उस्ताद अमीर खां एक ऐसा नाम हैं, जिन्होंने गायकी में एक नया आयाम स्थापित करते हुए संगीत की दुनिया को इंदौर घराने की देन दी। 15 अगस्त को खान साहेब का 109 वां जन्म दिन था। अमीर खान साहेब के पास जो जादुई आवाज थी वो किसी भी वाद्य यन्त्र में उतर जाती। उन्होंने हमेशा ही अपनी गायकी शैली का प्रदर्शन किया। इंदौर घराना के नाम से जाना जाने वाला यह अनूठा शैली, खलद के अलंकृत व्यक्तित्व के साथ ध्रुपद के आध्यात्मिक स्वाद और भव्यता को मिलाता है। जिस शैली को उन्होंने विकसित किया वह तकनीक और स्वभाव, प्रतिभा और कल्पना के बुद्धि और भावना का एक अद्वितीय संलयन था।
यह प्रसंग मै अभी नहीं लिखना चाहता था। कुछ अन्य प्रसंगों के बाद लिखूंगा ऐसा सोचा था। लेकिन 15 अगस्त खान साहेब का 109 वां जन्म दिन आ गया ।
समस्त संगीत जगत में अमीर खान साहेब अतुलनीय, एक मात्र और श्रेष्ठ क्यों है यह बात एक अकल्पनीय प्रमाण के साथ करके उनका जन्म दिन मानना सार्थक होगा। खान साहेब को समझ ने में यह अनुभव एक, शायद अंतिम किसम का मान दंड है ।
कौन सी चीज थी जो खान साहेब के एक एक स्वर को निरपेक्ष संपूर्णता देती थी? उनसे निकला हर स्वर अपने उस पूर्ण रूप में होता था जिसे हम परम सत्य की तर्ज पर परम स्वर कह सकते है । जिसके बाद या जिसके ऊपर उस स्वर के लिए अपने स्वरूप की पूर्णता पाने और दिखलाने के लिए कुछ भी बाकी नहीं रह जाता । जहां सुर अपने एब्सोल्यूट, परम श्रेष्ठ रूप में, स्वर के वैकुंठ में पाया जाता है। स्वर के उस वैकुंठ, उसके अलौकिक , अंतिम , अभी तक अदृश्य अगम्य अकल्पनीय रूप को खान साहेब ने कैसे साधा ? ! किस आधार पर उनके गायन की व्याख्या करे? क्या किसी प्रमाण के आधार पर कहा जा सकता है कि क्यों खान साहेब के सुर की गहराई या ऊंचाई वह थी जो आज तक पायी नहीं गई ? सुर का साक्षात्कार कैसे संभव बना और क्या प्रमाण है कि जो सुर हम उनसे सुनते है वह स्वर का अपने स्वरूप में साक्षात्कार है?
विज्ञानवादी कहेगा : ” इस में क्या , स्वर का कम्पन, फ्रीक्वेंसी नाप ले, प्रत्येक सुर की फ्रीक्वेंसी निश्चित की हुई है !” संगीत का स्वर ‘ सुर लगने ‘ वाला स्वर तब बनता है जब वह फ्रीक्वेंसी मात्र नहीं रहता। वह भौतिक, इन्द्रिय ग्राहय तत्व से मुक्त हो कर परा भौतिक, आध्यात्मिक क्षेत्र में रूढ़ हो जाता है। रहस्य के इस क्षेत्र में स्वर की भौतिकता के साथ प्रवेश नहीं मिलता । साधना रहस्य उद्घाटित करती है । अन्तिम रहस्य को खोल देने वाली साधना, प्रज्ञा कैसी होगी ?! स्वर के , नाद के इस रहस्य को खान साहेब ने कैसे पाया? नाद के ब्रह्म को कैसे साधा , और कैसे कहें कि हां, यह सत्य है, प्रमाण भूत है ?!
संगीत की इस पूर्ण आध्यात्मिकता को प्राप्त करने का रहस्य कहां गूढ़ है ?!
वह प्रसंग , वह अद्वितीय रहस्यमय अनुभव आज कहना चाहता हूं। मैं आज भी उस पल को जब याद करता हूं, अपने सौभाग्य पर ताज्जुब करता हूं कि अमीर खान साहेब ने यह अंतरंग रहस्यमय अनुभव मुझे कराया !
उस दिन दोपहर के उनके आराम के बाद उनका 6 तार का तानपूरा मिला कर उन्हें दिया । इस समय वे हर रोज घंटा डेढ़ घंटा गा लेते थे । उसे रियाज़ ही कहते थे। मुल्तानी गाया. ” दया कर , हे गिरधर गोपाल …” ।
तानपूरा मुझे थमाया, मैंने उसे एक तरफ रखा ।
मन में जो सवाल बहुत समय से घूम रहा था, आज मैंने उनसे पूछा : ” खान साहेब, आपका हर सुर किसी अनजान गहराई से निकलता है और अपने आप में संपूर्ण बात कह देता है इसका कारण, इसका राज क्या है? आप गाते है तो एकदम स्थिर रहते है, कहीं नहीं लगता आप का गला गा रहा है ? “
वे चुप रहे एक मिनट, फिर बोले : “मैंने जो खास रियाज़ किया वह सुर भरने का, बाकी तो करना ही होता है । लेकिन सुर नाभि से निकालना चाहिए। मैंने इसी पर ध्यान दिया, इसी का रियाज़ करता रहा । पाया कि वह बहुत contemplation का काम है, महेनत भर नहीं है । करता रहा, सोचता रहा। सालों साल ऐसा रियाज करता ही रहा, लगता था कि सुर के करीब पहुंच रहा हूं, लेकिन तसल्ली नहीं होती थी, लगता था कि जहां पहुंचना चाहिए वहां पुहुंच नहीं पा रहा। अधिक से अधिक ध्यान लगाता गया, मानो मैं और सुर एक नहीं हो पा रहे थे । ….तब, एक दिन अचानक ऐसा लगा जैसे मेरे पीछे से कोई तानपूरा बजा रहा हो, सुर दे रहा हो। गूंज सी उठ रही थी ! पीछे कोई नहीं था। बार-बार ऐसा लगने लगा जैसे पीछे से तानपूरा बज रहा हो।
” मैंने सुना था कि तानसेन के बारे में कहते थे कि जब तानसेन गाते थे तो उनके कंधे सुर देते थे। तानपूरा बजाते थे! ….मेरे कंधे जैसे तानपूरा बजा रहे हो ऐसा लगा !
खान साहेब रुके, बोले : हर सुर का ‘ कोड ‘ बजने लगता है । रियाज़ से ही यह नहीं होता । रियाज़ ध्यान लगाने की तरह किया जाना चाहिए । “
मैं एक चित्त हो कर उनके शब्दों को पी रहा था।
हतप्रभ करने वाला अनुभव तो अब होने वाला था!
खान साहेब ने कहा : ” देखो, मैं तुम्हें कुछ दिखता हूं । मेरी पीठ के पीछे बैठो।” वे अपने सादे से लकड़ी के पलंग पर ही बैठते थे । हालांकि उसे ” पलंग ” कहना ज्यादती ही है। दो चौकीयां साथ में जोड़ कर और उन पर सादा गद्दा, सादी चद्दर । मैं बैठ गया । उन्होंने पीछे से अपना कुर्ता थोड़ा-सा कमर के ऊपर किया और कहा : ” मेरी नाभि के एकदम ठीक पीछे उंगली ठीक से छू कर रक्खो। “
मैंने दाहिने हाथ की तर्जनी वहां स्थिरता से टीका दी।
खान साहेब स्थिर बैठ गए जैसे गाते समय बैठते है। एकाध मिनिट हुई होगी कि मेरी उंगली थर्रा ने लगी! पीठ का वह बिंदु एकदम वाइब्रेंट हो रहा था, तेज, एक सरीखा, स्थिर और तीव्र कम्पन मैं महसूस कर रहा था। काफी देर तक। अचंभित करने वाली बात तो यह थी कि खान साहेब का मुंह बंद था, होठ बंद थे, मुंह से कोई आवाज नहीं निकल रहीं थीं। लेकिन नाभि स्थान में जैसे समुद्र कि अतल गहराई उमड़ रही हो! मैं स्तब्ध था !
मौन टूटा।
खान साहेब ने पूछा ” क्या महसूस किया ? “
मैंने बताया, और पूछा ” आप क्या कर रहे थे ?”
खान साहेब ने बताया कि वे सुर भर रहे थे और महसूस कर रहे थे जैसे उनके कंधे से कोई तानपूरा बजा रहा हो ।”
मैं नि:शब्द था! सहज ही मेरे हाथों ने खान साहेब के पैर थाम लिए । आंखें भर आई।
मैं अब एक सिद्ध योगी को देख रहा था, उसकी उपस्थिति में था । आखिर अध्यात्म और योग इन्द्रियों के माध्यम से अतिंद्रिय में पहुंचना तो है । यही रहस्यमय क्षेत्र है भौतिक से आध्यात्म में पहुंचने का; भौतिकता को आध्यात्मिकता का साधन बनाने का ! संगीत ने, वाक् ने अपना हेतु पा लिया ! एक प्रश्न कौंधता है : क्या खान साहेब स्वर के वैकुंठ में पहुंच गए थे, या स्वर का वैकुंठ उनमें समा गया था ?!
अमीर खान साहब को कोटिश: प्रमाण।