सुदर्शन सोलंकी

तेजी से फैलती कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों ने हमारी भोजन उत्पादन की पद्धति पर तीखे सवाल खडे कर दिए हैं। हम जिसे भोजन मानकर खा रहे हैं क्या वह सचमुच जहर-मुक्त, पौष्टिक और इंसानी शरीर के लिए सर्वथा उपयुक्त है? क्या हम अधिक उत्पादन के फेर में तरह-तरह के जहरीले रसायनों का उपयोग करके अपने ही लिए खतरा मोल तो नहीं ले रहे हैं?

प्राचीन समय से भारत देश की भूमि का अधिकांश हिस्सा उन्नत व उपजाऊ था। बावजूद इसके जब किसानों द्वारा अधिक फसल उत्पादन हेतु रासायनिक उर्वरकों का अधिकाधिक प्रयोग किया जाने लगा तो फसल उत्पादन तो बढ़ गया,  किन्तु मृदा अनुपजाऊ होकर बंजर भूमि में बदलने लगी है।

‘अखिल भारतीय समन्वित शोध परियोजना’ के तहत नियत स्थान पर 50 वर्षों की अवधि में किए गए अध्ययन से चौंकाने वाली जानकारियां सामने आयी हैं। पता चला है कि एक ही खेत में नाइट्रोजन उर्वरकों के लगातार उपयोग से मृदा-स्वास्थ्य और फसल उत्पादकता ह्रास के साथ मिट्टी के पोषक तत्वों का भी क्षरण हो रहा है। नाइट्रोजन उर्वरकों का अधिक उपयोग भू-जल में नाइट्रेट संदूषण को बढ़ा देता है जिसका पेयजल के रूप में उपयोग मनुष्य और पशुओं के स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव डाल सकता है।

देश को कृषि के क्षेत्र में मजबूत बनाने के उद्देश्य से यूरिया का इस्तेमाल ‘हरित क्रांति’ (1965-66) के बाद पूरे देश में किया गया। किसानों द्वारा 1975 के आसपास खेतों में तीन से पांच गुना यूरिया डालना एक सामान्य बात थी। इसी दर से इनका उत्पादन भी बढ़ रहा रहा था। किसानों को इस बारे में सरकार की ओर से कोई अधिकृत जानकारी देने का कहीं दूर-दूर तक कोई कार्यक्रम नहीं था। इसका नतीजा यह हुआ कि किसान अपने खेतों में यूरिया का उपयोग लगातार बढ़ाता रहा। वे उस यूरिया को सोना समझ बैठे, जो धीरे-धीरे खेतों को बंजर कर रहा था। चालीस सालों से यूरिया के अंधाधुंध इस्तेमाल ने खेतों को बंजर कर दिया है।

द्वितीय विश्वयुद्ध से पूर्व प्राकृतिक रसायनों, जैसे-फसल के साथ खेत में तंबाकू के पौधे उगाकर निकोटिन का प्रयोग विभिन्न फसलों के लिए कीट-नियंत्रक के रूप में किया जाता था। विश्वयुद्ध के समय मलेरिया तथा अन्य कीट जनित रोगों के नियंत्रण में डीडीटी अधिक उपयोगी साबित हुआ, इसलिए युद्ध के पश्चात् डीडीटी का उपयोग कृषि, खरपतवार तथा फसलों के अनेक रोगों के नियंत्रण के लिए किया जाने लगा। बाद में इसके प्रतिकूल प्रभावों के कारण भारत में इसे प्रतिबंधित कर दिया गया।

उच्च-स्थायित्व वाले क्लोरीनीकृत कार्बनिक जीव-विष के प्रत्युत्तर में निम्न-स्थायित्व या अधिक जैव निम्नीकरणीय उत्पादों जैसे आर्गेनो-फॉस्फेट्स तथा कार्बोनेट्स का उपयोग किया जाने लगा। यह रसायन गंभीर स्नायु विष है और मानव के लिए अत्यंत हानिकारक है। इसके साथ ही अब शाकनाशी जैसे- सोडियम-क्लोरेट, सोडियम-आर्सिनेट उपयोग किया जाने लगा है। यह भी स्तनधारियों के लिए विषैले होते हैं। कुछ शाकनाशी के कारण मनुष्यों में जन्मजात कमियां भी आ सकती है।

नाइट्रोजनी उर्वरकों का लम्बे समय तक अधिक मात्रा में प्रयोग करने से भूमि अम्लीय हो जाती है। इससे मृदा और जल दोनों प्रदूषित होते हैं। पानी में नाइट्रेट की मात्रा 50 मिली ग्राम प्रति लीटर से अधिक होने पर बच्चों में ‘ब्लू बेबी सिण्ड्रोम’ या ‘मेथेमोग्लोबिनिमि’ बीमारी होती है जिसके कारण बच्चों का रक्त ऑक्सीजन के अभाव में नीला हो जाता है। फॉसफेटीक उर्वरक में कैडमियन और सीसा होता है और कैडमियम युक्त भोजन लेने से गुर्दा व हृदय रोग का खतरा बढ़ जाता है। जबकि शीशा युक्त भोजन लेने से दिमाग को क्षति पहुंचाती है।

मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव

‘स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग’ ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि उर्वरकों में भारी धातुएं होती हैं जिनमें सिल्वर, निकिल, सेलेनियम, पारा, सीसा व यूरेनियम आदि शामिल हैं जो सीधे तौर पर मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। इनसे वृक्क, फेफड़े और यकृत संबंधी गंभीर बीमारियां हो सकती हैं। उर्वरकों के कारण कई तरह के कैंसर, लिम्फोमा और श्वेत रक्त-कण की कमी का खतरा छह गुना से अधिक बढ़ जाता है।

नवीनतम जानकारी के अनुसार, भारत में वर्ष 2017-18 में 54.38 मिलियन टन,  2018-19 में 56.21 मि.ट.,  2019-20 में 59.88 और 2020-21 (खरीफ फसल 2020 तक) में 33.85 मिलियन टन उर्वरक उत्पादों की खपत हुई। इन उर्वरक उत्पादों में यूरिया, डि-अमोनियम फॉस्फेट (डीएपी), म्यूरेट ऑफ पोटाश (एमओपी), कॉम्प्लेक्स और सिंगल सुपर फॉस्फेट (एसएसपी) शामिल हैं।

‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ (यूएनओ) के ‘फुड एण्‍ड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन’ (एफएओ) के अनुसार दक्षिण-एशिया में 2050 तक उर्वरकों का प्रयोग दोगुना हो जाएगा। जब तक इस प्रदूषण को रोकने का उपाय नहीं किया जाएगा, तब तक यह पर्यावरण के सभी तंत्रों को बिगाड़ने का काम करेगा।

रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशक दवा के प्रयोग से मिट्टी की उर्वरा शक्ति तो दिनों-दिन कमजोर होती जा रही है, साथ ही जलवायु पर भी इसका खासा असर पड़ रहा है। ‘राजेन्द्र कृषि विवि’ के मृदा-वैज्ञानिक डा. शंकर झा के अनुसार मिट्टी को स्वस्थ रखने एवं टिकाऊ खेती के लिए जैविक खाद का इस्तेमाल आवश्यक है। जैविक खाद का प्रयोग करने से भूमि के भौतिक, रासायनिक व जैविक गुणों पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। भौतिक प्रभाव के अन्तर्गत भूमि की संरचना में सुधार, जलधारण क्षमता,  उष्मा-शोषण की क्षमता और पारगम्यता का बढ़ना तथा जल-निकासी में सुधार होना प्रमुख है।

क्षारीय मिट्टी या ऊसर भूमि में जैविक खाद,  खासकर हरी खाद का लगातार प्रयोग करने से मिट्टी की रासायनिक एवं भौतिक दशा सुधरती है। इसके प्रयोग से जमीन में पहले से उपस्थित जीवाणुओं की क्रियाशीलता बढ़ती है। इन जीवाणुओं द्वारा नाइट्रीकरण, अमोनीकरण तथा नाइट्रोजन स्थिरीकरण में वृद्धि होती है। जैविक खाद के प्रयोग से पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ाने के साथ-साथ भविष्य के लिए पोषक तत्व सुरक्षित रहता है। जैविक खाद का प्रयोग किसान करते हैं तो हानिकारक प्रभाव कम हो जाते हैं। अनुसंधान में पाया गया है कि रासायनिक उर्वरक के साथ जैविक खाद का प्रयोग करने से फसल को जरूरी पोषक तत्व हमेशा मिलते रहते हैं।

रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर समन्वित पादप पोषण प्रबंधन करके मिट्टी के मौलिक गुणों को बनाए रखा जाना चाहिए। जीवनाशी रसायनों के प्रयोग को परिसीमित कर समन्वित किट प्रबंध प्रणाली को अपनाया जाना चाहिए। जैविक खेती से भूमि की उपजाऊ शक्ति को कायम रखने के लिए घास-फूस से बनी कम्पोस्ट, सड़ी-गली खाद, जीवाणु खाद, नीम तथा अन्य पौधों से पौध संरक्षण किया जाना चाहिए। जैविक खेती संश्लेषित उर्वरकों एवं संश्लेषित कीटनाशकों के शून्य या न्यूनतम प्रयोग पर आधारित है तथा जिसमें भूमि की उर्वरा शक्ति को बचाए रखने के लिये फसल चक्र, हरी खाद, कम्पोस्ट आदि का प्रयोग किया जाता है।

‘भोजन के अधिकार’ पर ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ की 2017 की रिपोर्ट में कहा गया है कि कृषि-पारिस्थितिकी विश्व की संपूर्ण आबादी को भोजन उपलब्ध कराने और उसका उपयुक्त पोषण सुनिश्चित करने के लिये पर्याप्त पैदावार देने में सक्षम है। इसलिए देश में जैविक खेती को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। सरकार को किसानों को जैविक खेती के लिए शिक्षित करना चाहिए। इसके लिए उन्हें ‘कृषि विज्ञान केंद्रों’ एवं कृषि-विश्वविद्यालयों द्वारा प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।(सप्रेस)

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