सत्‍यम पाण्‍डेय

विदेशी सत्‍ता के दौर में सौ साल पहले जन्‍मा भारत का मजदूर आंदोलन आजकल तरह-तरह के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक हमलों का शिकार हो रहा है। लेकिन क्‍या मजदूर-किसान संगठनों को समाप्‍त करके हम अपना विकास कर लेंगे? क्‍या रहा है, मजदूर संगठनों का इतिहास?

अभी पिछले महीने, भारत के पहले केंद्रीय मजदूर संगठन ‘आल इंडिया ट्रेड यूनियन काँग्रेस’ (एटक) के सौ साल पूरे हुए हैं। ‘एटक’ की स्थापना 31 अक्टूबर 1920 को मुंबई में हुई थी। इस स्थापना सम्मेलन में देश के सभी राज्यों से विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूर शामिल हुए थे। यह वह समय था जब देश में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन तेज हो रहा था। ‘जलियांवाला बाग कांड’ अभी ताजा ही था, जिसमें एक अँग्रेज जनरल ने बैसाखी मना रहे निहत्थे लोगों पर गोलियां बरसाकर उन्‍हें मौत के घाट उतारा था। यह घटना जिस ‘रोलेट एक्ट’ के खिलाफ हुई थी, ‘एटक’ के गठन से जुड़े तमाम श्रमिक संगठन भी उस एक्ट के खिलाफ लड़ रहे थे। बम्बई के अधिवेशन में भारतीय स्वाधीनता संग्राम की ‘गरम धारा’ का प्रतिनिधित्व करने वाली ‘लाल-बाल-पाल’ के नाम से विख्यात त्रिमूर्ति के सम्मानित सदस्य लाला लाजपत राय ‘एटक’ के अध्यक्ष चुने गए थे। वे ‘रोलेट एक्ट’ के खिलाफ थे और बाद में ‘साइमन कमीशन’ के खिलाफ आन्दोलन करते हुए ब्रिटिश पुलिस अधिकारी स्कॉट की लाठी का शिकार होकर शहीद हुए थे। इसका बदला लेने के लिए ही भगत सिंह एवं उनके साथियों ने सौन्डर्स पर गोली चलाई थी।

मजदूर आन्दोलन से भगत सिंह का रिश्ता इतना ही नहीं था, बल्कि जिन दो विधेयकों के केन्द्रीय असेम्बली में पेश किए जाने को रोकने के लिए उन्होंने बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर असेम्बली में बम फेंका था, उनमें एक ‘ट्रेड सेफ्टी बिल’ भी था। भगत सिंह ने अपने लेखों में लगातार श्रमिक-किसान आन्दोलन की अनिवार्यता के बारे में खूब लिखा था। भारत में मजदूर आन्दोलन उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में पनपने लगा था। इसी समय में काम के घंटे आठ करने की मांग को लेकर जो आन्दोलन दुनिया भर में क्रांतिकारी स्वरुप हासिल करता जा रहा था, भारत भी उससे अछूता नहीं था।  

सन् 1862 में कलकत्ता में पालकी उठाने वालों की एक महीने लंबी हड़ताल इतिहास में दर्ज है। इसी साल हावडा रेल्वे के 1200 मजदूर भी हड़ताल पर गए थे। उनकी मांग थी, आठ घंटे की ड्यूटी। इसी साल के जून में ‘ईस्टर्न इंडियन रेल्वे’ के क्लर्क हड़ताल किये थे। हम 1862 और 1873 के बीच ऐसी कई हडतालों का जिक्र पाते हैं जिसमें कलकत्ता के बैलगाड़ीवाले, घोड़ागाड़ी वाले, बम्बई के धोबी, मद्रास के ग्वाले, मुंबई के छापाखाना वाले अपनी मांगों के लिए हड़ताल में शामिल थे। इन हड़तालों को चलाने के लिए कोई स्थायी संगठन नहीं था, फिर भी वे हडताल करते थे, लेकिन जल्दी ही संगठन बनना भी आरम्भ हुआ। सन् 1914 से मजदूर वर्ग कई नये क्षेत्रों में संगठित होने लगा था। पहले महायुद्ध के दौरान 1917 में रुसी क्रांति हो जाने से – जिसमें मजदूर वर्ग ने किसानों को साथ लेकर, मानव इतिहास में पहली बार राजसत्ता हासिल की थी। इससे भारत के मजदूर आंदोलन को जबरदस्त ऊर्जा मिली। सन् 1917 में ही अहमदाबाद के बुनकरों ने यूनियन बनाई, 1918 में जहाजों के मजदूरों ने यूनियन बनाई, और अप्रैल, 1918 में ‘मद्रास लेबर यूनियन’ का गठन हुआ। सन् 1918 में ही बम्बई के कपडा मिलों में महंगाई भत्ते के लिए हड़ताल शुरू हुई, जो जनवरी 1919 तक दूसरे क्षेत्रों में भी फैल गई। इस हड़ताल में 1,25,000 मजदूर शामिल रहे। 

यह जानना दिलचस्‍प है कि 1900 के बाद से जैसे-जैसे संगठन बनने शुरू हुए, 1913 में ‘इंडियन पीनल कोड’ (आईपीसी) में संशोधन किया गया, ताकि ट्रेड यूनियनों को ध्वस्त किया जा सके। परिणाम बिलकुल उल्टा हुआ – मज़दूर और अधिक आग्रही और जुझारू बन गये। यह 1914 के बाद से मज़दूरों की यूनियन बनने की रफ्तार बढ़ने की पृष्ठभूमि थी। इसी पृष्ठभूमि में जुलाई 16, 1920 को मुंबई में एक सम्मेलन हुआ, जिसमें ‘एटक’ के गठन की तैयारी हुई। 500 सदस्यों की स्वागत समिति बनाई गई जिसके अध्‍यक्ष जोसेफ बाप्तिस्ता बने। इसके बाद 31 अक्टूबर, 1920 को एम्पायर थिएटर में ‘एटक’ की स्थापना हुई, जिसके संस्थापक-अध्यक्ष लाला लाजपत राय बने। देशभर के 64 यूनियनों के 1,40,854 सदस्यों के 101 प्रतिनिधियों ने सम्मेलन में हिस्सा लिया।

इसके अलावा विभिन्न विचारधाराओं के मोतीलाल नेहरू, मिसेस एनी बेसंट, विजी पटेल, बीपी वाडिया, जोसेफ बाप्तिस्ता, लालूभाई सामलदास, जमनादास, द्वारकादास, आरआर करंदीकर, कर्नल जेसी वेजवुड (ब्रिटिश ट्रेड यूनियन कौन्सिल के प्रतिनिधि) आदि सम्‍मेलन में शरीक हुए थे। इस तरह ‘एटक’ का वह अविस्मरणीय सफ़र और संघर्ष शुरू हुआ जिसने न केवल भारत के मजदूर आंदोलन, बल्कि स्वाधीनता संग्राम पर भी अमिट छाप छोड़ी। ‘एटक’ के नेतृत्व में देश का श्रमिक वर्ग न केवल अपने अधिकारों, वेतन-भत्तों और काम के घंटों की लड़ाई में शामिल हुआ, बल्कि वह देश की आजादी के आन्दोलन का भी अभिन्न हिस्सा बना। बाद के वर्षों में तमाम महत्वपूर्ण नेता ‘एटक’ से जुड़े रहे और जवाहरलाल नेहरु, सुभाषचन्द्र बोस, देशबंधु चित्तरंजन दास, दीनबंधु एंड्रयूज, दीवान चमनलाल, वीवी गिरी और श्रीपाद अमृत डांगे जैसे बडे नेता इस संगठन के अध्यक्ष बने।  

सन् 1921 में झरिया में अपने दूसरे सत्र में ‘एटक’ ने स्वतंत्रता संग्राम को एक नया स्वरुप प्रदान करते हुए पूर्ण स्वराज का नारा बुलंद किया और ब्रिटिश शासन से पूर्ण स्वतंत्रता का संकल्प अपनाया। इसी साल कांग्रेस के सालाना अधिवेशन में ‘भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी’ (सीपीआई) के संस्थापकों में से एक, मौलाना हसरत मोहनी ने भी पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पहली बार पेश किया। सन् 1927 में पहली बार ‘एटक’ ने अधिकृत रूप से ‘मई दिवस’ मनाने का आवाहन किया।

‘एटक’ ने ‘वर्ल्‍ड फेडरेशन आफ ट्रेड यूनियन्स’ (डब्‍ल्‍यूएफटीसी) की स्थापना में भी अहम भूमिका निभाई। फरवरी, 1945 में लंदन में तैयारी के लिए एक अंर्तराष्ट्रीय सभा का आयोजन किया गया, जिसमें विश्व के कोने-कोने के 67 करोड़ मजदूरों के 204 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। ‘एटक’ के प्रतिनिधि एसए डांगे, आरके खेडगीकर तथा सुधींद्र प्रामाणिक थे। इस सभा ने मजदूरों का एक मांगपत्र तैयार किया। आखिरकार 3 अक्टूबर, 1945 को ‘डब्‍ल्‍यूएफटीसी’ की स्थापना हुई।

सन् 1947 में भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र बना। मजदूर वर्ग ने साम्राज्यवादी शासन से राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त की। ‘एटक’ के नेतृत्व में मजदूरों के अधिकारों के लिए आंदोलन और स्वतंत्रता संग्राम के लगभग सभी राष्ट्रीय आवाहनों पर जुटने और योगदान देना अद्वितीय रहा है। आजाद भारत के संविधान निर्माण में मजदूरों के योगदानों की पहचान करते हुए उनकी मांगों एवं प्रस्तावों को संविधान में सम्मिलित करते हुए उन्हें पहचान दी गई। यूनियनों एवं संगठन बनाने का लोकतांत्रिक अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जीवन योग्य मजदूरी, समानता का अधिकार, समान काम का समान वेतन, मातृत्व लाभ आदि अधिकार स्वीकार किये गये और ये सब संविधान का हिस्सा बने।

इसे समझना मुश्किल नहीं है कि ‘एटक’ के नेतृत्व में, खासकर वामपंथी ट्रेड यूनियनों का ही जज्बा और संघर्ष करने का माद्दा था जिसने एक मजबूत सार्वजनिक क्षेत्र की बुनियाद रखने में महती भूमिका निभाई। यह सार्वजनिक क्षेत्र ही है जिसने इस महादेश के लोकतंत्र को जीवित रखा। इसी सार्वजनिक क्षेत्र ने इस देश की संप्रभुता और अर्थव्‍यवस्‍था को भी सत्ता के हमलों से बार-बार बचाया है। इसलिये आज अगर हमारे देश में लोकतंत्र, संप्रभुता और अर्थव्‍यवस्‍था खतरे में है तो उसके पीछे एक बड़ा कारण ‘एटक’ जैसे श्रमिक संगठनों का कमजोर होना भी है। बहुत जरूरी है कि जब हम देश को बचाने की चिंता करें तो हमारी एक फ़िक्र देश में मजबूत मजदूर आन्दोलन को तैयार करने की भी होनी चाहिए। जाहिर है, हमारे वक्त के पूँजीवाद का चरित्र सौ वर्ष पहले के पूंजीवाद से बहुत अलग है। इसके अनुसार मजदूर वर्ग के स्वरुप और चरित्र में भी बदलाव आया है। उसको समझकर खुद को नई परिस्थितिओं के अनुरूप ढालना होगा तभी हम खुद को और इस देश में लोकतंत्र, सार्वजनिक क्षेत्र तथा मजदूर-किसान के भविष्य को बचा सकेंगे। (सप्रेस)

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