
पिछले दिनों राजधानी दिल्ली में गंगा समेत देशभर की नदियों को बचाने की खातिर सरोकार रखने वाले अनेक लोग जुटे थे। गंगा सहित सभी नदियां शुरू से सभी जातियों, धर्मों और संप्रदायों के लिए जीवन-दायिनी रही है। इन नदियों के कारण उनके तटों पर रहने वाले विभिन्न समुदायों के लिए आजीविका के अवसर पैदा हुए और साथ ही भारतीय संस्कृति का विकास भी हुआ। इसलिए गंगा सहित देश की सभी छोटी-बड़ी नदियां सिर्फ संसाधन नहीं, बल्कि हमारी विरासत हैं, धरोहर हैं और जागृत स्मारक हैं, जिनकी रक्षा करना हम सभी का सामूहिक कर्तव्य है।
गंगा सहित देश की सभी छोटी और बड़ी नदियों को बचाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सामूहिक रूप से कारगर और समग्र पहल करने की जरूरत है। इसके लिए देश के सभी गांवों और शहरों के जन-जन को और उनके सभी तरह के प्रतिनिधियों को देश की समस्त नदियों की बिगड़ती स्थिति से अवगत कराने और इनसे उनको उबारने के लिए देशवासियों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए प्रेरित करना होगा। यह बात नई दिल्ली स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान और अवार्ड में गंगा मुक्ति आंदोलन के संस्थापक अनिल प्रकाश और अनेक गणमान्य लोगों की मौजूदगी में गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशांत और सुप्रीम कोर्ट के वकील और जन हितैषी योद्धा अरुण मांझी की अध्यक्षता में हुई बैठकों में हुए मंथन के बाद निष्कर्ष के रूप में सामने आई है।
इन बैठकों में यह बात खुलकर सामने आई कि गंगा सहित सभी नदियां शुरू से सभी जातियों, धर्मों और संप्रदायों के लिए जीवन-दायिनी रही है। इन नदियों के कारण उनके तटों पर रहने वाले विभिन्न समुदायों के लिए आजीविका के अवसर पैदा हुए और साथ ही भारतीय संस्कृति का विकास भी हुआ। इसलिए गंगा सहित देश की सभी छोटी-बड़ी नदियां सिर्फ संसाधन नहीं, बल्कि हमारी विरासत हैं, धरोहर हैं और जागृत स्मारक हैं, जिनकी रक्षा करना हम सभी का सामूहिक कर्तव्य है, लेकिन यह दिल और दिमाग को झकझोरने वाला कठोर सत्य है कि नदियों की स्थिति अब पहले जैसी एकदम नहीं रही है। नदियों के साथ खिलवाड़ पर खिलवाड़ हो रहे हैं।
खासकर गंगा बेसिन की सभी छोटी-बड़ी नदियों को बांधने और उनके किनारे को मनोरंजन और पर्यटक स्थलों के रूप में विकसित करने से नुकसान ही ज्यादा दिखाई पड़ रहे हैं। इनसे आम लोगों का कोई नाता नहीं रह गया है। नदियों के जल और उनके किनारे के स्थलों को संसाधन मानकर पूंजीपतियों सहित विभिन्न ताकतवर लोग बेलगाम होकर उनका ऐसे दोहन कर रही हैं मानो नदियां केवल उन्हीं की संपदा हों। आमजनों को नदियों से दूर तक खदेड़ा जा रहा है या वे विस्थापित होने को मजबूर हो गए हैं। नदियों के साथ ऐसे व्यवहार के कारण न सिर्फ मानव बल्कि पशु-पक्षियों के साथ वनस्पति जगत भी तबाह हो रहे हैं। भारत की मूल संस्कृति भी छिन्न-भिन्न हो रही है।
अब नदियां प्रदूषण, अतिक्रमण और केंद्र सहित सभी राज्य सरकारों और ज्यादातर लोगों की उदासीनता के कारण मरने की कगार पर पहुंच गई हैं। नदियों के विशेषज्ञ चीख-चीखकर अपने शोधों के जरिए बता रहे हैं कि एकांगी उपायों से नदियों का भला नहीं होने वाला है। हालांकि बीते सालों में सरकारों की ओर से थोड़ी-बहुत कोशिशें की गईं, लेकिन वे ऊंट के मुंह में जीरा समान ही साबित हो रही हैं। विभिन्न सरकारों द्वारा शुरू की गई योजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई हैं या उनका ठीक से क्रियान्वयन ही नहीं हो सका।
समय-समय पर ‘गंगा मुक्ति आंदोलन’ जैसे अनेक आंदोलन भी हुए हैं, जिसके कुछ बेहतर परिणाम भी हासिल हुए हैं, लेकिन अब फिर से कई नई चुनौतियों सामने आ गई हैं, जिनसे नदियों का संकट बहुत गहराता जा रहा है। नदियों का उद्धार अकेले सरकारों के बस की बात नहीं रह गई है। इसके लिए सभी सरकारों और सभी जातियों, धर्मों और संप्रदायों की जनता को मिल-जुलकर सही दिशा में वैज्ञानिक समझ के साथ प्रयास को अंतिम अंजाम तक पहुंचाना होगा।
चार दशक पूर्व गंगा को दो जमींदारों के कब्जे से मुक्ति दिलाने के लिए अनिल प्रकाश के नेतृत्व में चले आंदोलन और फिर उसके कामयाब होने की उपलब्धियों के साथ चर्चित ‘गंगा मुक्ति आंदोलन’ के नेतृत्वकारी साथियों द्वारा फिर से जन-जन को जगाने और उन्हें संगठित करने का अभियान शुरू हुआ है। इसी ‘गंगा मुक्ति आंदोलन’ की ओर से दिल्ली में गंगा सहित सभी नदियों की मौजूदा स्थितियों पर विचारार्थ तीन बैठकें आयोजित हुईं, जिनमें नदियों के उद्धार के लिए विभिन्न स्तरों पर प्रयास करने वाले साथियों और कार्यकर्ताओं के साथ पूर्व और वर्तमान सांसदों व विधायकों और नदी विशेषज्ञों ने हिस्सा लिया।
सभी ने मिलकर सर्वसम्मति से तय किया है कि गंगा सहित सभी नदियों को बचाने की खातिर सरकार को जगाने के लिए सभी सांसदों को पत्र लिखा जाए और उनकी भागीदारी सुनिश्चित की जाए। इन बैठकों में इस बात पर चिंता व्यक्त की गई कि नई पीढ़ी इस बात से पूरी तरह अनजान है कि देश की नदियां जनजीवन के लिए कितना उपयोगी रही हैं और वर्तमान में इनकी क्या दशा-दुर्दशा हो गई है। नई पीढ़ी को नदियों के इतिहास, भूगोल और संस्कृति के साथ उत्पन्न हो रही विभिन्न समस्याओं से अवगत कराने के लिए विभिन्न भाषाओं में एक पुस्तिका तैयार की जाए।
इसी के साथ सोशल मीडिया पर निरंतर प्रचार-प्रसार की गतिविधियों को तेज करने और कविता, गीत और नाटकों के जरिए जन-जागरण के लिए हरेक राज्य में स्थानीय भाषाओं के कवियों, कलाकारों और नाटककारों की सांस्कृतिक टीम बनाने का भी निर्णय किया गया। देश की सभी नदियों के इतिहास, भूगोल, संस्कृति और समस्याओं पर एक ग्रंथ भी तैयार किया जाए। जिसके संपादन की जिम्मेदारी प्रसून लतांत को दी गई जो संपादकीय मंडल की देखरेख में ग्रन्थ को तैयार करेंगे।
यह भी निर्णय किया गया कि ‘राष्ट्रीय नदी बचाओ अभियान’ के तहत एक संसदीय समिति सहित अनेक राज्यों में प्रदेश सहित जिला और पंचायत स्तरों पर संगठित ढांचा विकसित करने के लिए पहल की जाए। इन बैठकों में सभी वक्ताओं ने जोर देकर कहा कि गंगा सहित सभी नदियों की रक्षा के सवाल पर राष्ट्रीय स्तर पर अपनी नई पीढ़ी के साथ एकजुट हुए बिना बेहतर नतीजों के आने की कोई संभावना नहीं हो सकती। हम अब उठ खड़े नहीं होंगे तो शुद्ध जल, हरे-भरे जंगल और उर्वर जमीन से भी हाथ धो बैठेंगे। हमें नदियों के किनारे नई-नई समृद्ध परंपराओं की शुरुआत करनी होगी, ताकि भविष्य में होने वाले पेयजल के अभावों और प्रदूषण के संकटों से देश को बचाया जा सके।
इतिहासकारों के मुताबिक ईस्वी-पूर्व तीसरी शताब्दी से गंगा सहित उनकी सहायक नदियां महान भारतीय संस्कृति का केंद्र रही हैं। गंगा में एक आकर्षण है, जिसने बड़े-बड़े नगरों की भीड़ को ही नहीं, बड़ी-से-बड़ी हस्तियों की भीड़ को भी अपने किनारे खींचा है। प्रारंभ से गंगा के उद्गम गंगोत्री से गंतव्य गंगा-सागर तक व्यापार और विद्या के अनेक केंद्र विकसित हुए। इतना ही नहीं, वैदिक मंत्रों के गायक ऋषियों से लेकर गीतांजलि गाने वाले रवींद्रनाथ टैगोर तक इसके तट पर हुए हैं। भरत से लेकर समुद्रगुप्त तक सम्राटों ने इसी गंगा-बेसिन में से समूचे भारत को एकता के सूत्र में बांधा है और बुद्ध से लेकर दयानंद तक प्रचारकों ने इसी तट पर से अपना संदेश दिया है।
रैदास और कबीर के साथ मुगलकाल में तुलसीदास ने भी अपने संदेश दिए हैं। उस्ताद बिस्मिल्ला खां की साधना भी फलीभूत हुई है। गंगा के किनारे शताब्दियों से वाराणसी आध्यात्म, देश-विदेश में अद्वितीय शिक्षा के केंद्र के रूप में विख्यात विक्रमशिला और ‘एशियाटिक सोसाइटीज’ द्वारा भारतीय अनुशीलन के केंद्र के रूप में कोलकाता जैसे शहर विकसित हुए जिससे हमारी दृष्टि का विकास हुआ। साहित्य और कला का नया जन्म हुआ। इस प्रकार गंगा हमारी लौकिक और पारलौकिक संस्कृति की जननी है। अब वसुधैव कुटुंबकम् वाली भारतीय जमीन पर गंगा सहित सभी नदियों के वजूद को बचाने के लिए एकजुट होने की जरूरत है। (सप्रेस)