अनुराग बेहार

पुल के नीचे, रेलवे लाइन के पास, फुटपाथ या अन्य किसी जगह बने सीवर उनके लिए अभयारण्य हैं| बाकी स्थानों पर चाहे वे पुल के नीचे हो, रेल पटरी के पास हो, फुटपाथ पर हो या और कहीं, कोई न कोई उन्हें वहाँ से हटाने की ताक में लगा रहता है, चूंकि शहरों की ज़मीन सोने की तरह कीमती है | पर ये लोग यहाँ क्यों रहते हैं? क्योंकि गाँव में उनके घरों में भूख मिटाने के लिए एक समय का भोजन जुटाना भी उनके लिए संभव नहीं हुआ!

खुला सीवर 10 किलोमीटर तक सीधा बहता है, जो लगभग 8 मीटर गहरे और 50 मीटर चौड़े एक गहरे घाटीनुमा गड्ढे में है और जिसके किनारे इस तरह ढलान लिए हुए हैं कि बीच में इसकी चौड़ाई का 20 मीटर हिस्सा समतल है। 6 मीटर चौड़ा सीवर गड्ढे के इसी समतल हिस्से के बीच में है। इस घाटी के ऊपर 10 किलोमीटर की पूरी लंबाई को घेरता हुआ एक एलिवेटेड हाईवे गुजरता है, जो सीवर से लगभग 20 मीटर ऊपर और घाटी के किनारे की जमीन से लगभग 12 मीटर ऊपर है। एक व्यस्त रेलवे लाइन दक्षिणी छोर के अधिकांश हिस्से के समानांतर चलती है और उत्तरी छोर पर एक सड़क है। ऊपर का हाईवे गड्ढे की पूरी चौड़ाई को कवर करता है। सीवर वाला गड्ढा हाई-स्पीड छह लेन वाले हाईवे से दिखाई नहीं देता क्योंकि यह ठीक हाईवे के नीचे है।

घुमावदार काला कीचड़ सीवर में तेजी से बहता है | यह बीस लाख लोगों की आबादी वाले शहर से आया कचरा है, जो भयानक बदबू लिए आता है | गड्ढे के आसपास लगभग 2000 लोग झुग्गियाँ बनाकर रहते हैं | ये झुग्गियाँ बेकार प्लास्टिक, धातु की चादरों और सड़ी हुई लकड़ी से बनी हैं। मानसून की बारिश के दौरान सीवर का बहाव अनियंत्रित हो जाता है इसलिए झुग्गियाँ ढलान वाले हिस्से के ऊपर की ओर ही बनी हुई हैं, जहाँ से आँखों को कोई बाधा नहीं पहुँचती और ये झुग्गियाँ गड्ढे के दोनों किनारों से साफ दिखाई देती हैं। सीवर के किनारे जगह-जगह पर, दो-दो वर्ग फुट का शौचालय बनाने हेतु ज़मीन में गड़ी हुई चार बाँस की छड़ियों के चारों ओर फटी हुई साड़ियाँ लपेटी हुई देखी जा सकती हैं।

आप भारत के गरीबी से त्रस्त व्यक्ति से मिल पाएँगे

आसपास रहने वाले ऐसा मानते हैं कि इस सीवर के आसपास की झुग्गियों में अधिकतर नकली शराब बनाने वाले, नशे का कारोबार करने वाले और अपराधी लोग रहते हैं | मगर वास्तविकता यह है कि यदि आप अपनी हवेलियों में खड़े होकर उनके बारे में राय बनाने की बजाय इस गड्ढे में झाँककर उन्हें करीब से देखेंगे तो आप भारत के गरीबी से त्रस्त व्यक्ति से मिल पाएँगे | एक मजदूर, ट्रेफिक सिग्नल पर वस्तुएँ बेचने वाले या भीख माँगने वाले, वह सब काम करने वाले जो जीवन जीने के लिए उन्हें मिलता है, जरूरी लगता है| इनमें से निश्चित रूप से कुछ अपराधी भी होंगे, मगर उनकी संख्या झुग्गियों से दिखाई देने वाली बड़ी इमारतों में रहने वाले सफेदपोश अपराधियों से कम ही होगी |  

ये परिवार यहाँ क्यों रहते हैं? क्योंकि यहाँ से उन्हें पुलिस, भू माफिया, शहर स्वच्छता समिति के वाशिंदे आदि कोई भगा नहीं सकता, विस्थापित नहीं कर सकता | पुल के नीचे, रेलवे लाइन के पास, फुटपाथ या अन्य किसी जगह बने ये सीवर उनके लिए अभयारण्य हैं | बाकी स्थानों पर चाहे वे पुल के नीचे हो, रेल पटरी के पास हो, फुटपाथ पर हो या और कहीं, कोई न कोई उन्हें वहाँ से हटाने की ताक में लगा रहता है, चूंकि शहरों की ज़मीन सोने की तरह कीमती है | पर ये लोग यहाँ क्यों रहते हैं? क्योंकि गाँव में उनके घरों में भूख मिटाने के लिए एक समय का भोजन जुटाना भी उनके लिए संभव नहीं हुआ…

हमारी सबसे पवित्र नदी का विस्तार भव्य है। यह विस्तार उस ऊंचे राजमार्ग से दिखाई देता है। इसका पानी उस सीवर जैसा गंदा और बदबूदार नहीं है लेकिन श्रद्धालु जब इसमें स्नान करते हैं तो अपने पाप को बीमारी में बदल देते हैं।

कीचड़ भरे किनारों से नहीं भगाता

देश के एक पवित्र तीर्थस्थल पर एक हजार किलोमीटर ऊपर से आता पानी साफ है मगर इसके किनारे साफ नहीं हैं। एक अन्य चमचमाते राजमार्ग से हम कीचड़ से सने हुए किनारों पर प्लास्टिक-धातु-लकड़ी से बनी जानी-पहचानी झुग्गियाँ देख सकते हैं। गरीबी ने इन गाँवों के निवासियों को उनके गाँवों से भगा दिया, लेकिन कोई भी उन्हें इन कीचड़ भरे किनारों से नहीं भगाता, जब तक कि वे हर बार बड़े या छोटे मेले के आयोजन पर इन्हें स्वेच्छा से खाली नहीं कर देते। आसपास के क्षेत्र में धर्म-प्रधान निर्माण कार्य में तेजी से उन्हें कुछ दिहाड़ी काम मिल जाता है या कम से कम उनके पास पवित्र नदी में स्नान करने के लिए आने वाले हजारों लोगों से मिलने वाली भिक्षा का सुरक्षा कवच ही मिल जाता है।

यहाँ के बच्चे चाहे वे सीवर के पास रहते हो या मैले किनारों के पास, वे स्कूल नहीं जाते| पहले तो उन्हें स्कूल में दाखिला ही नहीं मिलता और यदि मिलता भी है तो अत्यधिक व्यस्त रेल पटरी या हाईवे को पार करना बेहद जोखिम का काम है | अधिकतर परिवारों के पास राशन-कार्ड नहीं हैं- जिसका मतलब है कि अनाज की सार्वजनिक वितरण प्रणाली तक उनकी पहुँच असंभव है। अधिकांश के पास भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य योजनाओं तक पहुंचने के लिए कोई दस्तावेज नहीं है। पीने के लिए पानी जुटाना एक दैनिक संघर्ष है और इस पानी को हासिल करने में उनकी कमाई या काम के घंटे या दोनों खत्म हो जाते हैं। मंदिरों में जाना वर्जित है। बच्चों की पैदाइश में परेशानी होती है चूँकि सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली तक पहुँच नहीं है और निजी अस्पतालों में प्रसव अकल्पनीय रूप से पहुंच से बाहर है। मृत्यु अंतिम संस्कार की गरिमा की मांग करती है, जो पीछे जीवित बचे लोगों को और गरीबी में धकेल जाती है |

इस तीर्थ स्थल से दक्षिण में 2000 कि.मी. दूर शहरी कचरे से बना ऐसा ही सीवर और उसके किनारे कतारों में बनी झुग्गियाँ नज़र आएँगी | यह एक और मध्यम आकार का शहर है, जहाँ गाँवों की तुलना में आजीविका के साधन कम ही है फिर भी यहाँ जीने के लिए साधन उपलब्ध होंगे, यह विश्वास रहता है | यही कारण है कि शहरों में हर तरफ इस तरह की झुग्गियाँ दिखाई देती हैं |

हमें इसे दृश्य को बदलना होगा

जो कभी हमारे बड़े शहरों में घटता था, वह अब अधिकांश छोटे और मध्यम आकार के शहरी केंद्रों में फैल गया है। लेकिन ये केवल झुग्गी-झोपड़ियाँ नहीं हैं, उनसे भी निम्न स्तर की झुग्गी-झोपड़ियाँ हैं जो जीवन जीने के सिद्धान्त का खंडन करती हैं, उन्हें गहरी खाई में धकेलती है | अगर हम पर्याप्त नौकरियों और आजीविका के अवसर नहीं बनाते हैं और यह सुनिश्चित नहीं करते हैं कि वे पूरे भारत में समान रूप से वितरित हो तो मूल समस्या का समाधान नहीं होगा। एक राष्ट्र के रूप में बल्कि वैश्विक स्तर पर भी यह स्पष्ट है कि हम ऐसा करना नहीं जानते, मगर यह स्वीकार करना अत्यंत आवश्यक है कि हम नहीं जानते हैं तभी अनुसंधान और नीति से लेकर ज़मीनी स्तर पर काम करने और व्यवसाय तक हर आयाम पर आवश्यक गहन प्रयासों की शुरुआत हो सकती है | लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इस बीच हम अपने सबसे गरीब लोगों के लिए सबसे बुनियादी चीजें सुलभ नहीं करवा सकते । अगर हमारी कारों के लिए हाई-स्पीड हाईवे बनाए जा सकते हैं तो उनके पास भोजन, पानी, बुनियादी स्वास्थ्य और शिक्षा क्यों नहीं होनी चाहिए? हमारे पास इनमें से अधिकांश के लिए कल्याणकारी योजनाएँ हैं लेकिन इन झुग्गी-झोपड़ियों के निवासियों की उन योजनाओं तक पहुँच लगभग नहीं के बराबर है। हमें इसे दृश्य को बदलना होगा।

देश में कहीं भी किसी भी सीवर को नागरिकों के लिए अभयारण्य नहीं होना चाहिए।

अनुराग बेहार अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन के सीईओ एवं अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के संस्‍थापक वाइस चांसलर हैं।