आजादी के साढ़े सात दशकों बाद भी सीवर-सेप्टिक टेंक की सफाई में जान देते अनेक सफाईकर्मी हमारे विकास का ही मुंह नहीं चिढाते, बल्कि उस सामाजिक ताने-बाने को भी शर्मिंदा करते हैं जिसमें एक तबके को दूसरे की वीभत्स गंदगी अपने हाथों से साफ करनी पड़ती है। क्या हैं, इस बदहाली की वजहें?
यह विडम्बना है कि आधुनिक तकनीक के जमाने में नए और आसान तरीके से काम करने की बातें हम जरूर करते हैं, लेकिन इसी दौर में पुराने तरीके से सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई करने के चलते अक्सर कई लोगों की जानें चली जाती हैं। आंकड़े बताते हैं कि हर पांच दिन में एक सफाईकर्मी की जान सीवर साफ करने के दौरान चली जाती है। सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई कठिन, अव्यवस्थित और असुरक्षित परिस्थितियों में होने से सफाईकर्मियों को अनेक जोखिमों का सामना करना पड़ता हैं। सीवर टैंक की सफाई से होने वाली मौतें कई कारणों से हो रही हैं।
सरकारी आकड़ों के अनुसार सीवर की सफाई के दौरान वर्ष 2022 में कुल 66 लोगों की मौत हुई हैं, जबकि 2021 में 58 और 2020 में 22 मौतें हुई हैं। गौरतलब है कि 2023 में भी लगातार ऐसे मामले सामने आ रहे हैं। ‘राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग’ के मुताबिक पिछले एक दशक में सेप्टिक टैंकों की सफाई के दौरान 631 लोगों की मौतें हुई हैं। सबसे अधिक मौतें वर्ष 2019 में 115 लोगों की हुईं। वहीं तमिलनाडु में एक दशक में सबसे अधिक 122 मौतें हुईं, इसके बाद उत्तरप्रदेश में 85 मौतें, दिल्ली और कर्नाटक में 63 मौतें और गुजरात में 61 मौतें हुईं।
सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई करते सफाईकर्मी सुरक्षा उपकरणों के बिना सीवर में उतरते हैं और अक्सर जहरीली गैसों की चपेट में आकर दम घुटने से उनकी जान चली जाती है। प्राधिकरण या ठेकेदार सफाईकर्मी को सीवर और सेप्टिक टैंक में यह जानते-बूझते उतार देता है कि उसमें उसकी जान भी जा सकती है। ये सफाईकर्मी आमतौर पर कमर पर एक रस्सी बांधकर, हाथ में बाल्टी और फावड़े के साथ सीवर साफ करने के लिए उतरते हैं, जो सुरक्षा के लिहाज से बिलकुल ठीक नहीं है। सीवर में काम करने से लगातार चमडी के संक्रमण, सांस के विकारों से जूझना पड़ता है। सफाईकर्मियों की यह मजबूरी होती है कि उन्हें महज जीवन चलाने के लिए इस तरह के जोखिम में काम करना पड़ता है।
हाथ से मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने के लिए वर्ष 1993 में ‘सफाई कर्मचारी आंदोलन’ (SKA) शुरु हुआ था। सीवर और सेप्टिक टैंकों में सफाई कर्मचारियों की मौतों के खिलाफ 11 मई 2022 से वह निरंतर अलग-अलग जगहों पर विरोध प्रदर्शन कर रहा है। इसके खिलाफ आवाज उठाते-उठाते संगठन को डेढ़ साल से ज्यादा हो गये हैं, लेकिन सरकार संसद के भीतर व बाहर सीवर में हो रही मौतों के आंकड़ों में ही उलझी है, जबकि हाथ से मैला ढोने वाले सफाई मजदूरों के आंकडे भी स्पष्ट नहीं हैं। ‘सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय’ द्वारा फरवरी 2020 में प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, देश के 17 राज्यों में लगभग 63,246 हाथ से मैला ढोने वाले हैं और अकेले उत्तरप्रदेश में लगभग 35,308 की पहचान की गई है। ‘एसकेए’ का मानना है कि देश में अभी भी ऐसे 7,70,000 से अधिक कर्मचारी इसमें जुटे हैं।
गौरतलब है कि करीब एक दशक पहले भारत में हाथ से मैला ढोने की प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया गया था। इसके लिए सरकार द्वारा ‘मैनुअल स्कैवेंजर्स रोजगार के निषेध और उनके पुनर्वास का अधिनियम– 2013’ लाया गया था। यह अधिनियम मानव मल को किसी भी तरीके से हाथ से साफ करने, ले जाने, निपटान करने या संभालने के लिए किसी भी व्यक्ति के उपयोग पर प्रतिबंध लगाता है। इस कानून के अंतर्गत सेप्टिक टैंक की सफाई मशीन या किसी उपकरण से ही कराई जानी चाहिए। इसके अलावा सफाई करने वाले कर्मियों के पास सुरक्षा के साधन, जैसे – दस्ताने, मास्क आदि होने चाहिए। ऐसा न होने पर मजदूरों के ठेकेदार को कानून के अंतर्गत अपराधी माना जाएगा और उसे अधिकतम 2 साल की जेल या 2 लाख तक का जुर्माना या दोनों की सजा सुनाई जा सकती है।
‘एसकेए’ के राष्ट्रीय संयोजक एवं ‘मैग्सेसे पुरस्कार’ से सम्मानित बेजवाड़ा विल्सन बताते हैं कि कानून के कमजोर क्रियान्वयन ने सफाई कर्मचारियों को मुश्किल में डाल दिया है। इस कानून के लागू होने के बाद एक भी व्यक्ति दंडित नहीं किया गया है। बेजवाडा विल्सन ने शुरुआत करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों में शुष्क शौचालयों की संख्या पर डेटा एकत्र करना शुरू किया। ‘एसकेए’ ने देश और सरकार को यह बताने के लिए ‘भीम यात्रा’ निकाली कि सूखे शौचालयों, सीवरों और सेप्टिक टैंकों में ‘हमें मारना बंद करो।’ यह यात्रा 125 दिनों में 30 राज्यों के 500 जिलों में घूमी थी।
सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान होने वाली मौतों के बढ़ते आंकड़ों को देखते हुए सरकार ने ‘नेशनल एक्शन प्लान फॉर मैकेनाइज्ड सेनिटेशन इकोसिस्टम’ यानी ‘नमस्ते योजना’ तैयार की है। इस योजना का मुख्य उद्देश्य सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान होने वाली मौतों की संख्या को शून्य पर लाना है। इस योजना के लिए 100 करोड़ रुपए का प्रावधान भी किया गया है जिसके तहत सुनिश्चित किया जाएगा कि कुशल कामगार द्वारा ही सभी तरह के सफाई कार्य किए जाएं। सफाई कामगारों का कौशल विकास और प्रशिक्षण ‘सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय’ के सहयोग से ‘राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी वित्त विकास निगम’ के माध्यम से किया जा रहा है।
सीवर सफाई के दौरान होने वाली मौतों पर सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिये हैं कि सरकारी अधिकारियों को मरने वालों के परिजनों को 30 लाख रुपये का मुआवजा देना होगा। जस्टिस एस रवींद्र भट और जस्टिस अरविंद कुमार की पीठ ने सीवर की सफाई के दौरान स्थायी दिव्यांगता का शिकार होने वालों को न्यूनतम मुआवजे के रूप में 20 लाख रुपये भुगतान के निर्देश दिये हैं। पीठ ने केंद्र और राज्य सरकारों को कहा है कि हाथ से मैला ढोने की प्रथा पूरी तरह खत्म होना सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
सवाल है कि विज्ञान और तकनीक की ऊंचाई छूने के दावे के दौर में इस तरह की खबरें सरकार और समूचे समाज को क्या परेशान नहीं करतीं? आखिर क्या वजह है कि करीब एक दशक पहले बने अधिनियम में हाथ से मैला उठाने के काम को परिभाषित करते हुए सख्त नियम-कायदे तय किए गए, मगर उस पर अमल सुनिश्चित करना जरूरी नहीं समझा गया? क्या हम सभ्य समाज के लोग इस अमानवीय प्रथा और सीवर-सेप्टिक टैंक में जहरीली गैसों से मरने वालों के समर्थन में सरकार को बाध्य करने के लिए आवाज उठाएंगे? (सप्रेस)
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