31 अक्टूबर : सरदार पटेल की 145वीं जयंती
भारत छोड़ो आंदोलन में अनेक राष्ट्रभक्तों ने अपने अपने ढंग से इस पवित्र यज्ञ में अपनी आहुति दी थी। इनमें सरदार वल्लभभाई पटेल ऐसा नाम है,जिसने गोरी हुक़ूमत को अपने तेवरों से संकट में डाल रखा था। उनके मज़बूत इरादों से बरतानवी सत्ता के आला अफसर घबराते थे। इस कारण महात्मा गाँधी को तो दो साल में ही जेल से छोड़ दिया गया था, मगर सरदार पटेल को उनके लगभग एक बरस बाद जून 1945 में रिहा किया गया था। उनके कारागार प्रवास के दरम्यान एक अँगरेज़ न्यायाधीश विकेन्डेन ने सरदार पटेल के बारे में लिखा था – बेहद ख़तरनाक़,एंटी फ़ासिस्ट और ब्रिटिश शासन का घोर विरोधी व्यक्ति । जब सरदार पटेल जेल से छूटे तो और सक्रिय हो गए। वे दोगुने उत्साह से आज़ादी के लिए जुट गए।
भारत की आज़ादी के आंदोलन में 1942 का साल सबसे महत्वपूर्ण है। दरअसल इसी आंदोलन ने सुनिश्चित कर दिया था कि हिन्दुस्तान अब ग़ुलामी की ज़ंजीरों को तोड़ने की स्थिति में आ गया है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के आह्वान पर छेड़े गए अँगरेज़ों ! भारत छोड़ो आंदोलन में अनेक राष्ट्रभक्तों ने अपने अपने ढंग से इस पवित्र यज्ञ में अपनी आहुति दी थी। इनमें सरदार वल्लभभाई पटेल ऐसा नाम है,जिसने गोरी हुक़ूमत को अपने तेवरों से संकट में डाल रखा था। उनके मज़बूत इरादों से बरतानवी सत्ता के आला अफसर घबराते थे। इस कारण महात्मा गाँधी को तो दो साल में ही जेल से छोड़ दिया गया था, मगर सरदार पटेल को उनके लगभग एक बरस बाद जून 1945 में रिहा किया गया था। उनके कारागार प्रवास के दरम्यान एक अँगरेज़ न्यायाधीश विकेन्डेन ने सरदार पटेल के बारे में लिखा था – बेहद ख़तरनाक़,एंटी फ़ासिस्ट और ब्रिटिश शासन का घोर विरोधी व्यक्ति । जब सरदार पटेल जेल से छूटे तो और सक्रिय हो गए। वे दोगुने उत्साह से आज़ादी के लिए जुट गए। एक सभा में उन्होंने ऐलान किया,” मैं आज़ादी चाहता हूँ और मैं जानता हूँ कि मैं इसे प्राप्त करने जा रहा हूँ। ऐसे दस इंग्लैंड भारत को आज़ादी पाने से रोक नहीं सकते। किसी भी देश को हमेशा के लिए ग़ुलाम बनाकर नहीं रखा जा सकता “।
ज़ाहिर है सत्तर साल का यह बूढ़ा शेर गोरी सरकार के लिए महात्मा गांधी से कम ख़तरनाक़ नहीं था। उसके सीधे सपाट तर्कों से स्वतंत्रता विरोधी घबराते थे। हालाँकि उन्नीस सौ छियालीस का साल आते आते बरतानवी सरकार के पाँव उखड़ने लगे थे और हिन्दुस्तान में आज़ादी की ख़ुशबू आने लगी थी। लेकिन जाते जाते अँगरेज़ अपनी चालबाज़ी से बाज़ नहीं आ रहे थे। वे मज़हब के आधार पर मुल्क़ को बाँट देना चाहते थे। वे भारतीय उपमहाद्वीप को हमेशा के लिए एक सिरदर्द देकर जाना चाहते थे। महात्मा गांधी और उनके अनुयाई इस साज़िश को भाँप चुके थे इसलिए उनकी कोशिश थी कि किसी तरह पहले गोरे इस राष्ट्र से दफ़ा हो जाएँ। फिर हिन्दुस्तान के लोग आपस में बैठ कर अपने झगड़े सुलझा लेंगे। लेकिन अफ़सोस ! मुस्लिम लीग इसके लिए तैयार नहीं थी। उसे आज़ादी से पहले अपने लिए अलग मुल्क़ चाहिए था। उसके मुखिया मोहम्मद अली जिन्ना को मनाने का बहुत प्रयास किया गया। मगर सारे प्रयास नाक़ाम रहे। एक अवसर पर तो सरदार पटेल ने जिन्ना से साफ़ साफ़ कहा,” इस रास्ते को छोड़िए। प्रेम से बहुत कुछ किया जा सकता है ,किन्तु अपने हाथों में पिस्टल थामकर कुछ नहीं हो सकता। आप अपना उद्देश्य धमकाकर नहीं प्राप्त कर सकते। यदि आप अब भी स्वतंत्रता के इच्छुक हैं तो आइए। दो भाइयों की तरह साथ साथ बैठिए तथा एक समझौते पर पहुँचिए अथवा हम अपने मतभेदों को मध्यस्थ निर्णय के लिए प्रस्तुत करें और पंच फ़ैसले को स्वीकार करें। हमारे साथ बैठिए और मिलकर आज़ादी लीजिए “। इसी तरह एक अन्य अवसर पर उन्होंने मुस्लिम लीग के नेतृत्व से फिर कहा ,” साम्प्रदायिक समस्या का समाधान भारत में और भारतीयों के द्वारा ही होगा। इस क्षेत्र में अँगरेज़ों का कोई स्थान नहीं है और जितनी जल्दी वे देश छोड़ दें ,उतना ही सभी के लिए अच्छा होगा। हम लोग स्वतंत्रता प्राप्त करने के बेहद क़रीब हैं। अब यह हम पर है कि इसे ग्रहण करें या फेंक दें “।
लेकिन मुस्लिम लीग ने सरदार पटेल की अपील पर ध्यान नहीं दिया। ब्रिटिश सरकार परदे के पीछे से मोहम्मद अली जिन्ना को कूटनीतिक मदद कर रही थी। वह उन्हें पाकिस्तान देने का वादा कर चुकी थी। अलबत्ता उजागर तौर पर वे मुस्लिम लीग को मनाने का प्रयास करते रहे। सरदार पटेल इससे आहत थे। उन्होंने 15 दिसंबर 1946 को स्टेफोर्ड क्रिप्स को एक तीखा ख़त लिखा था। इसमें उन्होंने गोरी हुकूमत की ईमानदारी पर अनेक सवाल उठाए थे। आख़िरकार 20 फरवरी 1947 को इंग्लैंड के प्रधानमंत्री एटली ने इस मुल्क़ को बाँटने का ऐलान कर दिया। गांधी जी और मौलाना आज़ाद आख़िरी पल तक विरोध करते रहे। लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। सरदार पटेल हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रतीक बनकर उभरे इससे पहले 15 जनवरी 1947 को वे अपने एक भाषण में कह चुके थे,” यदि हम वास्तविक स्वराज चाहते हैं तो हिन्दुओं और मुसलमानों को एक होना पड़ेगा। इसमें संदेह नहीं कि अँगरेज़ जा रहे हैं। लेकिन चर्चिल जैसे लोग अभी भी भारत पर राज करने का सपना देख रहे हैं। वे सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को नहीं छोड़ना चाहते इसलिए मुसलमानों और दलितों को उकसा रहे हैं। परन्तु यह खेल ज़्यादा दिन नहीं चलेगा। वे चाहें या न चाहें ,उन्हें जाना ही है “।
इसके बाद देश के कलेजे पर बँटवारे की छुरी चल गई। रेडक्लिफ़ ने किसी कपड़े की तरह हिन्दुस्तान को चीर दिया। दुखी सरदार पटेल ने इस विभाजन के बाद अपने को भारत के लिए नए सपने के साथ समर्पित कर दिया। वे पाकिस्तान में हिंदुओं,सिखों और अन्य अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे ज़ुल्मों से ग़ुस्से में थे। उन्होंने वहाँ की लियाक़त अली ख़ान सरकार को इस बात के लिए फटकार लगाईं थी। वे एक साथ अनेक मोर्चों पर अकेले योद्धा की तरह लड़ रहे थे। एक तरफ़ पाकिस्तान से आने वालों का बंदोबस्त ,दूसरी तरफ़ दंगों पर नियंत्रण पाना और तीसरा सबसे बड़ा काम था बँटवारे के बाद शेष भारत को एक सूत्र में बांधना। तीनों ही मोर्चों पर उन्होंने प्रभावशाली काम किया। स्वयं प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी यह देखकर दंग थे। सरदार पटेल विभाजन के लिए ज़िम्मेदारी स्पष्ट तौर पर लेते रहे।सरदार ने 11 अगस्त 1947 को कहा ” यह सत्य है कि विभाजन के लिए सहमति दी। हम लोगों ने यह ज़िम्मेदारी अच्छी तरह सोचने समझने के बाद ली है न कि किसी भय या दबाव के कारण।मैं भारत के विभाजन का प्रबल विरोधी था। किन्तु जब मैं केंद्र सरकार में बैठा तो मैंने देखा कि एक चपरासी से लेकर बड़े अधिकारियों तक सभी साम्प्रदायिक घृणा से ग्रस्त हैं। इन स्थितियों में लड़ने और तीसरी पार्टी के हस्तक्षेप को बर्दाश्त करने से बेहतर है कि देश की एकता बनाए रखने के लिए बँटवारा हो ही जाए।देश में शांति रहनी चाहिए। केवल शांति ही हमें बचा सकती है। आज हमारे पास भारत को संयुक्त करने का एक अवसर है। लाहौर और पूर्वी बंगाल के कुछ हिस्सों को छोड़ कर एक हज़ार वर्षों के बाद सम्पूर्ण भारत को संयुक्त करने का अब हमारे पास एक सुनहरा अवसर है “। इसके बाद 16 जनवरी ,1948 को बंबई ( उन दिनों मुंबई को बंबई कहते थे ) में एक समारोह में सरदार पटेल ने इस तथ्य को दोहराया कि वक़्त ने हिन्दुस्तान को एकता का स्वर्णिम अवसर दिया है। उन्होंने कहा कि भारत पिछली कई शताब्दियों में कभी भी इतना संगठित और ताक़तवर नहीं था ,जितना आज है।
सरदार पटेल के इस संकल्प के पीछे उनका मज़बूत इरादा ही था। वे जानते थे कि उन्हें शेष हिन्दुस्तान की एकता के लिए बहुत कड़ा और सख़्त रवैया अख़्तियार करना पड़ेगा। उनके व्यक्तित्व की इसी ख़ासियत के कारण उन्हें लौह पुरुष कहा जाने लगा था। उन्होंने आज़ादी के चार दिन पहले ही अपने फौलादी इरादे का संकल्प कर दिया था। उन्होंने एक भाषण में कहा ,” मैं छोटे और बड़े राजाओं से कहता हूँ कि जब समय आएगा तो उन्हें 15 तारीख तक भारतीय संघ में शामिल होना होगा। उसके बाद उनके साथ दूसरी तरह से व्यवहार किया जाएगा। जो रियायतें उन्हें आज दी जा रही हैं ,उस तिथि के बाद नहीं दी जाएँगीं। इसलिए वे यदि शासन करना चाहते हैं तो उन्हें संविलियन पर हस्ताक्षर करना होगा। आज संसार में अकेले रहना मुश्किल है। जब आंधी आती है अकेला पेड़ ज़मीन पर गिर जाता है किंतु कतार में खड़े पेड़ बच जाते हैं। वे रामचंद्र और अशोक के वंशज हैं ,फिर भी उन्हें आज मामूली से मामूली अँगरेज़ नौकर को सलाम करना पड़ता है। वे अभी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि 15 अगस्त को अँगरेज़ चले जाएँगे ,परन्तु जब वे चले जाएँगे और आप स्वाधीनता की बयार का अनुभव करेंगे ,तब आपके दिलों के द्वार खुल जाएँगे।
सरदार पटेल के इन बयानों से स्पष्ट हो जाता है कि वे भारत की एकता के लिए कितने गंभीर थे। राजे – रजवाड़ों से उनका अनुरोध कागज़ी नहीं था। वे एक ठोस कार्ययोजना के आधार पर ही आगे बढ़ रहे थे। उस दौर के बिखरे हिन्दुस्तान को तिरंगे तले लाना अगर सरदार पटेल के लिए कठिन नहीं था तो कोई बहुत आसान भी नहीं था। उस समय भारत की क़रीब चालीस फ़ीसदी ज़मीन 56 रियासतों के अधीन थी और उन्हें अभी तक अँगरेज़ों से अनेक मामलों में स्वायत्तता और विशेष अधिकार हासिल थे। इसलिए कई बड़ी रियासतें तो भारत और पाकिस्तान से अलग होकर अपनी अलग दुनिया बसाने का खवाब देखने लगी थीं। कुछ ने तो बाक़ायदा ऐलान कर दिया था कि 15 अगस्त के बाद वे न भारत का हिस्सा होंगे और न ही पाकिस्तान का। वे स्वतंत्र संप्रभु अस्तित्व वाले राज्य होंगे।
ज़ाहिर है भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े नायकों को यह स्थिति किसी भी सूरत में मंज़ूर नहीं हो सकती थी। इसके पीछे एक ठोस और सुविचारित लोकतंत्र की अवधारणा थी। गांधी जी समेत उनके सारे अनुयाई यह मानते थे कि किसी भी आज़ाद देश में असल सत्ता जनता के हाथ में होनी चाहिए न कि किसी केंद्रीय निरंकुश शक्ति के पास। इसी आधार पर पर सरदार पटेल अपने अपने स्वप्न लोक में विचरण करने वाले राजा – महाराजाओं के प्रति बेहद कठोर रवैया अपना रहे थे। इस कारण अधिकांश रियासतों ने भारत में विलय के लिए अपनी सहमति दे दी। कई रियासतें तटस्थ होकर चुपचाप समय की चाल पर नज़र रख रही थीं।लेकिन तीन चार रियासतें ऐसी भी थीं ,जो स्वतंत्र अस्तित्व के लिए अड़ी हुई थीं। इनमें त्रावणकोर ,हैदराबाद और भोपाल जैसी कुछ रियासतें शामिल थीं। जब सरदार पटेल ने नवगठित रियासत विभाग की ज़िम्मेदारी सँभाली तो उन्होंने अपनी विभागीय बैठक में साफ़ कहा कि इस परिस्थिति में खतरनाक संभावनाएँ छिपी हुई हैं। यदि इन पर शीघ्र ही काबू नहीं पाया गया तो बड़ी कठिनाई से मिली आज़ादी इन रजवाड़ों के दरवाज़े से निकलकर ग़ायब भी हो सकती है। इसके लिए उन्होंने सारे प्रशासनिक ,कूटनीतिक और आक्रामक तरीक़े अपनाने में संकोच नहीं किया। विनम्रता से सरदार पटेल ने विलय का सन्देश दिया। उनकी रियासतों के विदेश,रक्षा और संचार जैसे मामले भारत सरकार के नियंत्रण में रखने के लिए उन्हें तैयार किया। दूसरी तरफ़ इन रियासतों में व्यापक जन आन्दोलनों के प्रति भी सरदार पटेल ने नरमी दिखाई ,जो लंबे समय तक गोरी सत्ता से लड़ने के बाद राजशाही से मुक्ति पाने के लिए आंदोलन पर उतर आई थीं। इससे राजाओं को अपनी प्रजा के इस ग़ुस्से का मुक़ाबला करना असंभव हो गया। उनके हाथ पाँव फूल गए। आज़ादी के दिन तक केवल जूनागढ़ ,जम्मू -कश्मीर और हैदराबाद रियासतों ने अपनी ज़िद नहीं छोड़ी थी। मगर अगले डेढ़ साल में उन्होंने भी सरदार पटेल का कोप भाजन बनने से बेहतर आत्मसमर्पण करना बेहतर समझा। जूनागढ़ के नवाब ने तो बाक़ायदा अपनी रियासत का पाकिस्तान में विलय करने की घोषणा कर दी। पर जनता भड़क उठी। इसके बाद जनमत संग्रह कराया गया। ज़ाहिर था कि यह भारत के पक्ष में गया। इसके बाद भारतीय सेना जूनागढ़ में प्रवेश कर गई। नवाब पाकिस्तान भाग गया। इसी तरह हैदराबाद का निज़ाम भी आज़ाद रियासत के रूप में रहना चाहता था। एक तरफ़ वह भारत सरकार के साथ संधि वार्ता का नाटक करता रहा ,दूसरी ओर अपनी सैनिक क्षमता बढ़ाने की साज़िश भी रचता रहा। वह चुपचाप हथियार आयात कर रहा था। उसे अपने कुछ गोरे -संपर्कों से बड़ी उम्मीद थी। मगर सरदार पटेल ने उसे भी फुस्स कर दिया। सरदार पटेल उसकी किसी भी चाल में नहीं आए। आख़िरकार सितंबर 1948 में भारतीय सेना को हैदराबाद में प्रवेश करना पड़ा। तीन दिन तक घेराबंदी और संघर्ष के बाद निज़ाम ने भी सरदार पटेल के आगे घुटने टेक दिए। सरदार पटेल की यह बहुत बड़ी क़ामयाबी थी। इसके बाद तो चंद छोटी रियासतें ही शेष थीं। सरदार पटेल की भृकुटि तनी और वे भी भारत का अभिन्न हिस्सा बन गई।
जम्मू – कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने भी तय किया था कि उनका राज्य न भारत में शामिल होगा और न पाकिस्तान में। लेकिन इसी बीच 22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तानी सेना ने कबाइली वेश में कश्मीर पर हमला बोल दिया। अँगरेज़ों से प्रशिक्षित सेना के आगे महाराजा के सिपाही टिक न सके और तब 24 अक्टूबर को हरिसिंह ने भारत से मदद माँगी। मगर अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों के तहत भारत तभी कश्मीर में अपनी सेना भेज सकता था ,जब उसका विलय भारत में हो चुका हो। सरदार पटेल ने इस मामले में कड़क रुख़ अपनाया और 26 अक्टूबर को कश्मीर का भारत में विलय हो गया। अगले ही दिन सौ हवाई जहाज़ों से भारतीय सेना कश्मीर जा पहुँची। पाकिस्तानी फौज के पाँव उखड़ गए। वह भाग खड़ी हुई। लेकिन कुछ इलाक़े फिर भी उसके क़ब्ज़े में रह गए। क्योंकि भारत ने संयुक्तराष्ट्र का सम्मान करते हुए इस मामले को वहाँ ले जाने का फ़ैसला किया। यह एक भूल थी। दो महीने संयुक्त राष्ट्र ने एक तरह से पाकिस्तान के पक्ष को माना। इसके बाद 31 दिसंबर 1948 को युद्ध विराम लागू हुआ। तबसे आज तक यह अनसुलझा मुद्दा है।सरदार पटेल अगर कुछ बरस और जीवित रहते ,तो संभवतया इस समस्या का समाधान भी हो जाता।
सरदार पटेल का एक तरह से काम पूरा हो चुका था। वे काफ़ी हद तक संतुष्ट थे। इसके बाद पॉन्डिचेरी ( आजकल पुड्डुचेरी ) और गोवा को मुक्त कराना शेष था। पॉन्डिचेरी फ़्रांस का उपनिवेश था और गोवा पर पुर्तगाल का अधिकार था। सरदार पटेल के समय में ही इन्हें फ़्रांस और पुर्तगाल के क़ब्ज़े से मुक्त करने की कार्य – योजना पर काम शुरू हो गया था। उस पर अमल होता ,उससे पहले ही हिन्दुस्तान का यह लौह पुरुष दिसंबर 1950 में अपनी अनंत यात्रा पर चला गया।बाद में पॉन्डिचेरी 1954 और गोवा 1961 में भारत का औपचारिक हिस्सा बन पाया। सरदार पटेल उसकी प्रस्तावना तो पहले ही लिख चुके थे।
सरदार पटेल ! हम समस्त भारतवासी आपके हमेशा क़र्ज़दार रहेंगे।
(यह लेखक के निजी विचार हैं)