नारायण देसाई

हमारे समय,खासकर आजादी के बाद के इतिहास में जयप्रकाश नारायण का होना एक महत्वपूर्ण पडाव की तरह है। सत्तर के दशक में ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ आंदोलन की अगुआई करते हुए उन्होंने पहली बार तत्कालीन राजसत्ता को चुनौती दी थी और देश की राजनीति की दिशा में खासा बदलाव कर दिया था।

जयप्रकाश नारायण (जेपी) का जीवन उस तीर्थराज प्रयाग के समान है, जहां मानव कल्याण की चितशुद्धि और समाजक्रांति की दोनों मुख्य धाराएं गंगा-जमुना की तरह एकरूप हो जाती हैं। मानवता के इतिहास में चित्तशुद्धि का मार्ग साधकों, ऋषियों और संतों ने अपनाया, जिन्होने अन्तर्मुखी होकर चित्त की गहराइयों को टटोला। समाजक्रांति के रास्ते को सुधारकों, समाजशास्त्रियों, राजनीतिज्ञों और क्रांतिकारियों ने अपनाया जिन्होने बहिर्मुखी होकर सम-सामयिक परिस्थितियों को बदलने के लिए भगीरथ प्रयास किए। जेपी के व्यक्तित्व में इन दोनों प्रकारों के प्रयत्न दिखाई देते हैं।

व्यक्ति जिसे गुण कहता है, समाज के क्षेत्र में वह मूल्य बनता है। व्यक्तिगत गुणों को सामाजिक मूल्यों में परिणत करने का नाम ही क्रांति है। सत्य और अहिंसा व्यक्तिगत गुण माने जाते थे। गांधी ने सत्याग्रह के द्वारा उन्हें सामाजिक मूल्य में बदल डाला और फलस्वरूप एक क्रांति हो पाई। इसी तरह अपरिग्रह और अस्तेय (चोरी न करना, अपनी मेहनत की कमाई में निर्वाह करना) व्यक्तिगत गुण माने जाते थे। भूदान-ग्रामदान के द्वारा विनोबा ने उन्हें सामाजिक मूल्य का रूप दे दिया और उसके परिणामस्वरूप एक दूसरी क्रांति की दिशा सूझी। जेपी इन दोनों क्रांतियों की ओर इसलिए आकर्षित हुए क्योंकि इनमें क्रांति और साधना दोनों के प्रति उनकी सहज रूचि काम करती रही। कार्ल माक्र्स की क्रांति समत्व के गुण को सामाजिक मूल्य में बदलने का एक कार्यक्रम था। जेपी ने इन सबका समन्वय सिद्ध करने के प्रयत्न किए। उन्होंने इनकी केवल नकल नहीं की, बल्कि इन्हें अपने जीवन में उतार कर इनको देश, काल और परिस्थिति के अनुरूप बनाने के प्रयत्न किए।

क्रांति के मार्ग ने मनुष्य जाति को स्वतंत्रता, समानता और बन्धुता के सूत्र सौंपे और ये सूत्र उसे एक तरफ लोकतंत्र और दूसरी तरफ समाजवाद (साम्यवाद) की ओर ले गया। यह विचार कि क्रांति राजा या उसके सेनापति ही कर सकते हैं, जीर्ण हो गया और इस हद तक आगे बढ़ा कि मजदूर और किसान क्रांति के अग्रदूत बन सके। दूसरे महायुद्ध के बाद दुनियां को एक नया पैमाना यह मिला कि नौजवान और विद्वान क्रांति के अग्रदूत बन सके। क्रांति के अगले कदम के लिए एक ऐसे रास्ते की खोज थी जिसमें बन्धुता ही परिवर्तन का माध्यम बन जाए और जिनमें नौजवान, विद्वान, किसान और मजदूर सबकी हिस्सेदारी हो। हमारे देश में क्रांति की दिशा में जो तीन वामन डग उठे, वे थे-सत्याग्रह, भूदान और शुद्ध साधनों वाला शांतिमय संघर्ष।

विविध क्रांतियों के अनुभव ने क्रांति शब्द के अर्थ को ही अधिक गहरा और व्यापक बना दिया है। क्रांति का अर्थ अब केवल राज्य- परिवर्तन, केवल उथल-पुथल और मार-काट भर नहीं रहा। अब क्रांति की कल्पना में मूल्य, मनोवृत्ति, रचना और संबंधों में त्वरित परिवर्तनों का समावेश होने लगा है। जेपी के विचारों में सम्पूर्ण क्रांति का आरंभ उनके अपने जीवन से ही होता था। इन चारों प्रकारों की क्रांति के दर्शन हमें उनके जीवन में ही होते हैं।

स्वतंत्रता, समानता और मानवता के मूल्यों ने जेपी को जीवन-भर अनुप्राणित किया। उनके जीवन के अनेक मोड़ों के बीच भी इन तीन मूल्यों की धारणा अक्षुण्ण बनी रही। इसी कारण वे पहली आजादी के संघर्ष में योद्धा और दूसरी आजादी के जनक बने। इसी कारण उन्होंने जीवन-भर सत्ता और सम्पत्ति को विकेन्द्रित करके समता की बुनियाद खड़ी करने का प्रयास किया। इसी कारण सारे संसार के किसी भी कोने में पीड़ा पा रही मानवता की पुकार उनके संवेदनशील ह्दय में गूंजे बिना रहती नहीं थी।

जेपी के अपने संबंध उनके जीवन-मूल्यों के अनुरूप हुआ करते थे। वे छोटे-से-छोटे आदमी को भी आदमी मानकर उसे उचित आदर देते थे। करूणा उनके समस्त मानवीय संबंधों का प्रेरक तत्व रहा। इस कारण वे जिस हद तक अपनी आजादी के इच्छुक थे, उसी हद तक दूसरों की आजादी की कद्र भी करते थे। अपनी इस वृत्ति के कारण वे दुष्टों में भी सज्जनता की खोज किया करते थे। क्षमाशीलता उनका सहज गुण था और ’दुश्मन’ को भी अचम्भे में डालने वाला प्रेम उनमें उमड़ता रहता था। स्त्री-स्वात्रंर्य की बात को उन्होंने पचास बरस पहले ही अपने जीवन में उतार लिया था। अपने साथ के कार्यकत्र्ताओं के प्रति उनके संबंध उम्र या विद्वत्ता का विचार किए बिना मित्रता-पूर्ण होते थे। मेरे पहले ही पत्र के उत्तर में उन्होने मुझे लिखा थाः ’अगर तुम भी मुझे ‘आदरणीय’ या ’पूज्य’ लिखने वाले बनोगे, तो मैं तुमको पत्र ही नहीं लिखूंगा। तुम तो मुझे ’प्रिय’ ही लिखते रहो।

विनोबा ने एक बार कहा था: ’मेरा प्रेम ’इम्पर्सनल’ (अ-व्यक्तिगत) होता है, जेपी का प्रेम ’पर्सनल’ (व्यक्तिगत) होता है। हो सकता है कि मेरे प्रेम में आपको प्रकाश दिखाई पड़े पर ऊष्मा प्राप्त करने के लिए तो आपको जयप्रकाशजी के पास ही जाना होगा।’ अपने इस ऊष्मा-भरे प्रेम के कारण ही जेपी हजारीबाग जेल के वार्डन के लिए चन्दा इकट्ठा करके उसके योगक्षेम की व्यवस्था कर सकते थे, किसी नक्सलवादी की कन्या के ब्याह के लिए रातों-रात कुछ जुगाड़ कर सकते थे, आपातकाल के दिनों में उनसे दूर रहने वाले को नौकरी दिलवाने के लिए चिट्ठी लिखकर दे सकते थे, खुद डायलिसिस मशीन से बंधे होते हुए भी जेजे सिंह के निधन या वैद्यनाथ बाबू की गंभीर बीमारी के समाचार सुनते ही दिल्ली या वाराणसी तक की दौड़ लगा सकते थे।

जेपी की साधना और क्रान्ति दोनों उनकी सतत् गतिशीलता के सूचक रहे। यही कारण है कि उनके बारे में शिकायत करने वालों में यथास्थितिवादी अधिक हुआ करते थे। ’जेपी हमें छोड़कर क्यों चले गए?’ इस आशय की शिकायत करने वालों में मैंने साम्यवादियों, समाजवादियों और सर्वोदयवालों को लगभग बराबर पाया है। अक्सर लोगों ने उन्हें किसी काम,व्यक्ति या कदम के बारे में चेताया है और ये चेतावनियां बहुधा सच भी निकली हैं, किंतु नित नए प्रयोग करने में बालकों के-से उत्साह के धनी जेपी ऐसी चेतावनियों के कारण रूकने वालों में नहीं थे। क्या कोई भी प्रयोग बिना किसी संकट के सिद्ध हो पाया है? प्रयोग के विफल होने पर चेताने वाले कहते रहे कि ’हमने कहा नहीं था?’ पर जेपी तो ऐसे संकटों को मोल लेकर आगे बढ़ लेते थे।

सफलता साधन और क्रांति, दोनों की सिद्धि का मापदण्ड नहीं होती। वैसे देखा जाए तो कौन-से साधक या क्रांतिकारी सफल हुए हैं? क्या सुकरात, ईसा मसीह या गांधी के जीवन को किसी सफलता से मापा जा सकता है? इन  साधकों और क्रांतिकारियों की विशेषता ही यह रही है कि इन्होंने अपनी प्रत्येक विफलता को आगे के अपने आरोहण का पहला पड़ाव बनाया था। अपने जीवन के अंतिम चरण में साधना और क्रांति के अपने पथ पर चलते हुए इन्होंने अपने आपको होम देने में लेशमात्र भी संकोच नहीं किया था। ’क्या हमने आपसे कहा नहीं था?’ – पूछने वाले तो सुकरात, ईसामसीह और गांधी को भी कौन कम मिले थे? लेकिन इतिहास उन्हें याद नहीं करता। वह तो उन्हीं को याद करता है, जो सफलता और विफलता की चिंता किए बिना अपने आपको, अपने जीवन-मूल्यों और आदर्शों पर न्यौछावर कर देते हैं। (सप्रेस)

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नारायण देसाई
नारायण देसाई  एक प्रख्यात गाँधीवादी थे। वे गाँधीजी के निजी सचिव और उनके जीवनीकार महादेव देसाई के पुत्र थे। वे भूदान आंदोलन और सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन से जुड़े रहे और उन्हें "गाँधी कथा" के लिये जाना जाता है जो उन्होंने 2004 में शुरू की थी। साबरमती आश्रम में उनका बाल्यकाल बीता और आरंभिक शिक्षा के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी तथा अपने पिता के निर्देशन में ही बाद की शिक्षा ग्रहण की।आचार्य विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से जुड़कर इन्होंने गुजरात में काफ़ी भूदान यात्राएं कीं। भूदान आंदोलन के मुखपत्र "भूमिपुत्र" की शुरूआत की और वे 1959 तक इसके संपादक रहे। उन्होंने आपना जीवन महात्मा के बताये मार्ग पर व्यतीत किया और इन्ही आदर्शों का प्रसार करने में लगे रहे। उन्होंने 'तरुण शांति सेना' का नेतृत्व किया, वेडची में अणु शक्ति रहित विश्व के लिये एक विद्यालय की स्थापना की तथा गांधी शान्ति प्रतिष्ठान, गांधी विचार परिषद और गांधी स्मृति संस्थान से जुड़े रहे थे।

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