योगेश कुमार गोयल

दिल्ली में इन दिनों एक प्रकार से सांसों का आपातकाल सा दिखाई दे रहा है, जहां चारों ओर स्मॉग की चादर छाई दिखती है। स्मॉग की यह चादर कितनी खतरनाक है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि सूर्य की तेज किरणें भी इस चादर को पूरी तरह नहीं भेद पाती। विशेषज्ञों के मुताबिक अभी अगले कुछ दिनों तक ऐसी ही स्थिति बनी रह सकती है।

पिछले कुछ दिनों से दिल्ली सहित देश के कुछ इलाकों में वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) Air Quality Index (AQI) 400 के पार है। इस तरह की वायु गुणवत्ता को सेहत के लिए कई प्रकार से बेहद खतरनाक माना जाता है। दिल्ली में हवा की गुणवत्ता के गंभीर श्रेणी में प्रवेश करने के साथ ही ग्रेडेड रेस्पांस एक्शन प्लान (ग्रैप) का तीसरा चरण लागू किया जा चुका है लेकिन इस प्रकार की कवायदों के बाद भी हालात कितने सुधरेंगे, इस बारे में दावे के साथ कोई कुछ कहने की स्थिति में नहीं है।

दरअसल वायु प्रदूषण को लेकर हर साल की यही कहानी है। ‘ग्रैप’ प्रदूषण से निबटने का ऐसा सिस्टम है, जिसमें प्रदूषण का स्तर बढ़ने के साथ ही प्रतिबंध स्वतः ही लागू हो जाते हैं। हालांकि विशेषज्ञों का स्पष्ट तौर पर कहना है कि दिल्ली में भले ही ग्रैप-3 को लागू कर दिया गया है लेकिन उसका असर भी केवल तभी देखने को मिलेगा, जब इसके प्रावधानों को सख्ती से लागू किया जाए। इस वर्ष अक्तूबर महीने से ही वायु प्रदूषण को लेकर स्थिति विकराल बनी हुई है। और दिल्ली में तो इन दिनों एक प्रकार से सांसों का आपातकाल सा दिखाई दे रहा है, जहां चारों ओर स्मॉग की चादर छाई दिखती है। स्मॉग की यह चादर कितनी खतरनाक है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि सूर्य की तेज किरणें भी इस चादर को पूरी तरह नहीं भेद पाती। विशेषज्ञों के मुताबिक अभी अगले कुछ दिनों तक ऐसी ही स्थिति बनी रह सकती है।

हवा में घुले इस जहर के कारण लोगों को न केवल सांस लेना मुश्किल होता है बल्कि अन्य खतरनाक बीमारियों का खतरा भी बढ़ रहा है। पिछले कई वर्षों से दिल्ली दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में से एक बनी हुई है, जिसका सीधा सा अर्थ है कि करीब तीन करोड़ से भी ज्यादा लोगों में वायु प्रदूषण के कारण होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं का गंभीर जोखिम बना हुआ है। यह कोई एक दिन या चंद दिनों की ही कहानी नहीं है बल्कि आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 2022 में तो दिल्ली की हवा सालभर में केवल 68 दिन ही बेहतर अथवा संतोषजनक रही थी। 2023 में भी स्थिति बहुत संतोषजनक नहीं रही और इस वर्ष भी हालात बदतर रहे हैं। लोगों की सांसों पर वायु प्रदूषण का खतरा इतना खतरनाक होता जा रहा है कि वैज्ञानिक अब दिल्ली में साल-दर-साल बढ़ते प्रदूषण के कारण बढ़ रहे स्वास्थ्य संबंधी गंभीर दुष्प्रभावों को लेकर चिंता जताने लगे हैं।

विभिन्न अध्ययनों में यह भी सामने आ चुका है कि वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में रहने वाले अपने जीवन के औसतन 12 वर्ष खो देते हैं लेकिन बेहद हैरान-परेशान करने वाली स्थिति यह है कि हमारे नीति-नियंताओं के लिए यह कभी भी गंभीर मुद्दा नहीं बनता।

यह गंभीर चिंता का विषय है कि हर साल दिल्ली सहित, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश इत्यादि राज्यों में इस सीजन में खेतों में बड़े स्तर पर पराली जलाई जाती है, जिसके चलते प्रदूषण का यही आलम देखने को मिलता है। इसके अलावा टूटी सड़कों पर उड़ती धूल, यातायात के साधनों से होता प्रदूषण, तमाम प्रतिबंधों के बावजूद पहले दीवाली और अब शादियों में बेलगाम जलती आतिशबाजी, औद्योगिक इकाईयों से निकलता जहरीला धुआं वायु की गति कम होने के कारण वायु प्रदूषण की स्थिति को विकराल बनाने में बड़ी भूमिका निभाते हैं और हवाओं का बदला रूख प्रभावित इलाकों को गैस चैंबर में परिवर्तित कर डालता है।

दिल्ली में प्रदूषण की गंभीर समस्या पर तीखी टिप्पणियां करते हुए सुप्रीम कोर्ट हर साल यही टिप्पणियां करने पर मजबूर होता है कि प्रदूषण नियंत्रण के लिए सब कुछ केवल कागजों में ही हो रहा है जबकि जमीनी हकीकत कुछ और है। दरअसल पर्यावरण तथा प्रदूषण नियंत्रण के मामले में देश में पहले से ही कई कानून लागू हैं लेकिन उनकी पालना कराने के मामले में जिम्मेदार विभागों और सरकारी तंत्र में सदैव उदासीनता का माहौल देखा जाता रहा है।

देश की राजधानी दिल्ली तो वैसे भी वक्त-बेवक्त ‘स्मॉग’ से लोगों का हाल बेहाल करती ही रही है। वैसे न केवल दिल्ली-एनसीआर बल्कि देशभर में वायु, जल तथा ध्वनि प्रदूषण का खतरा निरन्तर गंभीर हो रहा है। वायु, जल तथा अन्य प्रदूषण के कारण देश में हर साल लाखों लोग जान गंवाते हैं।

एक रिपोर्ट के मुताबिक मानव निर्मित वायु प्रदूषण के ही कारण प्रतिवर्ष करीब पांच लाख लोग मौत के मुंह में समा जाते हैं। वैसे दिल्ली-एनसीआर के प्रदूषण की समस्या भी केवल दिल्‍ली तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि स्मॉग की चादर सात लाख वर्ग किलोमीटर से भी ज्यादा क्षेत्र में फैली दिखती है, जो गंगा के उत्तरी मैदानी इलाकों को भी कवर करती है। अब देश का शायद ही कोई ऐसा शहर हो, जहां लोग धूल, धुएं, कचरे और शोर के चलते बीमार न हो रहे हों। देश के अधिकांश शहरों की हवा में जहर घुल चुका है।

सर्दियों में कोहरे के कारण स्मॉग की मौजूदगी ज्यादा पता चलती है। दरअसल मौसम में बदलाव के साथ वायु प्रदूषण का प्रभाव कई गुना ज्यादा बढ़ जाने का सबसे बड़ा कारण यही होता है कि ठंड के मौसम में प्रदूषण के भारी कण ऊपर नहीं उठ पाते और वायुमंडल में ही मौजूद रहते हैं, जिस कारण स्मॉग जैसे हालात बनते हैं। चूंकि इस मौसम में तापमान में और गिरावट आने की संभावना है और ऐसी स्थिति में प्रदूषण की स्थिति और गंभीर हो सकती है। वातावरण में कण प्रदूषण (पीएम) की मात्रा बहुत ज्यादा होने के कारण स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरे बढ़ जाते हैं।

पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) वातावरण में मौजूद ठोस कणों और तरल बूंदों का मिश्रण होता है। हवा में मौजूद कण सूक्ष्‍म होते हैं, जिन्‍हें नग्‍न आंखों से नहीं बल्कि केवल इलैक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप का उपयोग करके ही देखा जा सकता है। कण प्रदूषण में पीएम 2.5 और पीएम 10 शामिल होते हैं, जो बहुत खतरनाक होते हैं। पीएम 2.5, 60 माइक्रोग्राम प्रतिघन मीटर से ज्यादा नहीं होना चाहिए जबकि हवा में पीएम 10 का स्तर 100 से कम रहना चाहिए। पीएम 2.5 और पीएम 10 धूल, निर्माण की जगह पर धूल, कूड़ा व पुआल जलाने से ज्यादा बढ़ता है। जब वायु में इन कणों का स्तर बढ़ जाता है तो सांस लेने में दिक्कत, आंखों में जलन जैसी समस्याएं होने लगती हैं। सांस लेते समय पीएम 2.5 और पीएम 10 के कण फेफड़ों में चले जाते हैं, जिससे खांसी होने के साथ अस्थमा भी हो सकता है और अस्‍थमा के रोगियों को इसके कारण दौरे भी पड़ सकते हैं। पीएम के कारण उच्च रक्तचाप, दिल का दौरा, स्ट्रोक सहित कई गंभीर बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। कण प्रदूषण इतना खतरनाक होता है कि यह फेफडों में जाने पर कई गंभीर बीमारियों का कारण बन सकता है और कुछ मामलों में यह जानलेवा भी हो सकता है। हालांकि हर साल मौसम परिवर्तन के साथ ही प्रदूषण का यही आलम देखने को मिलता है लेकिन केवल अक्तूबर-नवम्बर के महीने में ही इसे लेकर चिंता दिखाने से ही समस्या का समाधान नहीं होने वाला बल्कि अब जरूरत है एक व्यापक योजना और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ वायु प्रदूषण के खिलाफ एक युद्ध की शुरूआत किए जाने की।