‘तटस्थ लोकतंत्री’ की नजर से देखा जाए तो एक तरफ वह सरकार दिखाई देती है जिसने दो कानून और एक संशोधन लाने के लिए किसी तरह की कोई लोकतांत्रिक औपचारिकता नहीं बरती। ना तो किसान संगठनों, उनके प्रतिनिधियों से कोई बातचीत की गई और ना ही कानूनों के ड्राफ्ट को, दूसरे कई अन्य कानूनों की तर्ज पर, सार्वजनिक बहस-मुबाहिसे के लिए खुला छोडा गया। यहां तक कि संसद में भी इन कानूनों पर कोई ठीक-ठाक बहस नहीं की गई।
अपने ठेठ देसी ठाठ के किसान आंदोलन से लेकर दुनिया के सबसे बडे, पुराने लोकतंत्र का तमगा लटकाए घूमने वाले अमरीका तक को देखें तो क्या लोकतंत्र सिर्फ गिनती की बिना पर कारगर होता नहीं दिखता? यानि क्या बहुमत की दम पर कोई भी, सही-गलत फतह हासिल की जा सकती है? इसी हफ्ते के गुरुवार को भारत में किसानों की ट्रैक्टर रैली और एक दिन पहले बुधवार को अमरीका में एन संसद भवन ‘केपीटोल’ में घुसकर मारपीट करने और चार लोगों की मौतें होने ने आखिर यही तो साबित करने की कोशिश की है कि ‘संख्या बल’ के अलावा लोकतंत्र कुछ भी नहीं है। कडकती ठंड और बरसते पानी में करीब डेढ महीने से देश की राजधानी दिल्ली को घेरे बैठे किसानों ने सरकार से सात बार की अपनी बातचीत में बार-बार कृषि कानूनों पर अपनी बात समझाने की कोशिश की है, सरकार को बताया है कि बिना सलाह-मशविरे के पहले अध्यादेश और फिर बिना बहस की संसदीय हडबडी में पारित कृषि कानून किसानी के लिए कितने घातक साबित होंगे, लेकिन चुनी हुई संख्या-बल से सम्पन्न सरकार है कि उन्हें सुनना ही नहीं चाहती।
एक ‘तटस्थ लोकतंत्री’ की नजर से देखा जाए तो एक तरफ वह सरकार दिखाई देती है जिसने दो कानून और एक संशोधन लाने के लिए किसी तरह की कोई लोकतांत्रिक औपचारिकता नहीं बरती। ना तो किसान संगठनों, उनके प्रतिनिधियों से कोई बातचीत की गई और ना ही कानूनों के ड्राफ्ट को, दूसरे कई अन्य कानूनों की तर्ज पर, सार्वजनिक बहस-मुबाहिसे के लिए खुला छोडा गया। यहां तक कि संसद में भी इन कानूनों पर कोई ठीक-ठाक बहस नहीं की गई। देशभर के किसानों, सार्वजनिक वितरण प्रणाली’ (पीडीएस) पर निर्भर गरीबों और आम उपभोक्ताओं को प्रभावित करने वाले कानूनों को राज्यसभा में मात्र ‘ध्वनि-मत’ से पारित करवाने की जल्दबाजी ने इन कानूनों को और शंकास्पद बना दिया था।
सात महीने पहले, जब सरकार ने अध्यादेश की मार्फत इन कानूनों को लागू करने की हुलफुलाहट दिखाई थी, किसानों ने इसका विरोध शुरु कर दिया था। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश ही नहीं, देश के दूसरे इलाकों में भी बडे और प्रभावी प्रदर्शन किए गए थे, लेकिन सरकार बजाए उनसे बातचीत करने के, उन्हें विरोधियों के भडकावे में आए ‘भोले-भाले किसान’ साबित करने में लगी थी। कृषि कानूनों को केवल सत्तारूढ ‘भारतीय जनता पार्टी’ के कानूनों में तब्दील करते हुए भगवा-भजनमंडली द्वारा हर गांव-खेडे में समर्थक जनमत जुटाने के लिए मुहीम छेडी गई। इस मुहीम का कुल मतलब जनता को इतना भर बताना था कि सरकार द्वारा लाए गए ये कानून सबके भले के लिए हैं और इन्हें बिना किसी ना-नुकुर के मान लिया जाना चाहिए। ‘भाजपा’ की यह मुहीम भी कानूनों को समझाने के लिहाज से कारगर हो सकती थी, बशर्ते इसे कानून लागू होने के पहले और समझदार, पढे-लिखे स्वयंसेवकों के जरिए किया जाता। माथे पर कानून थोप देने के बाद उजड्ड राजनैतिक छुटभइयों की अगुआई में उनके नफा-नुकसान समझाने का कोई मतलब नहीं होता।
किसानों के मौजूदा आंदोलन की एक प्रमुख मांग सभी फसलों पर ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ को कानूनी जामा पहनाने की है। अब तक कुल 23 फसलों के लिए घोषित होने वाले और करीब ढाई फसलों को गारंटीड ‘एमएसपी’ पर खरीदे जाने के अलावा बाकी की सभी फसलों पर ‘एमएसपी’ को बंधनकारी बना देने का मतलब है, खाद्यान्नों की कीमतों में बढौतरी और सरकार इसी से बचना चाहती है। जबाव में अव्वल तो किसानों का कहना है कि इसकी जिम्मेदारी सरकार वहन करे। आखिर बाजारों का हिसाब-किताब रखने वाली संस्था ‘क्रिसिल’ का कहना है कि केवल सातवें वेतन आयोग को पूरे देश में लागू करने से खजाने पर करीब 4.50 से 4.80 लाख करोड रुपयों का भार पडेगा, जबकि इसका फायदा उठाने वालों में कुल आबादी के एक से डेढ प्रतिशत सरकारी कर्मचारी भर हैं। दूसरी तरफ, देश की आबादी के आधे से ज्यादा कृषि-कर्मियों के हित में ‘एमएसपी’ को बंधनकारी बनाने से महज 17 से 19 हजार करोड रुपयों का भार आएगा। यह पैसा भी अंतत: बजार में ही आने वाला है और नतीजे में आर्थिक ताने-बाने को मजबूत ही करेगा। जाहिर है, किसानों को उनकी फसलों का कानूनी मूल्य देना आधी से अधिक आबादी के अलावा देश की आर्थिक सेहत के लिए भी मौजूं होगा।
‘एमएसपी’ को कानूनी स्वरूप में लाने के पहले यह देखना भी जरूरी है कि कर्जों और लागत की बढती कीमतों के कारण किसान तेजी से खेती छोडकर मौत तक के विकल्प तलाशने में लग गए हैं। ‘नेशनल सेंपल सर्वे संगठन’ (एनएसएसओ) ने विकल्प मिलने पर खेती छोडने वाले 40 प्रतिशत किसानों की बात की थी और अब पता चला है कि पिछले 30 सालों से प्रतिदिन औसतन 2058 किसान खेती छोडकर रिक्शा-चालन, दिहाडी, मजदूरी जैसे दीगर कामधंधों में लग रहे हैं। जो अपने और अपने परिवारों के लिए यह भी नहीं कर पाते, वे अपनी जान दे देते हैं। सन् 1995 से अब तक किसान आत्महत्याओं का आंकडा लगातार बढता ही जा रहा है। विडंबना यह है कि आत्महत्याएं करने वाले किसानों का इलाका कमोबेश वही है जहां साठ के दशक में खेती के उद्धार के लिए ‘हरित क्रांति’ लाई गई थी। याद रखिए, ‘हरित क्रांति’ लाने वालों में भी किसानों की कोई खास भागीदारी नहीं रही थी।
‘भारी लाभ-लागत’ के सिद्धान्त पर साठ के दशक में आई ‘हरित क्रांति’ के बावजूद सत्ता के लिए खेती हमेशा सौतेली इकाई रही है। अंग्रेजी राज के 1900 से 1947 के बीच के सालों में खेती-किसानी पर रत्तीभर निवेश नहीं किया गया, हालांकि राज चलाने के लिए उससे तरह-तरह के टैक्सों की वसूली जरूर की जाती रही। यही हाल आजाद भारत में भी रहा जहां आजादी के पहले दशक में कृषि क्षेत्र पर निवेश किया जाने वाला ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) का 18 प्रतिशत, आज घटकर कुल 7.6 प्रतिशत रह गया है। वर्ष 2016 का आर्थिक सर्वेक्षण बताता है कि पांच सदस्यों के किसान परिवार की सालाना आय 20 हजार रुपए के आसपास होती है। इस आंकडे का गुणा-भाग करें तो किसान परिवार के प्रत्येक व्यक्ति को सवा तीन सौ रुपए मासिक बैठेगा। याद रखें, यह लेखा-जोखा उन लोगों के जीवन का है जो हमारी बेहद बुनियादी जरूरत, इतनी बुनियादी कि उसके बिना हमें प्राण त्यागना पड सकते हैं, भोजन पैदा करते हैं।
अठारहवीं सदी की फ्रांसीसी क्रान्ति का वह किस्सा बहुत मशहूर है जिसमें वहां की एक रानी मेरी अंत्वानेत ने रोटी मांगने वालों को केक देने की पेशकश की थी। रानी नहीं जानती थी कि केक रोटी से मंहगा है और किसानों द्वारा उपजाए जाने वाले अनाज से ही बनाया जाता है। फलों, सब्जियों समेत हरेक फसलों पर ‘एमएसपी’ लागू होने से बढने वाली मंहगाई भुगतने वालों को भी याद रखना चाहिए कि जो ‘ब्रांडेड’ आटा वे 35-40 रुपए किलो में खरीदते हैं वह किसान से 12-15 रुपए किलो में खरीदे गेहूं से बनाया जाता है। चार सौ रुपए किलो में बिकने वाला आलू चिप्स पांच रुपए किलो के आलू से बनाया जाता है। यानि अपने उपभोक्ता अवतार में आम आदमी भी बिचौलियों के जरिए ठगाता ही है। क्या ठगी से बचते हुए किसानों को उनकी फसलों की वाजिब कीमतें नहीं दी जानी चाहिए? यदि अब भी उपभोक्ता इस मामूली समीकरण को नहीं समझेगा तो उसे मेरी अंत्वानेत की परिणति भोगना होगी। याद रखिए, फ्रांस की उसी क्रांति से ही आधुनिक लोकतंत्र पैदा हुआ था।(सप्रेस)
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लोकतंत्र संख्या बल से अधिक कुछ नही । सटीक टिप्पणी । नई परिभाषा लोकतंत्र की ।आगे पीछे केपीटोल जैसी स्थितिया अन्य देशों में भी धुर्वीकृत होती भक्तों की फ़ौज निर्मित करेगी ,,,मेरा यह आंकलन अतिश्योक्ति नही है ,,,
स्वयं सेवकों को समझाईश का काम देते तो बेहतर होता ,,,,,,लाख टके की बात कही ।