आज के राजनीतिक फलक को देखें तो विकास की मौजूदा अवधारणाओं और उसे लेकर की जाने वाली राजनीति ने भी कम्युनिस्टों को कमजोर किया है। तरह-तरह के विस्थापन-पलायन, जल-जंगल-जमीन की बदहाली और पर्यावरण-प्रदूषण के बुनियादी और सर्वग्राही सवाल आज भी वामपंथियों के संघर्षों से दूर हैं। वे आज भी पूंजीवादी विकास को केवल मिलकियत का सवाल भर मानते हैं। यानि उनके लिए बडे बांधों की तकनीक से तब तक कोई असहमति नहीं है, जब तक बांध से होने वाले विस्थापन-पुनर्वास, डूब और पर्यावरणीय नुकसानों को काबू में रखा जा सके।
एक दिन पहले दस लाख नौकरियों के वायदे को हवा-हवाई बताकर खिल्ली उडाने वाली पार्टी चुनावी घोषणा-पत्र में अगले ही दिन 19 लाख नौकरियों का वायदा करने लगे और चुनाव में फंसे एकमात्र बिहार राज्य के हरेक नागरिक को खुल्लमखुल्ला कोविड-19 महामारी से निपटने के लिए फोकट में वैक्सीन उपलब्ध करवाने का वायदा कर दे तो इसे भारतीय राजनीति की कौन-सी अदा कहा जाएगा? चुनावों की बेला में बिहार और मध्यप्रदेश विधानसभा की 28 सीटों पर अहर्निश हो रहे ऐसे ही राजनीतिक धतकरम आखिर क्या दर्शाते हैं? चुनाव में जीतने की हवस में हर दिन लगातार उछाले जा रहे भांति-भांति के गोरखधंधों से क्या वोटर यानि नागरिक की घटती हैसियत का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता? क्या राजनेताओं और उनकी पार्टियों की नजरों में वोटरों का दर्जा इतना भी नहीं बचा है कि वे उन्हें मामूली समझदार, पुचकारे जाने की असलियत समझने वाले और झूठे वायदों पर ठेंगा दिखाने वाले तक नहीं मानते? ऐसा क्यों होता है?
देश के राजनीतिक अनुभवों को देखें तो आजादी के बाद से हमारे देश में लोकतंत्र का जो प्रयोग हुआ है उसने नागरिकों की हैसियत सतत गिराई है। अपने आदर्श रूप में लोकतंत्र नागरिकों का, नागरिकों द्वारा, नागरिकों के लिए माना जाता है, लेकिन भारत सरीखे तीसरी दुनिया के देशों में इसे जिस तरह वापरा जाता है उससे नागरिकों की हैसियत धीरे-धीरे कम होते-होते समाप्त हो जाती है और लोकतंत्र केवल सत्ता प्राप्त करने का एक नायाब तरीका भर बनकर रह जाता है। दूसरी तरफ, भारत और दक्षिण-एशिया के देशों में व्यापक रूप से मौजूद वर्गों, जातियों, रंगों, लिंगों आदि की विविधता केवल लोकतंत्र में ही चलाई, बचाई और बरकरार रखी जा सकती है इसलिए इन देशों में बिना लोकतंत्र के कोई चारा भी नहीं होता। जाहिर है, ऐसे में राजनीतिक पार्टियां किसी-न-किसी तरह लोकतांत्रिक देशों की सत्ता पर काबिज हो जाना ही अपना राजनीतिक धर्म मानने लगती हैं और चुनाव एकमात्र राजनीतिक गतिविधि बनते जाते हैं।
थोडे ध्यान और धीरज से देखें तो आसानी से पता चल सकता है कि वोटरों को ठेंगे पर मारने की इस कारस्तानी में लगभग सभी पार्टियां एकमत हैं। कुछ साल पहले तक खुद को सामाजिक, सांस्कृतिक संगठन कहते हुए ठेठ मुख्यधारा की राजनीति में हस्तक्षेप करने वाले दक्षिणपंथी ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ (आरएसएस) से सिद्धान्तों की राजनीति करने की थोडी-बहुत उम्मीद थी, लेकिन उसके राजनीतिक मुखौटे ‘भारतीय जनता पार्टी’ के सत्ता में आने के बाद उसकी ‘शुचिता’ की पोल भी खुल गई है। अब यह साफ हो गया है कि सत्ता के सामने सिद्धांत केवल पानी भर सकते हैं।
ऐसे में कोई चाहे, न चाहे, आज भी संकट में वामपंथी पार्टियों को गुहार लगाना आम बात है, हालांकि इसमें व्यापक रूप से केन्द्र और राज्यों की सत्ता में उसकी अनुपस्थिति भी एक कारण हो सकती है। भारतीय समाज को वामपंथियों के कामकाज का अनुभव देश के केवल तीन राज्यों भर का है और यह अजनबियत वामपंथियों के पक्ष में जाती है। भारतीय राजनीति के मौजूदा परिदृष्य में सभी को किसी ‘सीधी रीढ’ वाली ऐसी पार्टी की दरकार है जो सत्ताकांक्षी पार्टियों से भिन्न कामकाज करती हो और ऐसे में अब तक वापरी नहीं गई वामपंथी जमातें ललचाती हैं। देशभर के विशाल राजनीतिक फलक पर ‘धुर दक्षिण,’ ‘मध्य,’ ‘बांयी’ और ‘बांयी’ या ‘दायीं’ तरफ हल्की-सी झुकी ‘मध्य’ वाली राजनीतिक जमातों ने अपने-अपने तौर-तरीकों से देश, प्रदेश में गद्दी संभाली है। बंगाल, त्रिपुरा और केरल की राज्य सरकारों पर काबिज रहकर वामपंथी भी इसमें शामिल रहे हैं, लेकिन सत्ता संभालने में उनका बर्ताव वैसा नहीं रहा जैसा अन्य पार्टियों का।
मसलन – पिछले कुछ सालों से लगातार बाढ झेलता, ‘मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी’ की अगुआई वाले वामपंथी गठबंधन की सरकार वाला राज्य केरल सर्वाधिक बेहतरीन तरीकों से कोविड-19 से निपट रहा है। अभी हाल में आए ‘भारतीय रिजर्व बेंक’ (आरबीआई) के मजदूरी के आंकडों ने इस सरकार की बेहतरी की तस्दीक कर दी है। वामपंथियों के मजदूरों के प्रति उदार रवैय्ये को उजागर करते हुए बताया गया है कि केरल में कृषि क्षेत्र में दैनिक मजदूरी देशभर में सर्वाधिक, 707.7 रुपए दैनिक और गैर-कृषि क्षेत्र में 670.1 रुपए दैनिक है। इससे बहुत नीचे, देश में दूसरे नंबर पर आने वाला राज्य जम्मू-कश्मीर है जहां इन्हीं क्षेत्रों में केरल से बहुत कम, क्रमश: 452.9 रुपए दैनिक और 453 रुपए दैनिक मजदूरी मिलती है। मार्च में कोरोना की चपेट में आने के बाद थोक में हुई मजदूरों की अफरा-तफरी में भी ‘प्रवासियों’ की बजाए ‘अतिथि’ मानकर केरल सरकार ने सभी मजदूरों को उदार मदद उपलब्ध करवाई थी। इन तरह-तरह के ईमानदार सामाजिक-राजनीतिक सद्कार्यों के वावजूद, सवाल है कि कम्युनिस्ट राष्ट्रीय राजनीति के फलक पर दिखाई क्यों नहीं देते?
इस सवाल का एक जबाव तो अभी हाल में ‘सीपीएम’ द्वारा पार्टी के स्थापना वर्ष के भोपाल में हुए कार्यक्रम से समझा जा सकता है। पार्टी के राज्य मुख्यालय में हुए इस कार्यक्रम में केवल वे और उनके मित्र ही शामिल हुए थे जिन्हें 1920 में पार्टी की स्थापना पर भरोसा था। ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया’ यानि ‘सीपीआई’ इस सहभोज सहित मित्रवत समारोह में इसलिए शामिल नहीं हुई क्योंकि उनके मुताबिक पार्टी की स्थापना 1925 में हुई थी। इस बेहद मामूली वजह से दोस्तों के समारोह से दूरी आखिर क्या बताती है? हो सकता है, 1920 और 1925 के सालों में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना को लेकर गहरा वैचारिक मतभेद हो, लेकिन किसी दोस्त और वह भी समानधर्मी, समविचारी दोस्तों के मिलन समारोह में छोला-भटूरा खाने तक नहीं जाना क्या बताता है? साठ के दशक से शुरु हुई विचार की बजाए पार्टी के प्रति गहन निष्ठा की इस राजनीति ने कम्युनिस्टों को घर-घर में विभाजित और कमजोर कर दिया है।
आज के राजनीतिक फलक को देखें तो विकास की मौजूदा अवधारणाओं और उसे लेकर की जाने वाली राजनीति ने भी कम्युनिस्टों को कमजोर किया है। तरह-तरह के विस्थापन-पलायन, जल-जंगल-जमीन की बदहाली और पर्यावरण-प्रदूषण के बुनियादी और सर्वग्राही सवाल आज भी वामपंथियों के संघर्षों से दूर हैं। वे आज भी पूंजीवादी विकास को केवल मिलकियत का सवाल भर मानते हैं। यानि उनके लिए बडे बांधों की तकनीक से तब तक कोई असहमति नहीं है, जब तक बांध से होने वाले विस्थापन-पुनर्वास, डूब और पर्यावरणीय नुकसानों को काबू में रखा जा सके। पूंजीवादी तकनीक सिर्फ विज्ञान नहीं होती, वह भी उतनी ही मानव-विरोधी होती है जितनी पूंजी की दूसरी तमाम हरकतें। इसलिए वर्ग संघर्ष में उस तकनीक का विरोध भी शामिल किया जाना चाहिए जिसके चलते शोषण के अनंत रास्ते खुलते, फैलते और बरकरार रहते हैं।
एक जमाने में वामपंथी पार्टियों के ‘परिधि’ के संगठन बेहद सक्रिय रहते थे और उन्हीं की मार्फत पार्टी में रंगरूटों की भर्ती की जाती थी। शांति एवं एकजुटता, भारत-रूस मैत्री, साहित्य जैसे अनेक मुद्दों पर सक्रिय संगठन रहते थे जिनमें शामिल होने वाला सामान्य नागरिक धीरे-धीरे वामपंथी विचारों से अवगत होता जाता था। ऐसे रुचि लेने वाले नौसिखियों के लिए वामपंथी पार्टियों में ‘पार्टी क्लास’ होती थी जिनमें विचार और रणनीति की शिक्षा दी जाती थी। भूमंडलीकरण के बाद के दौर में वामपंथी पार्टियों को ऐसे ढांचों की खास जरूरत थी, लेकिन इन्हीं दिनों में वे इन सबसे मुंह फेरकर बैठी हैं। पिछले साल ‘शैलेन्द्र शैली स्मृति व्याख्यान’ देने भोपाल आए अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक ने कहा था कि कम्युनिस्टों को अब गांधी और आंम्बेडकर की विरासत भी संभालनी होगी। याद रखिए, इन दोनों को मंजूर करने के पहले खुद और खुद की सोच में कई बुनियादी बदलाव करना जरूरी होगा। क्या कॉमरेड इसके लिए तैयार होंगे?
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🔴 हमारे प्यारे अग्रज, कॉन्शसकीपर और आईनानिगार #राकेश_दीवान के लिए :
राकेश भाई आपकी बरकाने वाली पोस्ट दो बार पढ़ी ।एक बार फेसबुक पर दूसरी बार सर्वोदय प्रेस की मेल में । बाय एंड लार्ज सहमत हैं ।
🔵 कुछ सफाई और स्पष्टीकरण और पूरक जानकारियां लिख सकते हैं मगर वह डिटेल में जाना होगा । उससे स्पेसिफिक में कोई मूल अंतर नहीं आएगा । जब सार से असहमति न हो तो रूप पर ज्यादा मतिर्भिन्ना नही करनी चाहिए ; जैसे पर्यावरण का प्रश्न ही ले लें । 1848 के कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के समय से लेकर 1867 की दास कैपिटल से होते हुए सीपीएम के पार्टी कार्यक्रम और ताजातरीन दस्तावेजों तक में मुनाफ़ा और पर्यावरण , पूंजी और पृथ्वी के बीच शत्रुतापूर्ण रिश्तों की बात लिखापढ़ी में की जाती रही हैं। व्यवहार में भी रही होंगी ऐसा माना जाना चाहिए। उन्हें उस तरह की लोकख्याति नहीं मिली जिस तरह की कुछ ख़ास आंदोलनों को हासिल हुयी। इसके पीछे संगठित और राजनीतिक वाम के प्रति ख्यातिप्रदाता माध्यमों का विशेष अनुराग और सजग आग्रह भी एक कारण है। हालांकि अपने किये धरे को जताने बताने के मामले में कमबख्त कम्युनिस्ट भी कम आलसी नहीं है।
🔵 विज्ञान और तकनीक के फर्क को भी कम्युनिस्टों ने समझा। उन्होंने माना कि विज्ञान मनुष्य की मेधा और कौशल की उपज है इसलिए समूचे मनुष्य समाज की सम्पदा है। मगर यह खोज अंततः तकनीक का रूप लेकर इस्तेमाल के लायक बनती है और वर्ग-विभाजित समाज में तकनीक अक्ल के अन्धों और गाँठ के भरपूरों के कब्जे में होती है। वे इसका उपयोग कम दुरुपयोग ज्यादा करते हैं। मनुष्य के जीवन को बेहतर बनाने की बजाय अपनी कमाई – छप्परफाड़ मुनाफे – के लिए करते हैं। इस अंतर्विरोध के समाधान और हल के लिए जरूरी राजनीतिक हैसियत न हो पाने के चलते विकल्प उस तरह नहीं दिए जा सके। हालांकि काफी हद तक कोशिशें हुयी उन तीनो राज्यों में जहां कम्युनिस्ट प्रशासन में रहे , वे फूल-प्रूफ थीं यह दावा नहीं है मगर फ़ाउल प्रूफ थीं इसकी आश्वस्ति है।
🔵 प्रभात पटनायक की कही को आपने सही उद्दरित किया है। गांधी और अम्बेडकर काफी हद तक भारतीय समाज के यथार्थ का एम्बोडीमेंट हैं। इंडोसेंट्रिक मार्क्सवाद(आई मीन ऐतिहासिक भौतिकवाद के टूल को भारत पर लागू करना) की राह के माइलस्टोन भी है और कई मायनों में दिशासूचक भी। जरूरत उनके हर उपयोगी, सार्थक और सामयिक आयाम से राब्ता कायम करने की है। इसके लिए कतई आवश्यक नहीं है कि 1909 की गांधी की ग्राम स्वराज्य थीसिस (जिसे बाद में खुद उन्होंने भी जिद से लागू करने लायक नहीं माना) को अंगीकार किया जाए या बजाय रिफॉर्मर, विजनरी और जाति ध्वंस के – भारतीय इतिहास के – सबसे सुलझे हुए योद्दा बाबा साहेब को निरन्तरित रखने की बजाय प्रैक्टिसिंग पॉलिटिशियन आंबेडकर को तरजीह दी जाए।
🔵 आपकी चिंता जायज और सहृदयी चिंताएं हैं। इन्हे अनदेखा करना या कुछ अपवाद उदाहरण गिनाकर “नहीं जी, हमने तो सब किया ही है” मार्का जवाब देकर आत्मतुष्ट हो जाना कोई रास्ता नहीं है।
🔵 रही बात 17 अक्टूबर को बीटीआर भवन के सहभोज में सीपीआई के मित्रों के न आने की – तो हमे नहीं लगता कि कोई सैध्दांतिक आग्रह रहा होगा। वे इन दिनों उन सीटों पर जोर दिए हुए हैं जहां उपचुनाव लड़ रहे हैं शायद साथी वहां गए हों। मुमकिन है कुछ और व्यस्तताएं रही हों। उनकी मिठाई रक्खी है – वे जब आएंगे तब ताजी करके खिला दी जाएगी।
#बशीर_बद्र साब भी तो कह गए हैं ; “कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी, यूं कोई बेवफा नहीं होता।” 😉
बिलकुल ठीक कहा है- आज वामपंथ से ही कोई आशा हो सकती है पर वह भी निराश कर रहा है. वामपंथ को न केवल अपनी विकास की अवधारणा बदलनी होगी अपितु समाजवाद यहाँ तक कि जनतंत्र की अपनी अवधारणा भी बदलनी होगी.