पुस्तक समीक्षा
भारत के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू को लेकर तरह-तरह के मनगढंत किस्से-कहानियां प्रचलित हैं और इतिहास को पीठ दिखाने की राजनीति के इस दौर में ये कहानियां और भी चटखारे लेकर सुनी-कही जा रही हैं। ऐसे में भारतीय पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी और लंबे समय तक पं. नेहरू के सुरक्षा प्रमुख रहे केएफ रुस्तमजी की किताब ‘’आइ वॉज़ नेहरू’स शैडो’’ उन्हें ज्यादा मानवीय, विद्वान और वैश्विक राजनेता की तरह स्थापित करती है। प्रस्तुत है, किताब के अनुवादक मनोहर नोतानी द्वारा की गई उसकी समीक्षा।
पुस्तक ‘आइ वॉज़ नेहरू’स शैडो’ के लेखक स्वर्गीय केएफ रुस्तमजी स्वतंत्र भारत की आइपीएस की पूर्ववर्ती ब्रिटिशकालीन सेवा आइपी (इंडियन पुलिस) के एक अफसर थे। इस किताब का हिन्दी अनुवाद ‘मैं नेहरू का साया था’ शीर्षक से मैंने किया है। यह किताब एक तरह से छह साल तक नेहरू के ‘चश्मदीद गवाह’ रहे रुस्तमजी की रोचक ‘आंखों देखी दास्तान’ है।
केएफ रुस्तमजी एक लिक्खाड़ व्यक्ति थे। अख़बारों और पत्रिकाओं के लिए वे नियमित रूप से लिखा करते थे। अपने लेखों में वे पुलिस-प्रशासन और कानून-व्यवस्था, समाज व राजनीति में व्याप्त बुराइयों को बड़े बेबाक ढंग से व्यक्त करते थे। ‘पद्म विभूषण’ उन्हें मुख्यत: उनके द्वारा किये गये अनेक भंडाफोड़ों के लिए मिला था।
‘नेहरू की प्रतिष्ठा शायद उनके उत्तराधिकारियों के लिए निरंतर एक बाधा बनी रह सकती है और वे नेहरू को नीचा दिखाने के तरीके और तदबीरें खोजते रहेंगे।’ ये शब्द लिखते समय केएफ रुस्तमजी गोया एक नजूमी लगते हैं। उन्होंने लिखा है, “जिस तरह से मैंने नेहरू को जाना, उस तरह से बहुत कम लोगों ने उन्हें जाना है; और बहुत कम लोग उन्हें कभी इस तरह जान पाएंगे।”
इस पुस्तक में रुस्तमजी द्वारा खींची गयी नेहरू की तस्वीर एकदम अलहदा है। रोज़ाना की छोटी-से-छोटी बात भी उनकी चौकस नज़र से बच नहीं पायी है। तिस पर हर चीज़, हर बात को दिलचस्प अंदाज़ में प्रामाणिक तरीके से दर्ज कर पाने के उनके रसभरे अंदाज़ के चलते नेहरू की विचित्रता और उनकी ख़ब्त की दिलचस्प झलकियां हमें मिलती हैं।
रुस्तमजी के लेखन का सबसे सशक्त पहलू उनके इन शब्दों में बयां होता है – “मैंने किसी को खुश करने की ख़ातिर नहीं लिखा है … मैंने छपास या प्रसिद्धि के लिए भी नहीं लिखा। मुझे यह सब लिखने में आनंद आया और मैं इसके लेखक होने का गर्व छिपा नहीं सकता। मेरी इच्छा है कि मेरी डायरियों को कोई संपादित करे और अब से बरसों बाद, लोग जब इन्हें पढ़ें तो कुछ पलों के लिए ही सही, वे उस वक्त को महसूस करें जिसमें मैं जिया हूं, उन लोगों की सांसें सुनें जो मेरी जि़ंदगी में महत्व रखते थे।”
रुस्तमजी की पुस्तक की सबसे बड़ी खासियत ही यही है कि यह कोई ‘हैगिओग्राफी’ (संत-चरित लेखन) नहीं है। इसमें नेहरू की निडरता, दूरदृष्टि, लोकतंत्र और भारत की एकता में उनकी गहरी आस्था के साथ-साथ उनके अकारण व सकारण गुस्से और उनके अन्य दोषों पर भी बेबाकी से लिखा गया है। इसमें कुल बारह अध्याय हैं।
1952 से लेकर 1958 तक रुस्तमजी प्रधानमंत्री के मुख्य सुरक्षा अधिकारी होने के नाते नेहरू के करीब रहे। नतीजतन, यह पुस्तक हमें नेहरू का एक अनूठा ‘क्लोज़-अप’ देती है – “मैंने उन्हें बेझिझक घूरा है, उनके लिए सिगरेटें सुलगायी हैं और यह भी देखा है कि उनका भी कोई नाखून कभी मैला हो सकता है।”
उनके जग-विख्यात गुस्से को तो पूरा-का-पूरा एक अध्याय समर्पित है।
नेहरू के साथ रुस्तमजी की नज़दीकियां इस कदर थीं कि पुस्तक में प्राय: वे नेहरू जी के लिए आत्मीय संबोधन ‘जेएन’ का प्रयोग करते हैं।
“जेएन के साथ मेरी सेवाओं की एक अजीब बात यह थी कि उनके साथ मेरे कार्यभार का ब्यौरा देता कोई सरकारी दस्तावेज़ न था। चूंकि वे बहुत कम सामान के साथ चलते थे – उनके साथ बस एक स्टेनो और मैं चलता, साथ में एक और सुरक्षा अधिकारी और उनका नौकर हरि (हम लोग उनकी स्थायी टीम होते थे) – इसके चलते मेरे ऊपर कई और ऐसी जि़म्मेदारियां भी आन पड़ीं जो मेरे कार्यभार का हिस्सा न थीं।”
प्रधानमंत्री नेहरू के काम और व्य्वहार से जुड़ी इतनी बारीक और करीबी जानकारियां हमें कहीं और नहीं मिलतीं। कुल मिलाकर, यह पुस्तक नेहरू जी के व्यक्तित्व को लेकर एक विहंगम दृष्टि भी देती है और उसकी एक बेहद अंतरंग प्रस्तुति भी। अंतरंग इसलिए कि रुस्तमजी को प्रधानमंत्री का पहला सुरक्षा प्रमुख होने के नाते नेहरू को एक अभूतपूर्व और अन्यथा अनुपलब्ध निकटता से देखने का विशेषाधिकार मिला। “उनका सुरक्षा अधिकारी होने के नाते मुझे उनके करीब रहने का मौका तो मिला ही, साथ ही एक प्रेक्षक के नाते भी मैंने उन्हें भाषण देते, किताबें पढ़ते और सफर व बैठकों में बातें करते सुना है। वे मुझे नियमित रूप से महत्वपूर्ण बैठकों में उपस्थित रहने को कहते। लंबी-लंबी यात्राओं में और नाश्ते के समय भी उनके साथ अकेला मैं ही होता था … वे मुझ पर बेहिसाब भरोसा रखते थे।”
नेहरू जी अत्यंत लोकप्रिय थे और उन्हें भी लोगों से बेपनाह प्यार था। अपने इस प्यार में बहकर अक्सर वे सुरक्षा उपायों की धज्जियां ही नहीं उड़ाते, बल्कि ऐसा करने में उन्हें एक प्रकार का परमसुख भी मिलता था। जो लोग आज ‘भक्तों’ का गुणगान करते हैं, उनके लिए एक समूचा अध्याय ‘नेहरू-मेनिआ’ (नेहरू के प्रति दीवानगी) पर भी है।
नेहरू को लेकर रुस्तमजी का समग्र आकलन कुछ यों है –
“निस्संदेह, वे एक उत्तम पुरुष थे। आज उनकी महानता कुछ लोगों को नहीं दिख सकती, जैसे कि गांधी की महानता उनके जीते जी उनके छुटभैया निंदकों को नहीं समझ आती थी। ‘जिस दिन वे मरेंगे,’ मैं सोचता, ‘इस देश के दुखी दिल से चीर देने वाली एक कातर रुलाई फूट पड़ेगी। फ़ुज़ूल की चख़-चख़ भुला दी जाएंगी और पीढि़यों तक लोग उन्हें संसार के एक महान स्टेट्समैन का सम्मान देंगे।”
“… नेहरू की छवि मुख्यत: एक ईमानदार और बड़े आदमी की है – आधुनिक, ऊर्जावान और बहुत मेहनती इंसान। मैं जब उनकी टीम में शामिल हुआ तब वे 63 बरस के थे, लेकिन उनके जोश-ओ-ख़रोश को देख उनकी उम्र 33 बरस लगती थी और वो भी अच्छे और सेहतमंद 33 बरस … वे सादा जीवन जीते थे और खानपान की उनकी आदतें भी बहुत साधारण थीं।”
इस पुस्तक में नेहरू की सामान्य दैनंदिनी के इतने अद्भुत और आत्मीय किस्से और संस्मरण हैं जिन्हें पढ़ते हुए आप बरबस मुस्कुराने लगते हैं।
बावजूद अपनी कमियों के नेहरू प्रगतिशील थे।
“नेहरू जी की सोच हमेशा भविष्योन्मुखी होती थी। अतीत के बारे में वे बहुत कम बोलते थे। यहां तक कि वर्तमान भी उनको बहुत ज़्यादा भाता नहीं था। भविष्य को लेकर वे दीवाने रहते। हमारा उद्देश्य क्या है? हमें आगे कैसे बढ़ना चाहिए? हमें किन रास्तों पर चलना चाहिए? एक तरह से उनका चित्त ही भविष्यदृष्टा था। वे हमेशा आने वाले कल में झांकते और अपना पथ चुनने के बाद वे उसे लेकर एकदम निश्चिंत रहा करते।”
‘नेहरू-मेनिआ’ नामक अध्याय में रुस्तमजी लिखते हैं, “आम लोगों में नेहरू का चुंबकीय आकर्षण उन लोगों के लिए अविश्वसनीय है जिन्होंने उसे अपनी आंखों से नहीं देखा है। उनके पास होने, उन्हें देखने और उन्हें छू लेने की तमन्ना इतनी शिद्दत से होती थी कि लोग अपना आपा खो बैठते। उस ज़माने के ज़्यादातर लोगों ने कभी-न-कभी ऐसा महसूस किया होगा।”
“विश्व इतिहास में शायद ही किसी और इंसान को वह श्रद्धाभाव मिला हो जितना नेहरू को आजीवन नसीब हुआ।”
पंडित नेहरू का ‘निष्ठावान सिपाही’ होने के बावजूद केएफ रुस्तमजी अपनी निरपेक्षता नहीं खोते हैं। नतीजतन, एक पूरा अध्याय वे ‘नेहरू के दोषों’ पर एकाग्र रखते हैं। देखिये उनके लेखन की बानगी, “… अपने जीवन के उत्तरार्ध में नेहरू, औरंगज़ेब की तरह हो गये थे। कॉन्ग्रेस के पुराने संरक्षक धीरे-धीरे लुप्त होते जा रहे थे। कॉन्ग्रेस में नये आने वाले लोगों को नेहरू का सामना करने में डर लगता था … “
“जहां तक नेहरू की बात है, वे अक्सर कॉन्ग्रेसियों की मूढ़ता के चलते हैरान-परेशान रहा करते; उन्हें किसी भी दिशा से कोई भी सहारा नहीं मिलता, जबकि उनके सामने तमाम मुश्किल काम होते थे। ऐसे समय में, उन्हें काबिल लोगों को तलाश कर उन्हें परखना चाहिए था, आगे आने के लिए उनकी हौसला-अफ़ज़ाई करनी चाहिए थी, ताकि वे अपने काम उनके ज़रिये पूरे करवा पाते। लेकिन ठीक ऐसे ही क्षणों में, उनकी चुप्पी और तुनकमिज़ाजी बढ़ती जा रही थी। किसी भी किस्म की आलोचना से वे भड़क उठते …”
“… हमारे समय का आकलन करने वाले शायद ये कहेंगे कि नेहरू का सबसे बड़ा दोष था कि उन्होंने चहुं-ओर के भ्रष्टाचार को बेधड़क फलने-फूलने दिया।”
नेहरू के नकारात्मक आंकलन के इस अध्याय की समाप्ति रुस्तमजी एक सकारात्मक नोट पर करते हैं।
“दोषों, कमियों के बावजूद नेहरू में ऐसे सद्गुण थे जो उन्हें महान बनाते थे। उनकी बुद्धि असाधारण रूप से प्रखर थी और उनका परिश्रम तो ग़ज़ब ही था। वे सत्य्वादी थे, दो-टूक थे, और थे बहुत करुणामय। वे एक महान द्रष्टा़ और खरे सिद्धांतवादी थे, इसे लेकर मैं पूरी तरह से आश्वस्त हूं।” (सप्रेस)
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