पिछले दिनों, बिना किसी शोर-ओ-गुल के आमफहम किताबें, मुद्रित सामग्री और ‘दूरस्थ शिक्षा’ की पाठ्य-सामग्री तक का परिवहन न सिर्फ मंहगा, बल्कि बंद हो गया है। मोबाइल और उसकी सहचर तकनीक को फिलहाल छोड़ भी दें, तो सरकार की इस हरकत का व्यापक प्रभाव पड़ेगा। क्या आम नागरिकों को इसके विरोध में आवाज नहीं उठानी चाहिए?
हम भारतीयों के जीवन में डाक व्यवस्था का बहुत महत्व रहा है। हमें अपने जीवन की सारी अच्छी-बुरी ख़बरें चिट्ठी और डाक के माध्यम से ही मिली हैं, लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता उसकी अहमियत घटती चली गई। चिट्ठी की जगह ई-मेल और टेलीफ़ोन-मोबाइल ने ले ली। लम्बी और भावपूर्ण चिट्ठियों का ज़माना अतीत हुआ और उनकी जगह काम-चलाऊ संदेशों और इमोजी ने ले ली, लेकिन डाक पूरी तरह हमारे जीवन से लुप्त नहीं हुई। किताबों, पत्र-पत्रिकाओं के वाहक रूप में डाक व्यवस्था ज़रूरी बनी रही और आगे भी बनी रहेगी।
‘भारतीय डाक विभाग’ Indian Postal Department 1,56,600 डाकघरों के साथ विश्व का विशालतम डाक नेटवर्क है। इसकी शुरुआत 1727 में कलकत्ता में पहले डाकघर की स्थापना के साथ हुई थी। इसके बाद कुछ और डाकघर स्थापित हुए और फिर तत्कालीन डाकघरों में एकरूपता लाने के उद्देश्य से ‘भारतीय डाकघर अधिनियम, 1837’ बनाया गया। इसके बाद एक और अधिक व्यापक ‘भारतीय डाकघर अधिनियम, 1854’ बनाया गया। इस अधिनियम ने समूची डाक प्रणाली में सुधार किया। माना जाता है कि भारत में वर्तमान डाक प्रणाली इसी अधिनियम के साथ अस्तित्व में आई। भारत में एक डाकघर औसतन 8511 व्यक्तियों को औसतन 20.99 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में सेवा देता है।
डाक व्यवस्था का संचालन लाभ कमाने के उद्देश्य से नहीं किया जाता है। यह संचार और शिक्षा का एक सर्व-सुलभ और कम खर्च वाला माध्यम है। बाद में भले ही टेलीफोन, मोबाइल, ई-मेल और कूरियर जैसे अनेक वैकल्पिक माध्यम हमें सुलभ हो गए हों, आज भी सरकारी डाक माध्यम देश की बहुत बड़ी आबादी का एकमात्र संबल हैं। लेकिन जैसा देश के अन्य बहुत सारे कल्याणकारी कामों के साथ हो रहा है, हमारी सरकारें आहिस्ता-आहिस्ता इनसे अपने हाथ खींच रही हैं। इसके पीछे असल मकसद अपनी ज़िम्मेदारी से हटने का है या निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने का, इस पर तो बहुत सारी चर्चाएं होती हैं और की जा सकती हैं।
इस बात को नकारना संभव नहीं होगा कि हमने ‘सार्वजनिक क्षेत्र’ को ‘निजी क्षेत्र’ के हाथों पराजित होते हुए देखा है। अगर केवल डाक व्यवस्था की बात करें तो पहले दिन में दो बार बंटने वाली डाक को एक बार में और वह भी कभी-कभार तक सिमटते हुए हमने देखा है। हमारे डाकघर बदहाली और विपन्नता के नमूने हैं। नए डाकियों की भर्ती नहीं होने से डाकियों के क्षेत्र में इतना विस्तार होता जा रहा है कि उसकी सेवा करना उनके लिए नामुमकिन होता है। सरकार वैसे भी अलग-अलग तरह से डाक सेवाओं पर कोड़े चला रही है।
ताज़ा प्रसंग यह है कि हमारे डाकघरों ने अब ‘रजिस्टर्ड प्रिंटेड बुक्स’ के पैकेट लेना बंद कर दिया है। ‘भारतीय डाक विभाग’ पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय और लिफाफों के रूप में चिट्ठियां भेजने के अतिरिक्त रजिस्टर्ड और अन-रजिस्टर्ड पैकेट्स के रूप में मुद्रित पुस्तकें और पत्रिकाएं भेजने की सुविधा भी देता रहा है। इस सुविधा के चलते पचास-साठ रुपये में पांच किलो तक की पुस्तकें, मुद्रित सामग्री भेजी जा सकती थी। यह सुविधा पढ़ने-लिखने वालों के लिए अत्यधिक उपयोगी थी। वे किताबें, पत्र-पत्रिकाएं आदि इसी सुविधा के अंतर्गत मंगाते-भेजते रहे हैं। यह सुविधा किसी व्यावसायिक हित के लिए नहीं, अपितु शिक्षा और ज्ञान के प्रसार के लिए दी जाने वाली सुविधा है जो किसी भी समझदार सरकार का दायित्व है।
कुछ समय पहले हमारी सरकार की नज़र इस सुविधा पर गई और उसने इस पर ‘जीएसटी’ लगा कर इसे पचास-साठ से बढ़ाकर पैंसठ-सत्तर रुपये तक पहुंचा दिया। मुद्रित (प्रिंटेड) बुक्स वाली इस सुविधा में यह ज़रूरी था कि पैकेट को एक तरफ से खुला रखा जाए, ताकि विभाग यह देख सके कि उसमें छपी हुई पुस्तकें ही हैं, लेकिन अब एक सरकारी आदेश से 17 नवंबर 2024 से ‘रजिस्टर्ड प्रिंटेड बुक्स सर्विस’ और ‘रजिस्टर्ड पैटर्न एण्ड सेंपल सर्विस’ – इन दोनों सेवाओं को समाप्त कर दिया गया है। इसी क्रम में ‘रजिस्टर्ड बुक पैकेट’ का नाम बदलकर ‘बुकपोस्ट’ कर दिया गया है।
इस बदलाव का परिणाम यह हुआ कि अब एक तरफ से खुले पैकेट में मुद्रित सामग्री भेजने की सुविधा ख़त्म हो गई है। अब अगर किसी को कोई किताब भेजनी है तो उसे बंद पैकेट में ही भेजा जा सकेगा और उसके लिए पहले से बहुत अधिक डाक व्यय लगाना होगा। अधिक का अनुमान इस बात से लगा लें कि पहले जो किताब पैंसठ-सत्तर रुपये में भेजी जा सकती थी, अब उसके लिए 216 रुपये खर्च करने होंगे। 500 ग्राम तक के रजिस्टर्ड पार्सल पैकेट का न्यूनतम डाक व्यय भी अब 46 रुपये होगा। इसका आशय यह है कि एक पैम्फलेट भेजने के लिए भी 46 रुपये तो खर्च करने ही होंगे।
इस बदलाव का प्रतिकूल असर सीधे पढ़ने-लिखने वाले लोगों पर पड़ेगा। हमारे यहां पत्रिकाओं व पुस्तकों की सुलभता वैसे ही कम है। जिन्हें पढने-लिखने में रुचि है वे उन्हें प्राप्त करने के लिए डाक व्यवस्था पर ही निर्भर रहते हैं। डाक व्यय बढ़ने का उन पर क्या प्रभाव पड़ेगा – यह बताने की ज़रूरत नहीं है। इस बदलाव का सीधा शिकार वे छोटे प्रकाशक भी होंगे जो जैसे-तैसे करके ज्ञान और विचार का प्रसार करने में अपना यत्किंचित योगदान करते रहे हैं। उनके लिए यह बढ़ा हुआ व्यय भार वहन करना बहुत कठिन होगा।
इतना ही नहीं, डाक दरों में बदलाव से ‘दूरस्थ शिक्षा’ का क्षेत्र सीधे और बहुत बुरी तरह प्रभावित होगा। हमारी पिछली सरकारों ने अपने दूरगामी सोच का परिचय देते हुए उन लोगों के लिए, जो किन्हीं भी कारणों से विद्यालयों-महाविद्यालयों तक नहीं पहुंच सकते हैं, ‘दूरस्थ शिक्षा’ का एक तंत्र विकसित किया था। ‘ओपन स्कूल,’ ‘इग्नू’ और विभिन्न राज्यों में संचालित हो रहे खुले विश्वविद्यालय डाक से पाठ्य-सामग्री भेजकर शिक्षा की अलख जगाए रखने का सफल प्रयास करते रहे हैं और इनसे लाखों लोग लाभान्वित भी हुए हैं।
अब डाक दरों में हुए इस बदलाव की वजह से इन संस्थानों के लिए अपने विद्यार्थियों तक पाठ्य सामग्री पहुंचाना बहुत महंगा हो जाएगा और समझा जा सकता है कि इस बढ़े हुए व्यय भार को वे संस्थान फ़ीस बढ़ाकर ही पूरा करेंगे। इसका परिणाम क्या होगा, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। जो लोग पढ़ना चाहते हैं वे इस बढ़े हुए व्यय भार को सहन कर सकेंगे? जवाब बहुत साफ़ है। वे नहीं पढ़ेंगे। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण होगा!
एक जन-कल्याणकारी सरकार से यह उम्मीद करना अनुचित नहीं है कि वह हर संभव प्रयास करके अपने नागरिकों का जीवन सुगम और बेहतर बनाए। जीवन सुगम बनाने के लिए जहां बिजली, पानी, सड़क जैसी सुविधाएं प्रदान की जाती हैं वहीं उसे बेहतर बनाने के लिए शिक्षा और संचार की सुविधाएं प्रमुख होती हैं। डाक व्यवस्था उन सुविधाओं में अग्रणी है। किताब और अन्य पाठ्य सामग्री आसानी से और कम खर्च करके एक-से-दूसरी जगह भेजी जा सके, इसके लिए न केवल डाक व्यवस्था का मज़बूत होना आवश्यक है, बल्कि यह भी आवश्यक है कि उसकी दरें जनता की भुगतान क्षमता के अनुरूप हों ताकि लोगों की पढ़ने-लिखने की रुचि को बढ़ाया जा सके। सरकार का यह निर्णय सीधे हमारे पढ़ने के अधिकार पर कुठाराघात है। अगर आपकी भी रुचि पढ़ने-लिखने में है, अगर आप भी चाहते हैं कि हम अज्ञान के अंधकार से निकलकर ज्ञान से आलोकित दुनिया में आएं तो हमें सरकार से उसके इस प्रतिगामी निर्णय पर पुनर्विचार करने का पुरज़ोर आग्रह करना चाहिए। सरकारें हर काम लाभ के लिए नहीं करतीं। उसे बहुत सारे काम जन-कल्याण को ध्यान में रखकर भी करने होते हैं। हम सबको उससे आग्रह करना चाहिए कि वह पुस्तकों आदि के प्रेषण के लिए बढ़ाई गई डाक दरों को वापस ले। केवल इतना ही नहीं, हमारा आग्रह डाक व्यवस्था को और अधिक दक्ष व बेहतर बनाने का भी होना चाहिए। (सप्रेस)