राजेन्द्र जोशी

दुनियाभर में हमारा देश अकेला है जहां नदियों की भक्ति को अहमियत दी जाती है। चार फरवरी को ‘नर्मदा जयन्ती’ है जिसमें हम हर साल की तरह फिर नर्मदा को भक्तिभाव से याद करेंगे, लेकिन क्या इस कर्मकांड में नदी की अविरलता, साफ-सफाई पर भी गौर किया जाएगा? इसी विषय पर प्रकाश डालता राजेन्द्र जोशी का लेख।
चार फरवरी : ‘नर्मदा जयन्ती’
नर्मदे हर, हर हर नर्मदे। नर्मदा का जयघोष नदी किनारों पर लगातार सुनाई देता है। सरकार के नुमाईंदे, राजनीतिक दलों से जुडे लोग, गैर-सरकारी सामाजिक संगठन और विभिन्न समाजजन समय-समय पर नर्मदा संरक्षण की बात करते हैं। सरकार योजना बनाती है, राशि भी खर्च करती है, लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात। कोई इस बात का खुलासा नहीं करता कि सदियों पुरानी नदी का संरक्षण क्यों जरूरी है, ऐसे कौन से कारण बन गये जिसके चलते नर्मदा नदी का संरक्षण जरूरी है।
हर साल की तरह इस बार भी ‘नर्मदा जयंती’ मनाई जाने वाली है, नर्मदा नदी के उदगम अमरकंटक से समुद्र संगम स्थल भरूच तक के दोनों किनारों के विभिन्न नगरों व ग्रामों में धार्मिक आयोजनों, भंडारों की धूम रहेगी। इन आयोजनों में जहां ग्रामवासी, साधु-सन्यासी स्वेच्छा से बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं तो सफेदपोश और बजरी चोर चांदी के सिक्कों की खनक से समाजसेवी और धर्मालु होने का प्रपंच पोस्टर बैनरों के माध्यम से करते दिखाई देते हैं।
पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक नर्मदा विश्व की अकेली ऐसी नदी है जिसकी परिक्रमा की जाती है। समाज के हर तबके का व्यक्ति अपनी श्रद्धा, आस्था और आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था को देखकर नर्मदा परिक्रमा करना चाहता है। कोई वाहनों से, कोई दो-पहिया वाहन से, कोई सायकल से, लेकिन सर्वोत्तम परिक्रमा पैदल ही मानी जाती है। इस यात्रा का अपना अलग ही अनुभव होता है। इसे वही महसूस करता है जो इसे करता है। नर्मदा के दोनों तटों पर मंदिरों, मठों, स्मारकों की लम्बी श्रंखला मौजूद है, जिसका अपना इतिहास और महत्व है।
कुछ सालों से एक बात सभी ओर से सुनाई देती है – नर्मदा का संरक्षण करना है। ऐसा क्या हुआ जो आदिकाल से अपने पूर्ण अस्तित्व के साथ सभी को धन-धान्य देने वाली नदी को संरक्षण की आवश्यकता पडने लगी। प्रकृति प्रदत्त नदी के लिये संरक्षण आवश्यक नहीं है, वह तो अपना 1312 किमी का बहाव सदियों से अनवरत कर रही है। आज विचारणीय है कि हमने विकास के नाम पर नर्मदा को जितनी क्षति पंहुचाई, विकास के नाम पर नर्मदा नदी के साथ हमने जो-जो किया, श्रद्धा और आस्था के नाम पर हम जो कर रहे हैं, पर्यटन को लेकर नित नई योजना बना रहे हैं और बात कर रहे हैं, नर्मदा के संरक्षण की?
बांधों की विशाल श्रंखलाएं
नर्मदा के जल का अधिकतम दोहान हो सके इसलिये नदी पर बांधों की विशाल श्रंखलाएं बन चुकी हैं, नहरों और लिफ्ट सिंचाई योजनाओं से कृषि को अधिक सिंचित और गांव-गांव पेयजल पहुंचाने के दावे किये जा रहे हैं, जो कि कुछ हद तक सही हैं, तो कुछ नहरों का अस्तित्व बिना पानी के ही समाप्त हो गया है। वहीं बांधों के बनने से पानी थमने के कारण नर्मदा का प्रवाह थम गया है, मात्र मानसून के मौसम में बहता पानी नजर आता है, पानी रूकने से कई स्थानों पर नर्मदा का जल आचमन लायक भी नहीं रहता और बैक-वाटर से अन्य गंदगी भी नदी में मिल जाती है।
धार्मिक श्रद्धा और आस्था
धार्मिक श्रद्धा और आस्था के चलते नर्मदा नदी में विसर्जित की जाने वाली घरों, मंदिरों की पूजा सामग्री से पुण्य लाभ तो नहीं मिलता, उलटे जल-प्रदूषण होता है। साथ ही विभिन्न धार्मिक अवसरों पर नदी किनारे होने वाले आयोजनों से भी नदी में प्रदूषण बढ रहा है। नदी को हम धर्म के नाम पर प्रदूषित कर रहे हैं।
नर्मदा को नर्मदा न रहने देगा यह पर्यटन
धार जिले के ‘मेघनाथ घाट’ से गुजरात के ‘स्टेच्यू ऑफ़ यूनिटी’ (सरदार सरोवर बाँध स्थल) तक क्रूज संचालन की चर्चा जोरों पर है। मध्यप्रदेश के पर्यटन विभाग द्वारा यह गतिविधि पर्यटन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से की जा रही है। विभाग की योजना के अनुसार 3 दिनों की इस यात्रा के दौरान पर्यटकों को जलक्रीड़ा तथा अन्य गतिविधियों से आकर्षित किया जाएगा। 170 किमी लंबे जलाशय के रास्ते में पड़ने वाले टापुओं पर भी रुकवाया जाएगा, ताकि बड़ी राशि खर्च करने वालों के मनोरंजन में कोई कमी न रहे। पैसा खर्च करने वाले पर्यटकों को “राजसी प्राकृतिक वैभव का अहसास” करवाया जा सके।
नर्मदा का अर्थ केवल पानी नहीं है। किसी भी नदी में रहने वाले सारे जीव और जलीय वनस्पतियाँ सामूहिक रुप से नदी होते हैं जो उसे एक जीवित पारिस्थितिक तंत्र बनाते हैं। मध्यप्रदेश विधानसभा भी मई 2017 में ध्वनिमत से पारित एक संकल्प में नर्मदा को कानूनी जीवित इकाई मान चुकी है। क्रूज संचालन से नर्मदा में पलने वाले कई जीव और वनस्पतियाँ विलुप्ति की कगार पर पहुँच जाएंगी। जीव-जंतुओं और वनस्पतियों का खात्मा एक तरह से नर्मदा के अंग-भंग के समान होगा और खण्डित मूर्तियों की पूजा करने की हमारे यहाँ परंपरा नहीं है। एक सवाल यह भी है कि पर्यटन यात्री मल-मूत्र विसर्जन भी क्रूज में ही करेंगे? तब आस्था और श्रद्धा का क्या होगा?
हिंदु धर्म में नदियों, पहाड़ों से लेकर पेड़ों तक को पवित्र माना जाता है। नर्मदा की मान्यता ऐसी तारणहार देवी के रुप में हैं जिसके दर्शन मात्र से व्यक्ति पापमुक्त होकर आसानी से भवसागर पार कर सकता है। नर्मदा पुराण में भी कहा गया है – गंगा कनखले पुण्या कुरूक्षेत्रे सरस्वती, ग्रामे वा यदि वारण्ये पुण्या सर्वत्र नर्मदा। अर्थात् गंगा कनखल (हरिद्वार) में, सरस्वती कुरूक्षेत्र में विशेष रूप से पुण्य स्वरूपा होती हैं, परंतु नर्मदा ग्राम में, वन में कहीं भी प्रवाहित हों, वे सर्वत्र पुण्य स्वरूपा हैं।
नर्मदा के अस्तित्व पर चुनौतियाँ कम नहीं हैं। गाँवों और शहरों की सीवेज के साथ हानिकारक रसायनों का मिलना इसके उद्गम से संगम तक लगातार जारी है। सीवेज रोकने के कार्यक्रमों की घोषणाएँ जुमले सिद्ध हो चुकी हैं। अमरकंटक से लगाकर भरूच तक नर्मदा नदी के किनारे के कई ग्रामों, शहरों व कस्बों पर अवैध रेत खनन से जो खाइयाँ व गढ्ढे बन गये हैं वे अरबों रुपयों के बजट से भी नहीं भर पायेंगे। ग्राम पंचायतों को दिये खनन के अधिकारों को ठेंगा दिखाते बजरी माफियाओं के लिये कानून के हाथ लंबे नहीं हैं। पैसे व रसूख की दम पर वे हर रोज नर्मदा का सीना व किनारे छलनी कर रहे हैं।
वास्तव में नर्मदा नदी को संरक्षित और प्रदूषण मुक्त करना है तो हमें अपने ही देश के मेघालय के नागरिकों से सलीका सीखना होगा। मेघालय के शिलांग शहर से 100 किमी की दूरी पर “उमंगोट” नदी भारत के साथ एशिया की पहली एवं विश्व की दूसरे नम्बर की सबसे साफ नदी मानी जाती है। इसका पानी क्रिस्टल क्लियर यानी ऊपर से नदी तल स्पष्ट दिखाई पड़ता है। स्थानीय भाषा में “डौकी” के नाम से जानी जाने वाली इस नदी को साफ रखने का जिम्मा स्थानीय समुदाय ने ले रखा है। नदी में गंदगी फैलाने पर 5 हजार रुपये का जुर्माना लगाया जाता है। मेघालय के लोगों ने साबित कर दिया है कि नदी संरक्षण के लिए उसका “भक्त” बनना या दिखाना जरुरी नहीं है, बल्कि नदियों से अपनत्व भरा रिश्ता कायम करना जरुरी है। (सप्रेस)