किसानों ने जिस लड़ाई की शुरुआत कर दी है वह इसलिए लम्बी चल सकती है कि उसने व्यवस्था के प्रति आम आदमी के उस डर को ख़त्म कर दिया है जो पिछले कुछ वर्षों के दौरान दिलों में घर कर गया था। जनता का डर अब सरकार का डर बनता जा रहा है। लड़ाई किसानों की माँगों के दायरे से बाहर निकल कर व्यापक नागरिक अधिकारों के प्रति सरकार के अहंकारी रवैये के साथ जुड़ती जा रही है। आंदोलन का एक निर्णायक समापन किसान-विरोधी क़ानूनों का भविष्य ही नही यह भी तय करने वाला है कि नागरिकों को देश में अब कितना लोकतंत्र मिलने वाला है। लोग समझने लगे हैं कि ज़िंदा रहने के लिए केवल कोरोना की वैक्सीन ही नहीं, लोकतंत्र का टीका भी ज़रूरी है।
कोई चालीस दिनों से देश के एक कोने में चल रहे आंदोलन, कड़कती ठंड के बीच भी किसानों, महिलाओं और बच्चों की मौजूदगी, अश्रु गैस के गोले और पानी की बौछारें ,हरेक दिन हो रही एक-दो मौतें और इतने सब के बावजूद सरकार की अपने ही नागरिकों की बात नहीं मानने की हठधर्मी और अहंकारी-आत्मविश्वास के पीछे कारण क्या हो सकते हैं ?
पहला कारण तो सरकार का यह मानना हो सकता है कि गलती हमेशा नागरिक करता है, हुकूमतें नहीं। दूसरा यह कि जनता सब कुछ स्वीकार करने के लिए बाध्य है।वह कोई विरोध नहीं करती ऐसी ही उसे उसके पूर्व-अनुभवों की सीख भी है। नोटबंदी, आपातकाल की तरह ही ,राष्ट्र के नाम एक संदेश के साथ आठ नवम्बर 2016 को लागू कर दी गई थी । तब के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बाद में दावा किया कि सिर्फ़ तीन बैंक कर्मियों और एक ग्राहक समेत कुल चार लोगों की इस दौरान मौतें हुईं । विपक्ष ने नब्बे से ज़्यादा लोगों की गिनती बताई। करोड़ों लोगों ने तरह-तरह के कष्ट और अपमान चुपचाप सह लिए।सरकार की आत्मा पर कोई असर नहीं हुआ । उसका सीना और चौड़ा हो गया।
कोरोना के बाद देश भर में अचानक से लॉक डाउन घोषित कर दिया गया । लाखों प्रवासी मज़दूरों को भूखे-प्यासे और पैदल ही अपने घरों की तरफ़ निकलना पड़ा। वे रास्ते भर लाठियाँ खाते रहे, अपमान बर्दाश्त करते रहे । सरकार के ख़िलाफ़ कहीं कोई नाराज़गी नहीं ज़ाहिर हुई। सरकार का सीना और ज़्यादा फूल गया। संसद के सत्र छोटे कर दिए गए अथवा ग़ायब कर दिए गए। विपक्ष की असहमति की आवाज़ दबा दी गई। जनता की ओर से कहीं कोई शिकायत नहीं दर्ज कराई गई। सरकार ने मान लिया कि जनता सिर्फ़ उसी के साथ है।जो लोग आंदोलनकारियों के साथ हैं वह जनता ही नहीं है। सरकार अब जो चाहेगी वही करेगी ।वह ज़रूरत समझेगी तो देश को युद्ध के लिए भी तैयार कर सकती है।
किसान आंदोलन को लेकर सरकार के रवैये में व्यक्त हो रहे एकतंत्रवादी स्वरों की आहटें अगर 2014 में ही ठीक से सुन ली गईं होतीं तो आज स्थितियाँ निश्चित ही भिन्न होतीं। मई 2014 में पहली बार सत्ता में आने के केवल कुछ महीनों बाद ही (दिसम्बर 2014) मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण से सम्बंधित एक अध्यादेश जारी कर दिया था। उसका तब ज़बरदस्त विरोध हुआ था और उसे किसान-विरोधी बताया गया। अध्यादेश के चलते सरकार की छवि ख़राब हो रही थी फिर भी वह उसे वापस लेने को तैयार नहीं थी। कारण तब यह बताया गया कि ऐसा करने से प्रधानमंत्री की एक मज़बूत और दृढ़ नेतृत्व वाले नेता की उस छवि को झटका लग जाएगा जिसके दम पर वे इतने ज़बरदस्त बहुमत के साथ सत्ता में आए हैं।
विधेयक को क़ानून की शक्ल देने के लिए सरकार डेढ़ वर्ष तक हर तरह के जतन करती रही। विधेयक को दो बार संसद में पेश किया गया ,तीन बार उससे सम्बंधित अध्यादेश लागू किया गया, कई बार उस संसदीय समिति का कार्यकाल बढ़ाया गया जो उसकी समीक्षा के लिए गठित की गई थी ,तमाम विरोधों के बावजूद उसे लोक सभा में पारित भी करवा लिया गया। पर राज्य सभा में बहुमत न होने के कारण यह सम्भव नहीं हो सका कि उसे क़ानूनी शक्ल दी जा सके।
देश को जानकारी है कि जो सरकार एक किसान-विरोधी एक विधेयक को 2016 में क़ानून में तब्दील नहीं करवा पाई उसने 2020 आते-आते कैसे एक पत्रकार उपसभापति के मार्गदर्शन में तीन विधेयकों को राज्य सभा में आसानी से पारित करवा लिया। कहा नहीं जा सकता कि जिस किसान-विरोधी विधेयक को सत्ता में आने के कुछ महीनों बाद ही सरकार ने अपनी नाक का सवाल बना लिया था पर वह उसे क़ानून में नहीं बदलवा पाई वह आगे किसी नए अवतार में प्रकट होकर पारित भी हो जाए।अब तो स्थितियाँ और भी ज़्यादा अनुकूल हैं।
सरकार ने पिछले चार वर्षों के दौरान अपनी छवि को लेकर सभी तरह के सरोकारों से अपने आपको पूरी तरह आज़ाद कर लिया है। प्रधानमंत्री ने जैसे ‘अपने’ और ‘अपनी जनता’ के बीच उपस्थित तमाम व्यक्तियों और संस्थाओं को समाप्त कर सीधा संवाद स्थापित कर लिया है ,वे उसी तरह कृषि क़ानूनों के ज़रिए किसानों और कार्पोरेट ख़रीददारों के बीच से तमाम संस्थाओं और व्यक्तियों को अनुपस्थित देखना चाहते हैं। अगर 2014 का अध्यादेश राष्ट्रीय स्तर पर नाक का सवाल बन गया था तो 2020 के कृषि क़ानून अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सरकार की प्रतिष्ठा के सवाल बना दिए गए हैं।
लोगों ने पूछना प्रारम्भ कर दिया है कि आगे क्या होगा ? क्या सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा ? हो सकता है ऐसा ही हो । सब कुछ ऐसे ही चलता रहे।अब आठवें दौर की बातचीत होने वाली है ।उसके बाद नौवें, दसवें और ग्यारहवें दौर की चर्चाएँ होंगी। फिर ‘गणतंत्र दिवस’ की परेड होगी । सलामी ली जाएगी।किसानों की भी ट्रैक्टर परेड निकलेगी ? सरकार के सामने आर्थिक, सामाजिक और कृषि सहित सैंकड़ों सुधारों की लम्बी-चौड़ी फ़ेहरिस्त पड़ी है।किसान या आम नागरिक अब उसकी पिक्चर में नहीं है। आधुनिक भारत के उसके सिंगापुरी सपने में फटेहाल किसान और शाहीन बाग़ फ़िट नहीं होते।
किसानों ने जिस लड़ाई की शुरुआत कर दी है वह इसलिए लम्बी चल सकती है कि उसने व्यवस्था के प्रति आम आदमी के उस डर को ख़त्म कर दिया है जो पिछले कुछ वर्षों के दौरान दिलों में घर कर गया था।जनता का डर अब सरकार का डर बनता जा रहा है। लड़ाई किसानों की माँगों के दायरे से बाहर निकल कर व्यापक नागरिक अधिकारों के प्रति सरकार के अहंकारी रवैये के साथ जुड़ती जा रही है। आंदोलन का एक निर्णायक समापन किसान-विरोधी क़ानूनों का भविष्य ही नही यह भी तय करने वाला है कि नागरिकों को देश में अब कितना लोकतंत्र मिलने वाला है। लोग समझने लगे हैं कि ज़िंदा रहने के लिए केवल कोरोना की वैक्सीन ही नहीं, लोकतंत्र का टीका भी ज़रूरी है। (सप्रेस)
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