14 सितंबर : हिंदी दिवस पर विशेष

सुदर्शन सोलंकी

हिन्दी एक भाषा ही नहीं, भरी-पूरी संस्कृति है और इसलिए उसे सीखना केवल भाषा-ज्ञान भर नहीं है। बदलाव की अनिवार्यता के चलते जब रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज आदि सभी बदलते जा रहे हैं तो जाहिर है, भाषा भी बदलेगी। भाषा का यह बदलाव हमारी संस्कृति के बदलाव से जुडा है और उसके विकास के लिए हमें समसामयिक समाज के बदलाव को भी देखना होगा।

हिंदी एक भाषा के रूप में न सिर्फ भारत की पहचान है, बल्कि यह हमारे जीवन-मूल्यों, संस्कृति एवं संस्कारों की सच्ची संवाहक, संप्रेषक और परिचायक भी है। यह अत्यधिक सरल, सहज और सुगम भाषा होने के साथ एक वैज्ञानिक भाषा भी है। इस वजह से विश्व में हिंदी बोलने, समझने और चाहने वाले लोगों की संख्या भी बहुत अधिक हैं। यह विश्व में तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। यह हमारे पारम्‍परिक ज्ञान, प्राचीन सभ्‍यता और आधुनिक प्रगति के बीच एक सेतु के समान है। हिंदी की वजह से ही हमारी विश्व में एक अलग ही पहचान है। यह हमें दुनियाभर में मान-सम्मान और गर्व दिलाती है, क्योंकि हिंदी भाषा हमारे देश की संस्कृति और संस्कारों की अभिव्यक्ति करती है।

14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एकमत से यह निर्णय लिया था कि हिन्दी की खड़ी बोली ही भारत की राजभाषा होगी। इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिए ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा’ के अनुरोध पर सन् 1953 के उपरांत हर साल संपूर्ण भारत में प्रतिवर्ष 14 सितंबर को ‘हिन्दी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

हिंदी भारत संघ की राजभाषा होने के साथ ही ग्यारह राज्यों और तीन संघ शासित क्षेत्रों की भी प्रमुख राजभाषा है। संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल अन्य इक्कीस भाषाओं के साथ हिंदी का एक विशेष स्थान है, किन्तु देश में तकनीकी और आर्थिक विकास के साथ ही अंग्रेजी भी हमारे देश पर हावी होती जा रही है। अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व के कारण अब हिंदी बोलने वाले को अनपढ़ या गंवार के समान देखा जाता है।

विडंबना है कि हम, हमारे ही देश में हिन्दी भाषा को वह मान-सम्मान नहीं दे पा रहे हैं जो अब अंग्रेजी को मिलने लगा है। आज की नई पीढ़ी हिंदी से दूर हो रही है। इसका सबसे प्रमुख कारण पश्चिमी संस्कृति को माना जा सकता है जहां धारा-प्रवाह अंग्रेजी संभाषण ही मुख्य भूमिका में होता है। दूसरी तरफ, विदेशों में हिंदी सही दिशा में आगे बढ़ रही है। विभिन्न देशों में हिंदी का सम्मान किया जा रहा है। कई विदेशी विश्वविद्यालयों में वहां के स्थानीय विद्यार्थी हिंदी सीख रहे हैं, जबकि हमारे हिंदी भाषी राष्ट्र में अभिभावक स्वयं ही हिंदी को पिछड़ेपन की निशानी मान रहे हैं।

भाषा मूल रूप से अभिव्यक्ति का माध्यम होती है। प्राचीन समय में भाषा केवल वाचिक परम्परा के माध्यम से व्यक्त होती रही है, फिर धीरे-धीरे ताम्रपत्रों व शिलाओं में भाषा को लिखित रूप में व्यक्त किया जाने लगा। नौवीं शताब्दी में चीन में लकड़ी पर मुद्रण शुरू हुआ। 868 ईसवीं में चीन में तांग वंश के शासन में ‘स्वर्ण सूत्र’ नामक पुस्तक मुद्रित की गई। हिन्दी का साहित्यिक इतिहास 12वीं शताब्दी में पाया जाता है। हिंदी का पहला समाचार पत्र (साप्ताहिक) ‘उदंत मार्तंड’ (यानि समाचार सूर्य) जुगलकिशोर शुक्ल ने कलकत्ता से 30 मई 1826 को प्रकाशित किया था। तब से हिंदी का प्रचार-प्रसार होना भी शुरू हो गया जो अब टीवी, रेडियो एवं इंटरनेट तक पहुँच गया है। फिर भी हिंदी को हम वह स्थान नहीं दे पा रहे हैं जिसकी वह वास्तविक हकदार है।

किसी भी भाषा का विकास उसके साहित्य पर निर्भर करता है। इसलिए आज के आधुनिक और वैज्ञानिक युग में चिकित्सा, अभियांत्रिकी और सूचना-प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में भी हिंदी में काम को बढ़ावा देना चाहिए। इसके लिए हिन्‍दी भाषा में तकनीकी ज्ञान से संबंधित साहित्‍य का सरल रूप में अनुवाद किया जाना चाहिए। वर्तमान में ‘राजभाषा विभाग’ द्वारा ‘राष्ट्रीय ज्ञान-विज्ञान मौलिक पुस्तक लेखन योजना’ के द्वारा हिंदी में ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकों के लेखन को बढ़ावा दिया जा रहा है। इससे अब हमारे यहां ज्ञान-विज्ञान संबंधी पुस्तकें हिंदी में उपलब्ध होंगी।

कोई भी भाषा तब ही जीवंत रह सकती है जब उसका प्रयोग लोगों द्वारा किया जाए। इसलिए हमें अपनी बोलचाल की भाषा में हिंदी का ही उपयोग करना चाहिए। साथ ही हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार भी होते रहना जरूरी है। इसके अतिरिक्त हिन्दी भाषा के माध्यम से शिक्षित युवाओं को रोजगार के अधिक अवसर उपलब्ध हो सकें, इस दिशा में सरकार को निरंतर प्रयास भी करना चाहिए। भारत में लोगों के बीच संवाद का सबसे बेहतर माध्यम हिन्दी है। इसलिए इसे एक-दूसरे में प्रचारित करना चाहिए।

हमें यह भी समझना होगा की बच्चे गीली मिट्टी के समान होते है। बचपन में उनको जो सिखाया जाता है जीवन भर के लिए उनके मन-मस्तिष्क पर वही वैचारिक पृष्ठभूमि बनी रहती है। हमें अपने बच्चों को अपनी परंपरा का वास्तविक चित्र दिखाना होगा। वर्तमान पीढ़ी अपनी भाषा से दूर होने के साथ ही संस्कारों से भी दूर हो रही है, जिससे पाश्चात्य संस्कृति को बढ़ावा मिलने लगा है। हम जिस भाषा को महत्व देते हैं उसी भाषा की संस्कृति सीखते-समझते हैं। इसलिए बच्चों को संस्कारों से जोड़े रखने के लिए अपनी भाषा से जोड़े रखना जरूरी है। आज हमें अपनी आत्मा और मन को जगाने की आवश्यकता है। हमें हिंदी के विशेष महत्व को नई पीढ़ी के मन में महसूस कराना होगा। हिंदी को भूलने के बजाय इसे अंतःमन से सहर्ष स्वीकार करके सम्मान देने से ही यह बच पायेगी, अन्यथा नहीं।(सप्रेस)

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