पिछली सदी में जहां अनेक देशों ने लोकतंत्र को एक बेहतर शासन-प्रणाली की तरह अंगीकार किया गया था, अब उसी लोकतंत्र की चपेट में पड़े कराह रहे हैं। जगह-जगह लोकतंत्र के नाम पर तानाशाहों, एक-आयामी विचारधाराओं और फर्जी सत्ताओं ने कब्जा जमा लिया है और नतीजे में जगह-जगह नागरिक संघर्षरत हैं। भारत में भी किसी भी बहुमत को पूंजी और पहलवानी की दम पर उलटा जा रहा है। सवाल है, ऐसे में किसी भी जीते-जागते, समझदार इंसान की तरह हमें ‘विकास’ और ‘लोकतंत्र’ पर पुनर्विचार नहीं करना चाहिए?
ऐसे खास मौकों के लिए लोकभाषा में एक कहावत है – ‘बैठ घोडा पानी पी।’ यानि दुनिया बदलने के लिए तमाम आकाश-पाताल एक करने के बाद नतीजे आने पर वैराग्य के निरपेक्ष भाव से आराम फर्माना। आखिर दुनिया की चौधराहट तय करने के लिए अमरीका, भारत में भाजपा के बरक्स बाकी पार्टियों का भविष्य तय करने के लिए बिहार और लोकतंत्र की ‘नई स्टाइल’ ‘पेटेंट’ करवाने के लिए मध्यप्रदेश विधानसभा की 28 सीटों के चुनावों के हाल के नतीजों ने उदार पढों-लिखों और ‘भक्तों’ के बीच यही स्थिति पैदा कर दी है। आजकल लोकतंत्र का एकमात्र कर्मकांड माने जाने वाले चुनाव सत्ता और विपक्ष, दोनों के लिए भिन्न–भिन्न मतलब रखते हैं। लेकिन क्या आम जनता के लिए भी चुनावों के नतीजे कोई हित-साधक परिणाम देते लगते हैं? यानि अमरीका, बिहार और मध्यप्रदेश में चुनाव-बाद बनी सरकारें आम लोगों को मौजूदा से बेहतर किसी दुनिया का वादा करती दिखाई देती हैं?
अमरीका का उदाहरण लें तो हमारे दो विद्वानों, जेसी कुमारप्पा और रजनीश ने बरसों पहले अपने-अपने तरीकों से कुछ नायाब बातें की थीं। पचास के दशक में अमरीका यात्रा पर गए गांधीवादी अर्थशास्त्री कुमारप्पा से वहां के एक धाकड टीवी पत्रकार ने पूछा था कि उन्हें अमरीका में क्या खास दिखा। जबाव में कुमारप्पा के ‘गरीबी’ कहने और हडबडाकर टीवी पत्रकार द्वारा ‘क्यों और कैसे’ पूछने पर कुमारप्पा का जबाव था कि आपकी तमाम सम्पन्नता दूसरों पर निर्भर है। आप दुनियाभर के देशों से कच्चा माल लाकर सम्पन्न हुए हैं। फर्ज कीजिए किसी दिन आपको कच्चे माल की आपूर्ति करने वाले देश तेल और दूसरे खनिज भेजना बंद कर दें तो?! यदि ऐसा हुआ तो आप घुटनों पर आ जाएंगे। इसके ठीक विपरीत, इसी अमरीका को ‘उम्मीद की किरण’ बताने वाले आचार्य से भगवान बने रजनीश ने अस्सी के दशक में कहा था कि सबको समान अवसर और सुविधाएं मिलना तो ठीक है, लेकिन गरीबी की गजालत में फंसे देश अपने लोगों में समान रूप से गरीबी, विपन्नता ही बांट सकते हैं। सम्पन्नता के समान वितरण के लिए पहले सम्पन्न होना पड़ेगा जो कि अमरीका हो चुका है।
कुमारप्पा और रजनीश, दोनों के नजरिए से देखें तो हाल में अमरीकी राष्ट्रपति का चुनाव जीते जोसेफ बाइडेन अगली जनवरी में सत्ता संभालने के बाद क्या कोई तीर मार सकेंगे? कुमारप्पा ने जो कहा था वह दूसरे विश्वयुद्ध के बाद नव-निर्माण में लगे अमरीका से लगाकर इक्कीसवीं सदी में 42 वें राष्ट्रपति का चुनाव जीतने वाले जो बाइडेन तक अमरीका के विकास, विदेश नीति, सामरिक नीति, कूटनीति आदि का आधार रहा है। वियतनाम, कांगो के अलावा हाल में अफगानिस्तान, इराक और ईरान, सीरिया की भीषण लडाइयों में फंसे या फंसने को उतारू अमरीका को आखिर कच्चे माल की जरूरत ने ही युद्ध और हथियार प्रेमी बनाया है। बाइडेन अधिक-से-अधिक इन युद्धों में से अपने सैनिकों की वापसी करवा सकते हैं, लेकिन युद्ध रोकना उनके भी बस में नहीं है। युद्ध रोकने के लिए उन्हें अपने उपभोगी देश की आदतें बदलनी होंगी, जो बाइडेन-कमला की जोडी के लिए आसान नहीं होगा। आखिर उत्पादन और उसके उपभोग के कारण ही बरसों से अमरीका दुनिया का सर्वाधिक कार्बन-उत्सर्जन करने वाला देश बना है।
विकास के मॉडल का यह सवाल बिहार के लिए भी उतना ही मौजूं है। हाल का एक उदाहरण कोविड-19 के कारण लगाए गए लॉकडाउन का है जिसमें देशभर के अनौपचारिक क्षेत्र के सर्वाधिक दिहाडी मजदूरों ने बिहार की ओर ‘रिवर्स माइग्रेशन’ यानि उलटा-पलायन किया था। देशभर को मजदूर ‘सप्लाई’ करने वाले बिहार राज्य में ऐसी कैसी योजनाएं बन रही हैं जिनके चलते लोगों को अपने-अपने घर-बार के आसपास रोजगार नहीं मिल पाता? उनकी खेती सर-सब्ज नहीं हो पाती? पिछले पन्द्रह सालों से जारी और हाल में एक बार फिर काबिज मौजूदा सरकार रोजगार के इस बुनियादी पेंच को कैसे, कब खोलेगी? आप चाहें तो बिहार के इस सवाल को देश के सभी राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों पर भी समान रूप से पूछकर देख सकते हैं, जहां जबाव ठीक बिहारी तर्ज का ही मिलेगा। आपने ध्यान दिया हो तो चुनाव अभियान के दौरान दस लाख बनाम 19 लाख रोजगार के तमाशे में दोनों पक्षों ने उद्योगों को रोजगार की गंगा बताया था। यह मान्यता अपने-आप में बेतुकी और असफल रही है। देश में कहीं भी रोजगार के लिए उद्योग कारगर नहीं हुए हैं, अलबत्ता राजनेता से लगाकर नौकरशाह तक सभी इसे मानते और बखानते हैं। आखिर लालू-पुत्र तेजस्वी ने नितीश कुमार पर उद्योग नहीं ला पाने की ही तोहमत तो लगाई थी, जिसके बल पर बिहारियों को भरपूर रोजगार मिल जाता।
लोकतंत्र में लालच, धमकी और सीधी होटल में हिरासत की बदौलत बहुमत की सरकारों को पलट देने के कारनामे का पेटेंट करवाने वाले मध्यप्रदेश में 17-18 साल की मौजूदा सरकार आज तक उत्पादन और भुखमरी का समीकरण नहीं तोड़ पाई है। एक तरफ, चार-पांच बार उत्पादन-उत्पादकता की बदौलत ‘कृषि-कर्मण’ पुरस्कार पाने और दूसरी तरफ, किसान आत्महत्याओं वाले ‘टॉप’ के पांच राज्यों में अपना नाम दर्ज करवा लेने या भुखमरी में देश-विदेश के तमगे प्राप्त कर लेने वाली राज्य सरकार को इससे निजात पाने का पन्द्रह सालों में भी कोई तरीका हाथ नहीं लगा है। तरह-तरह के धतकरम करके उप-चुनाव में जीत हासिल करने वाली सरकार के पास आज भी इस विरोधाभास का कोई कारगर जबाव होगा, यह दिखाई नहीं देता।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दुनिया में दो महत्वपूर्ण शब्द और अवधारणाएं प्रचलन और विवाद में रही हैं। इनमें से एक है – ‘विकास’ और दूसरा है – ‘लोकतंत्र।’ विकास की बदहाली वैश्विक एनजीओ ‘ऑक्सफैम’ के उन आंकडों से बार-बार उजागर होती है जिनके मुताबिक सन् 2000 में ‘ऊपर’ के एक प्रतिशत लोगों के पास मौजूद दुनिया की 37 प्रतिशत पूंजी 2005 में 43 प्रतिशत, 2010 में 48 प्रतिशत, 2014 में 58 प्रतिशत और 2020 में 62 प्रतिशत हो गई है। ‘विकास’ के मौजूदा मॉडल की तरफदारी करने वाले ‘इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड’ के मुताबिक यह गैर-बराबरी अभी और आगे बढ़ेगी। भारत सरीखे तीसरी दुनिया के देश इस बदहाली को और भी अधिक भुगतते हैं जो भुखमरी की सूची में पिछले साल 117 देशों में से 102 वें और इस साल 107 देशों में से 94 वें नंबर पर काबिज है। ठीक यही बदहाली दुनियाभर के लोकतंत्रों की भी है।
इक्कीसवीं सदी का पूर्वार्ध लोकतंत्र की मट्टीपलीती होते हुए देखने का दौर है। अनेक देश जहां पिछली सदी में लोकतंत्र को एक बेहतर शासन-प्रणाली की तरह अंगीकार किया गया था, अब उसी लोकतंत्र की चपेट में पडे कराह रहे हैं। जगह-जगह लोकतंत्र के नाम पर तानाशाहों, एक-आयामी विचारधाराओं और फर्जी सत्ताओं ने कब्जा जमा लिया है और नतीजे में जगह-जगह नागरिक संघर्षरत हैं। भारत में भी किसी भी बहुमत को पूंजी और पहलवानी की दम पर उलटा जा रहा है। सवाल है, ऐसे में किसी भी जीते-जागते, समझदार इंसान की तरह हमें ‘विकास’ और ‘लोकतंत्र’ पर पुनर्विचार नहीं करना चाहिए? यदि अब भी इस पुनर्विचार की जरूरत नहीं लगती तो जाहिर है, कितने भी चुनाव जीत लें, हम सतत हारने वाले ही बने रहेंगे और यह हार अंतत: हमें समाप्त करके ही रुकेगी।
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