सत्ता और सरकारों के कर्ज-माफी सरीखे टोटकों को किसानों की नजर से देखें तो लगातार बढती किसान आत्महत्याएं दिखाई देती हैं। जाहिर है, किसानों और राज्य व केन्द्र की सरकारों के बीच गहरी संवादहीनता है। ऐसी संवादहीनता जिसमें सरकार की क्रूर मनमर्जी के बावजूद एक तरफ किसान उत्पादन में आज भी झंडे गाड रहा है, कृषि लागत को लगातार कम कर रहा है और दूसरी तरफ, बेरुखी से उसे अनसुनी करती सरकार है। देश की आजादी के सवा सात दशकों बाद, आज पहली बार किसान अपने बुनियादी सवालों को लेकर खडा हुआ है। ऐसे में सत्ता और समाज को ध्यान देकर उसकी बात सुननी चाहिए।
केन्द्रीय अनाज भंडारों में 80-85 फीसदी योगदान करने वाले पंजाब और हरियाणा के किसान इन दिनों देश की राजधानी में आने और अपनी असहमति का प्रदर्शन करने को बेचैन हैं और केन्द्र सरकार के आधीन हिलती-डुलती दिल्ली पुलिस ने उन्हें चारों तरफ की सीमाओं पर रोकने के पुख्ता इंतजाम कर दिए हैं। कोविड-19 महामारी के संकट काल में केन्द्र सरकार द्वारा संसद के पिछले सत्र में पारित करवाए गए कृषि संबंधी तीन कानूनों ने देशभर के किसानों को हलाकान कर दिया है। कृषि-लागत की कीमतों को अनियंत्रित रखने और कृषि-उत्पादनों पर कम-से-कम ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (एमएसपी) तक बंधनकारी नहीं बनाने के बुनियादी मुद्दों को ठेंगे पर मारते हुए बनाए गए तीनों कानून हैं – ‘कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून-2020,’ ‘कृषक (सशक्तीकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन-कृषि सेवा पर करार कानून-2020’ और ‘आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम – 2020।’ पंजाब, हरियाणा हरित-क्रांति के प्रमुख राज्य रहे हैं और उनका अनुभव बताता है कि तीनों ताजा कानून किसानी की रीढ तोडकर रख देंगे। सवाल है कि किसानों के मौजूदा देशव्यापी आंदोलन और कृषि कानूनों को मनवाने की जिद पर अडी केन्द्र सरकार की अपनी-अपनी क्या वजहें हैं?
किसानों की बात करें तो कृषि-नीति विश्लेषक देवेन्दर शर्मा का कहना है कि पिछले 40 सालों की मंहगाई के पैमाने पर देखा जाए तो किसानों की आय में कोई बदलाव नहीं हुआ है। जहां गेहूं की कीमतें करीब 19 गुना बढी हैं, वहीं कर्मचारियों के वेतन में 120 से 150 गुना तक की वृद्धि हुई है। शर्मा के मुताबिक इसकी भरपाई करने के लिए दी जाने वाली किसानों की कर्ज माफी से कई गुना राशि उद्योगों की टैक्स-माफी में बिना किसी हीले-हवाले के हर साल खारिज कर दी जाती है। इसके अलावा उद्योगों को दिए कर्जों को जीम जाने से ‘नॉन पर्फामिंग असेट’ (एनपीए) की अप्रत्याशित बढौतरी होती रहती है। दिल्ली की संस्था ‘सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डॅवलपिंग सोसाइटी्स’ (सीएसडीएस) के मुताबिक किसान की कर्ज-माफी असल में सरकार द्वारा उसे दी जाने वाली सब्सीडी का एक तरीका भर है, लेकिन क्या इससे किसानों की दशा में कोई सुधार होता है? ‘नाबार्ड’ के सर्वे से पता चलता है कि बीते सालों में, तरह-तरह की ‘विज्ञापनी राहतों’ के बावजूद किसानों की आय कुल जमा 2505 रुपए मासिक भर बढी है। वर्ष 2016-17 में किसान परिवारों की मासिक औसत आय 8931 रुपए हुई, जबकि वर्ष 2012-13 में यह 6426 रुपए मासिक थी। नतीजे में गांवों में रहने वाले 41 फीसदी परिवार आज भी कर्जे में दबे हैं और इनमें से 43 फीसदी शुद्ध खेती की आय पर निर्भर हैं।
मौजूदा सरकार किसानों की इसी आय को सन् 2022 तक दुगनी करने के वायदे कर रही है। अव्वल तो पांच सदस्यों के किसान परिवार की करीब नौ हजार रुपए मासिक आय दुगनी हो भी जाए तो इस मंहगाई में क्या तीर मार लेगी? दूसरे, किसानों की आय दुगनी करने के लिए खेती की मौजूदा तीन फीसदी की विकास-दर को बढाकर 10.4 फीसदी सालाना करना होगी, जो वर्तमान राजनीतिक, आर्थिक हालातों में असंभव दिखाई देती है। तीन फीसदी की मौजूदा विकास दर के हिसाब से खेती की आय को दुगना करने में करीब 25 लंबे सालों का इंतजार करना होगा। यदि इस कमी की भरपाई कर्जों की मार्फत की जाए तो क्या होगा?
‘नीति आयोग’ के ‘नए भारत के लिए रणनीति’ दस्तावेज में आयोग के कृषि मामलों के विशेषज्ञ रमेशचंद के मुताबिक गरीब राज्यों में कर्ज माफी का फायदा दस से 15 फीसदी किसानों को ही मिलता है। एक और आंकडे के अनुसार बेंकों से कर्ज लेने वाले किसानों का फीसद करीब आधा यानि 46.2 है। इसके अलावा 19.8 फीसदी किसान स्वयं-सहायता समूहों, 16.9 फीसदी किसान सूदखोर महाजनों, 22.7 फीसदी किसान परिचितों-रिश्तेदारों और 8.8 फीसदी किसान अन्य स्रोतों से कर्ज हासिल करते हैं। माफी लायक कर्जा राज्यों के सहकारी और राष्ट्रीयकृत बेंकों से मिला होता है जिसे सरकारों की ‘मेहरबानी’ से माफ भी किया जा सकता है, लेकिन शेष बचे आधे कर्जों को कैसे पटाया जाए? इससे भी बडा सवाल है कि किसानों को कर्ज की जरूरत ही क्यों हो? ‘नीति आयोग’ के रमेशचंद ही एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहते हैं कि कर्ज माफी की मांग इसीलिए उठती है क्योंकि किसानों की आमदनी ‘अपर्याप्त’ है। सवाल है कि आखिर किसानों की आमदनी क्यों पर्याप्त नहीं है?
इस सवाल का जबाव ‘नीति आयोग’ के उक्त पोथे में ही देखा जा सकता है। इसमें किसानों की आमदनी बढाने के लिए ‘न्यूनतम रिजर्व प्राइस’ तय करके फसलों की नीलामी करने और ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ निर्धारित करने वाले ‘कृषि लागत एवं मूल्य आयोग’ को खारिज करके ‘कृषि ट्रिब्यूनल’ गठित करने की तजबीज पेश की गई है। अलबत्ता, इस दस्तावेज में कहीं किसान के मुताबिक उसके उत्पादन की वाजिब कीमत तय करने, खेती में लगने वाली खाद, दवाओं, यंत्रों जैसे आदानों की कीमत पर नियंत्रण रखने और बाजार की बजाए भूख से निपटने की किसी तजबीज का कोई जिक्र नहीं किया गया है। कृषि विकास की खातिर हाल में बने तीन कानूनों की पूर्व-पीठिका की तरह नीति आयोग का यह दस्तावेज कर्जों पर जोर देता है। जाहिर है, जिस किसान को कर्ज कुंभीपाक नरक की तरह दिखता था, उसकी समूची खेती कर्जों के बल पर ही सरसब्ज होगी।
अहर्निश ‘चुनाव मोड’ में रहने वाले राजनेताओं को ‘एमएस स्वामीनाथन आयोग’ की सिफारिशों के मुताबिक कृषि उत्पादों की लागत से डेढ-गुनी कीमतें दिलवाने जैसे ज्यादा समय लेने वाले अपेक्षाकृत सस्ते, कारगर उपायों की बजाए कर्ज वितरण और फिर कर्ज-माफी अधिक ‘गारंटीड’ तजबीज लगती है। ‘सीएसडीएस’ के अध्ययन के मुताबिक राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, तेलंगाना, उत्तरप्रदेश, पंजाब, कर्नाटक, गुजरात और अन्य राज्यों में किसानों की कर्ज माफी की घोषणाओं के बदले राजनीतिक दलों को सत्ता हासिल हुई है। गद्दी पर विराजने के दिन मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने 34 लाख किसानों का 38 हजार करोड रुपयों का और छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने 16 लाख किसानों का 6100 करोड रुपयों का कर्ज माफ कर दिया था। इसके पहले के चुनावों में भाजपा ने महाराष्ट्र में 34000 करोड रुपए, उत्तरप्रदेश में 36000 करोड रुपए और कांग्रेस ने पंजाब में दस हजार करोड रुपए तथा कर्नाटक में आठ हजार करोड रुपयों के कर्ज माफ करने का वायदा किया था। थोडा और खंगालें तो पिछले कुछ सालों में कर्ज माफी के ऐसे अनेक उदाहरण उजागर किए जा सकते हैं, लेकिन सवाल है — कर्ज माफी से किसानों पर क्या और कितना प्रभाव पडा है?
सत्ता और सरकारों के कर्ज-माफी सरीखे टोटकों को किसानों की नजर से देखें तो लगातार बढती किसान आत्महत्याएं दिखाई देती हैं। जाहिर है, किसानों और राज्य व केन्द्र की सरकारों के बीच गहरी संवादहीनता है। ऐसी संवादहीनता जिसमें सरकार की क्रूर मनमर्जी के बावजूद एक तरफ किसान उत्पादन में आज भी झंडे गाड रहा है, कृषि लागत को लगातार कम कर रहा है और दूसरी तरफ, बेरुखी से उसे अनसुनी करती सरकार है। देश की आजादी के सवा सात दशकों बाद, आज पहली बार किसान अपने बुनियादी सवालों को लेकर खडा हुआ है। ऐसे में सत्ता और समाज को ध्यान देकर उसकी बात सुननी चाहिए। ऐसा न हो कि हाथ आया यह मौका भी छूट जाए। (सप्रेस)
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