदि आज हम पत्रकारों के पास किसी भी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा और अन्य लाभ हैं तो इसका श्रेय फ़ैज़ाबाद के सबसे पुराने संपादक शीतला सिंह जी को जाता है। यही कारण था कि श्री सिंह पूरे प्रदेश और देश के पत्रकारों के अच्छे सलाहकार भी थे। हाँ, यह अलग बात है कि मौका मिलते ही धनलाभ की लालसा में नौकरशाही और नेताओं के दबाव में आकर कई पत्रकारों ने उनकी सीख को भुला दिया।
पत्रकारिता के सरोकारों को जिंदा रखने वाले शीतला जी के व्यक्तित्व का ही प्रभाव था कि कई कवि, लेखक, चित्रकार ,कलाकार और युवा पत्रकार उनसे जुड़े जो शांतिप्रिय समाज के निर्माण में यकीन रखते थे। ‘जनमोर्चा’ उनकी भी आवाज बना। एक छोटे से जिले फैजाबाद से प्रकाशित दैनिक पूरे देश और प्रदेश में चर्चा में रहा और आज भी चर्चा में है। यह अखबार एक जिले से निकलते हुए भी पत्रकारिता शुरू करने वाले छात्रों के लिए ‘पाठशाला’ रहा है। पत्रकारिता के प्रति उनके रुझान को इस बात से समझा जा सकता है कि 94 वर्ष की उम्र में भी सक्रिय शीतला जी नए लेखकों के लेख को संपादित करते और बेहतर लिखने के लिए ज्यादा-से-ज्यादा पढाई करने पर जोर देते।
छात्र और नौजवान भविष्य का आधार हैं इसलिए इतिहास से इनका संवाद अत्यंत आवश्यक है। चूंकि ‘अयोध्या विवाद’ का निपटारा हो गया है और बहुत जल्द भव्य मंदिर का निर्माण भी हो जाएगा, लेकिन इतिहास तो पढ़ना ही होगा और सच जानने के लिए बाबू शीतला सिंह की पुस्तक ‘राम जन्म भूमि- बाबरी मस्जिद का सच’ नौजवाजों के लिए निसंदेह मील का पत्थर साबित होगी।
शीतला सिंह भले ही अब हमारे बीच न हों, पर उनकी सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता नई पीढ़ी के लिए आदर्श है। बाजार के हिसाब से बदलाव जरूरी है, लेकिन जो कभी नहीं बदलना चाहिए, वह है एक पत्रकार की अन्तरात्मा, एक पत्रकार का जमीर, क्योंकि लाख आरोप लगा दिए जाएं, लाख नियम-कायदे तय कर दिए जाएं, जो सही है और जो सच है, उसकी परिभाषा कभी नहीं बदलेगी। (सप्रेस)
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