गरीबी कोई दबी-छिपी, अर्थशास्त्रियों के अबूझ आंकडों भर की बात नहीं रही है। देशभर में अचानक बेरोजगार हुए ग्रामीण मजदूरों ने कठिन हालातों में, पैदल अपने-अपने गांव-देहात लौटकर सबको गरीबी और भुखमरी के दर्शन करवा दिए थे। ऐसे में क्या अमीरी की पहली, दूसरी, तीसरी जैसी ऊपरी पायदानों पर काबिज पूंजीपति कुछ नहीं कर सकते थे? अपने-अपने गांवों की ओर बगटूट भागते लोगों की जरूरतें आखिर क्या थीं?
अपने मुकुट-नुमा आकार के चलते कोरोना (क्राउन से कोरोना) कहलाने वाले वायरस ने भले ही हर खास-ओ-आम के गली-कूचे का रास्ता देख लिया हो, लेकिन मौत के इसी दौर में अमीरों का और अमीर बनना आखिर कैसा लगता है? कुछ लोग हैं जो इस आपदा को भी अवसर में तब्दील करने में लगे हैं, लेकिन क्या इतिहास की सर्वाधिक व्यापक भुखमरी, बेरोजगारी और पलायन के ‘कोरोना काल’ को भुनाकर कोई अमीरों का अमीर कैसे हो सकता है?
पूंजी की इस उलटबासी को, आए दिन कर्मकांड की तरह अमीरों की सूची जारी करने वाली ‘फोर्ब्स’ पत्रिका की 2020-21 की 35 वीं वैश्विक रिपोर्ट ने उजागर किया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक हमारे मुकेश अंबानी, अपनी 6.23 लाख करोड़ रुपयों की पूंजी के साथ, चीनी मूल के जैक मॉ को पछाड़कर, एशिया के सर्वाधिक धनी व्यक्ति की हैसियत पा गए हैं। इसी सूची की दूसरी पायदान पर 3.75 लाख करोड़ रुपयों के साथ गौतम अडानी विराजे हैं।
इन दोनों अमीरों के अलावा अरबपतियों की सूची में शिव नाडार, राधाकिशन दमानी, उदय कोटक, लक्ष्मी मित्तल, कुमारमंगलम बिडला, साइरस पूनावाला, दिलीप सांघवी और सुनील मित्तल भी काबिज हैं। सूची के मुताबिक कोरोना प्रभावित इसी साल में अरबपतियों के मामले में भारत, अमेरिका और चीन के बाद दुनिया में तीसरे नंबर पर आ गया है। सन् 2020-21 में बने देश के 38 अरबपतियों को मिलाकर उनकी कुल संख्या 140 तक पहुंच गई है।
इसी तरह की एक और ‘हुरुन इंडिया वेल्थ रिपोर्ट’ है जिसने बताया है कि पिछले ही साल में बढ़े 40 अरबपतियों को मिलाकर भारत में 177 अरबपति हो गए हैं। यह संख्या भी अमरीका और चीन के बाद तीसरे नंबर की है। दुनियाभर में पिछले साल बढ़े अरबपतियों को मिलाकर उनकी कुल संख्या 3,228 हो गई है। यानि हर हफ्ते आठ अरबपतियों की आबादी बढी है। इस सूची के मुताबिक 6.33 लाख मध्यमवर्गीय परिवार भी बढ़े हैं।
इन अरबपतियों में 3000 परिवार ऐसे हैं जिनकी कुल हैसियत 1000 करोड़ से ज्यादा है और इस तरह वे ‘सुपर रिच’ यानि अमीरों में अमीर की हैसियत पा गए हैं। नए मध्यमवर्गीय परिवारों की काबिलियत औसतन 20 लाख रुपए सालाना बचत करने, विशाल मकान और मंहगी गाडियों के मालिक होने की है। सवाल है कि क्या बदहाल, बदहवास पिछले साल में कैसे भारत समेत दुनियाभर की अमीरी में इजाफा हुआ है? और दुर्भाग्य के कोरोना-काल तक में अकूत पूंजी बनाने वाले ये आज के अमीर आखिर उसका करते क्या हैं?
ज्यादा नहीं कुल 65-70 साल पहले की बात है जब छत्तीसगढ़ में ‘पर्वत दान’ की परम्परा थी। कभी किसी किसान के खेतों में जरूरत से ज्यादा अनाज पैदा हो जाए तो अपनी जरूरत का अनाज निकालकर बाकी को एक पर्वत-नुमा ढेर बनाकर गांवभर के गरीबों के लिए रखवा दिया जाता था। कई किसान इस ढेर में भी सिक्के, चांदी-सोने के जेवर, रुपए आदि छिपाकर रख देते थे ताकि ढेर में से अनाज लेने वालों को अतिरिक्त रकम हासिल हो सके।
‘पर्वत-दान’ की प्रथा के कुछ पहले एक अंग्रेज अधिकारी कर्नल स्लीमॅन की बनाई एक सूची मिलती है जिसमें उस जमाने के अमीरों द्वारा बनवाए गए तालाबों, कुओं, बावडियों, धर्मशालाओं, सड़कों, मंदिर-मस्जिदों जैसे सार्वजनिक हित के कामों और उनके निर्माण में लगी रकम, जिसे कर्नल स्लीमॅन ने रुपयों के अलावा ब्रिटिश पौंड में भी दर्ज किया है, का जिक्र मिलता है। निजी पूंजी की बढौतरी को सार्वजनिक हित में लगाने के कारण बने ये निर्माण कार्य आज भी जबलपुर और उसके आसपास उपयोग किए जाते देखे जा सकते हैं। जबलपुर-कटनी के बीच स्लीमॅनाबाद रेलवे स्टेशन के कारण याद किए जाने वाले कर्नल स्लीमॅन पिंडारियों को कत्ल करने के कारण इतिहास के बदनाम अधिकारी रहे हैं, लेकिन सार्वजनिक निर्माण कार्यों और उनकी लागत की उनकी बनाई यह सूची कमाल है।
किसी-न-किसी वजह से बढ़ी निजी पूंजी से सार्वजनिक हित के काम करवाने की देशभर में अनेक मिसालें मिलेंगी। इसमें नगर सेठ, बड़े किसान, अधिकारी, जमींदार आदि से लगाकर नगरवधुओं, गणिकाओं तक का जिक्र मिलता है।
राजस्थान, तमिलनाडु, बिहार, केरल, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में अनेक इलाके हैं, जहां निजी पूंजीपतियों ने बढ़-चढ़कर सार्वजनिक महत्व के काम करवाए हैं। तो क्या ‘फोर्ब्स’ पत्रिका, ‘हुरुन इंडिया वेल्थ रिपोर्ट’ आदि में विराजे हमारे आधुनिक पूंजीपति इसी तरह की कोई सार्वजनिक पहल करते हैं?
पिछले महीने, यानि मार्चं में ही एक और चौंकाने वाली रिपोर्ट आई है। अमेरिका के ‘प्यू रिसर्च सेंटर’ की वैश्विक रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले साल कोविड-19 के असर में दुनियाभर में जितने लोग गरीबी में धकेले गए हैं उनमें से आधे से ज्यादा भारत के हैं। कोरोना काल में हमारे यहां करीब साढे सात करोड लोग गरीबी के गड्ढे में धकेले गए हैं। ‘प्यू रिसर्च सेंटर’ ने सभी देशों की आय के हिस्से-बांटे के आधार पर बताया है कि कोरोना का विभिन्न आयवर्ग के लोगों पर क्या और कितना प्रभाव पडा है। इसके मुताबिक वर्ष 2020 का साल वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए बर्बादी का साल रहा है। हमारे देश की ‘राष्ट्रीय आय’ पिछले हरेक सालों की कुछ-न-कुछ बढौतरी की तुलना में घटी है। विश्वबेंक के हिसाब से भारत की राष्ट्रीय आय में 10 फीसदी की गिरावट आई है।
सन् 2020-21 में गरीबी कोई दबी-छिपी, अर्थशास्त्रियों के अबूझ आंकडों भर की बात नहीं रही है। देशभर में अचानक बेरोजगार हुए ग्रामीण मजदूरों ने कठिन हालातों में, पैदल अपने-अपने गांव-देहात लौटकर सबको गरीबी और भुखमरी के दर्शन करवा दिए थे। ऐसे में क्या अमीरी की पहली, दूसरी, तीसरी जैसी ऊपरी पायदानों पर काबिज पूंजीपति कुछ नहीं कर सकते थे? अपने-अपने गांवों की ओर बगटूट भागते लोगों की जरूरतें आखिर क्या थीं? रोजमर्रा का मामूली भोजन, बीच-बीच में ठहरने के लिए छांव और घर तक पहुंच पाने के लिए सस्ता परिवहन। लेकिन दिन-दूनी, रात-चौगुनी पूंजी कमाने में लगे हमारे पूजीपतियों से इतना भी नहीं हो सका, जबकि वे चाहते तो इस समूची अफरा-तफरी की जरूरत ही नहीं पड़ती।
ऐसा नहीं है कि पूंजीपतियों की आय का थोडा-बहुत हिस्सा भी समाज के लिए खर्च नहीं होता। अब तो कानून भी है कि उद्योगों की आय का दो प्रतिशत ‘कार्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी’ (सीएसआर) के जरिए सामाजिक कार्यों में लगाना होता है। लेकिन ये सामाजिक कार्य क्या और कैसे होते हैं? शौचालय जैसी सरकारी प्राथमिकताओं के अलावा आमतौर पर ‘सीएसआर’ की मार्फत उन लोगों को पुचकारा जाता है जिनके प्राकृतिक, मानवीय संसाधन उद्योगों के लिए हथियाए गए हैं।
पूंजीपतियों के सामाजिक कार्यों की एक बेहतरीन बानगी पूंजी की मिलकियत में दुनिया में नंबर एक या दो की हैसियत पर रहने वाले वॉरेन बफेट के बेटे पीटर बफेट ने दी है। पीटर अपने पिता के पूंजी बटोरने के कामकाज से बेजार एक विश्वविद्यालय में संगीत की शिक्षा दे रहा था। तभी उसके पिता की ओर से एक प्रस्ताव आया कि वे अपनी 90 प्रतिशत पूंजी ‘फिलॉन्थ्रोपी’ यानि लोकोपकार में लगाने का सोच रहे हैं और चाहते हैं कि पीटर इस जिम्मेदारी को उठाए। पीटर ने पिता के इस आग्रह को मानकर कुछ साल पिता की पूंजी से लोकोपकार करने की कोशिश की, लेकिन आखिर उसने थककर एक लेख में अपने अनुभव उजागर किए। उसका कहना था कि पूंजी का लोकोपकार यानि ‘फिलॉन्थ्रोपी’ भी एक तरह का धंधा ही है जो पूंजी के हितों को बढ़ाने के काम आता है। सवाल है कि पूंजी की नीयत क्या है? तो क्या हमारे सामंती दौर के अमीर ही बेहतर थे? (सप्रेस)
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