राजेन्द्र सिंह

छत्तीसगढ की लाचारी, बेकारी और बीमारी नक्‍सलवाद को जन्म दे रही है। नक्सलवाद और बागीपन हिंसा है, लेकिन हिंसा को हिंसा से ठीक कभी नहीं किया जा सकता। हिंसा को स्नेह से सम्मान देकर बदला जा सकता है; इसलिए राज-समाज को इन नक्सलवादियों के साथ रहकर रोजगार के अवसर व जीवन जीने के लिए अहिंसक काम में लगाना चाहिए

छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद को मिटाने का जो तरीका सरकार ने अपनाया है; उसका “स्वागत” करता हूँ। इससे यह तो समझ में आता है कि  राज्‍य सरकार नक्सलवाद को मिटाना चाहती है, पर जिस तरीके से सरकार उसे मिटाने की राह पर है, वह तरीका सनातन या स्थायी तरीका नहीं है।

सरकार यदि ऐसे 30-40 नक्सलियों को मार भी देगी, तो उसमें से और हजारों नये नक्सली बनते जाएँगे। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि एक राक्षस को मारने से और बहुत सारे राक्षस पैदा होते है।

नक्सलवाद को खत्म करने का तरीका उनको खत्‍म करना नहीं है, बल्कि पहले नक्सली बनने के कारणों की पडताल करना और समझना जरूरी है। समझना होगा कि नक्सलवाद या आतंकवाद क्यों विकसित हो रहे है? छत्तीसगढ़ के नक्सलवाद का मूल कारण है वहाँ के लोगों के पास रोजगार का न होना। ये लोग जीवन, जीविका और ज़मीर… इन तीनों का संकट झेल रहे हैं। इनके पास जीवन को चलाने के लिए न जल है और न ही अन्न है। घर में भी शांति और समाधान नहीं है।

छत्तीसगढ़ का नक्सलवाद यदि खत्म करना है तो वहां जल संरक्षण का काम करके वहाँ के फसल-चक्र को बदलने और खेती को बढ़ाकर रोजगार बढ़ाने की जरूरत है। इस समय छत्तीसगढ की लाचारी, बेकारी और बीमारी नक्सलवाद को जन्म दे रही है।

पिछले 50 वर्षों में तरुण भारत संघ ने शांति से पानी का काम किया। तभासं ने चम्बल में उन लोगों के लिए पानी का काम किया, जो बंदूक लिए लूट-पाट करते रहते थे। चम्बल का बाग़ीपन और छत्तीसगढ़ का नक्सलवाद दोनों के साध्य में लाचारी, बेकारी और अपमान है। इन सबके कारण ही ये लोग बाग़ी या नक्सली बनते हैं। जब जीवन को चलाने के लिए जीविका के साधन नहीं होते, तब वह ‘मरता क्या नहीं करता’। ऐसी परिस्थिति में उसके जीवन में हिंसा आ जाती हैं।

 यहाँ के लोगों ने यह मान लिया है कि  जीवन की लाचारी, बेकारी, बीमारी और अपमान का समाधान यह हिंसा है। जबकि हिंसा उसका समाधान कभी नहीं हो सकता, इसका समाधान तो स्नेह से होगा। जब यह समझ में आने लगता है, तो फिर नक्सलवाद सनातन तौर पर मिट जाता है। स्थायी तौर पर इसका समाधान है सबको समान रूप से जीविका के साधन मिलना तथा व्यक्ति के जीवन को सम्मान सहित रहने के लिए समान वातावरण का मिलना।

जब व्यक्ति के जीवन को चलाने के साधन सुलभ होते हैं, तो वह व्यक्ति निर्भय-निडर होकर अपने जीवन के कामों में लगा रहता है; लेकिन जब उसके पास जीवन जीने के साधन नहीं होते, तब वह डरता-डराता और मरता-मारता है।

छत्तीसगढ़ में नक्सलियों से शांति का समाधान बिल्कुल वैसा ही है, जैसा चम्बल के करौली और धौलपुर में। यह क्षेत्र 50 साल पहले डकैतों के नाम से जाना जाता था। इस क्षेत्र में तरुण भारत संघ ने जल संरक्षण करके उनके जीवन को चलाने के लिए खेती में रोज़गार उपलब्ध कराए। यह सब कुछ तरुण भारत संघ ने नहीं किया, बल्कि लोगों ने खुद से शुरू किया है।

यहाँ की महिलाओं ने अपने बच्चों और पति को इस पानी के काम में तरुण भारत संघ के साथ जोड़ने में अग्रणी भूमिका निभायी है। जब दोनों को समझ आया कि  हमें इस संकट से मुक्ति जल संरक्षण और हथियार छोड़कर खेती से ही मिल सकती है, तो बाग़ियों को भी किसानी समझ में आने लगी।

जिस तरह चंबल का बागी किसानी में बदला है, वैसे ही छत्तीसगढ़ का नक्सलवादी भी बदल सकता है। इसे रोजगार, खेती और अपने गांव के अच्छे कामों में लगाया जाए, इस हेतु जमीनी बुनियादी काम शुरू करना चाहिए। ये काम केवल सरकारी उत्सवों और जलसों से नहीं होगा।

तरुण भारत संघ ने अपना बिना कुछ प्रचार-प्रसार किये बाग़ियों को किसान बनाया और उनको ‘‘विश्व शांति जल-दूत सम्मान’’ देकर सम्मानित किया है। ये ऐसे लोग हैं, जिनके मुकद्दमे समाप्त हुए और वे साधारण जिंदगी जीने लगे। उन्होंने अपनी सच्चाई सबके सामने रखी है, जिसमें न्यायपालिका और कार्यपालिका ने भी मदद की है।

हमारी न्यायपालिका, कार्यपालिका और वहाँ के सामाजिक कार्यकर्ताओं को छत्तीसगढ़ में मिलकर नक्सली लोगों को खेती के काम में लगाने का काम करना चाहिए तथा उनके लिए रोज़गार के अवसर बढ़ाने चाहिए। छत्तीसगढ़ के साथी उनके साथ मिलकर ऐसा काम करेंगे, तो फिर यह नक्सलवाद खत्म हो जाएगा।

नक्सलवाद और बागीपन हिंसा है लेकिन हिंसा को हिंसा से ठीक कभी नहीं किया जा सकता। हिंसा को स्नेह से सम्मान देकर बदला जा सकता है; इसलिए राज-समाज को इन नक्सलवादियों के साथ रहकर रोजगार के अवसर व जीवन जीने के लिए अहिंसक काम में लगाना चाहिए । इस प्रकार के कार्य से नक्सली हिंसामय जीवन छोड़कर अहिंसामय जीवन जीने लगेंगे।