तरह-तरह के कानून-कायदों को बनाते हुए सरकारों का एक तर्क यह भी रहता है कि इससे लालफीताशाही या इंस्पेक्टर-राज काबू में आ जाएगा। तो क्या लालफीताशाही और इंस्पेक्टर-राज को लोकतंत्र की ही कमजोरी माना जा सकता है?
आम जनता, अर्थशास्त्रियों और सरकार में ये दो शब्द, इंस्पेक्टर-राज और लालफीताशाही बहुत प्रचलित हैं। हर कोई इनको गरियाता है। देश को इनसे बचाने के लिए ही हाल में भारत सरकार ने कृषि एवं श्रम कानूनों में बड़े बदलाव किये हैं, पर वास्तव में ये इंस्पेक्टर-राज क्या इंगित करता है? ऊपरी तौर पर इसका मतलब स्पष्ट है; सरकारी नियमों कायदों के आधार पर अपनी मनमानी करना। लगभग यही अर्थ लालफीताशाही का भी है। इंस्पेक्टर-राज और लालफीताशाही दोनों ही टालमटोल और फिर भ्रष्टाचार का मौका देते हैं, पर यह इनका सतही अर्थ है। वास्तव में इंस्पेक्टर-राज और लालफीताशाही का बोलबाला इंगित करता है कि लोकतंत्र कमज़ोर है; शाब्दिक है और वास्तविक नहीं है। इस निष्कर्ष को साबित करने के लिए थोडा विस्तार में जाना होगा।
किसी भी कार्यालय में, चाहे सरकारी हो या निजी, कोई भी कर्मचारी निकम्मा या भ्रष्ट हो सकता है, पर यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। इसका इलाज है कि उसके उच्च अधिकारी को शिकायत की जाए और वह उस कर्मचारी के खिलाफ कड़ी करवाई करे। ऐसा होने पर ऐसे भ्रष्ट/निकम्मे कर्मचारी अपवाद स्वरूप ही मिलेंगे। किसी नियम या कानून में बदलाव की ज़रूरत हो तो भी यही रास्ता अपनाया जा सकता है। समस्या तब होती है जब कोई एक कर्मचारी ही नहीं, ऊपर से नीचे की श्रृंखला या इसके महत्वपूर्ण अंश ही निकम्मे या भ्रष्ट होते हैं। अगर कर्मचारी/अधिकारी ही ऐसे हों तो भी समस्या का निदान हो सकता है, बशर्ते राजनैतिक नेतृत्व ठीक हो। पर ये समस्या तब बेलगाम हो जाती है जब राजनैतिक नेतृत्व ही भ्रष्ट होता है। वास्तव में, भ्रष्ट राजनैतिक व्यवस्था के चलते ही इंस्पेक्टर-राज और लालफीताशाही पनपती है। इस बाबत एक घटना का ज़िक्र करना अनुपयुक्त न होगा। कुछ साल पहले हरियाणा में विधानसभा चुनाव के कुछ दिन बाद दुकान पर चाय पीते हुए किसी को कहते हुए सुना: “मुख्यमंत्री धोरे मास्टरां की भर्ती मैं छोरे की कहण गया था, वो कहण लाग्या भर्ती तो मेरिट पै होवैगी। त मनै बी उस तै कह दी फेर अग्ली बार बोट भी मेरिट पै लिये।”
समस्या एक-आध नेता के भ्रष्ट होने की भी नहीं है, समस्या राजनैतिक व्यवस्था के ही भ्रष्ट होने की है, वरना तो मंत्री के भ्रष्ट होने की शिकायत भी मुख्य/प्रधान मंत्री या उनकी पार्टी को की जा सकती है। एक ही पार्टी में ये समस्या हो तो दूसरी पार्टी को चुना जा सकता है। भ्रष्टाचार या जातपात की राजनीति तभी फैलती हैं जब कोई एक पार्टी नहीं, बल्कि अधिकांश पार्टियां ऐसी हों। इसलिए हमारा यह निष्कर्ष सही है कि इंस्पेक्टर-राज और लालफीताशाही का वास्तविक अर्थ है, लोकतंत्र का केवल शाब्दिक या अप्रभावी होना है। दूसरी ओर, यह कैसी विडंबना है कि इंस्पेक्टर-राज और लालफीताशाही से लड़ने का दावा करने वाले अपने आपको लोकतंत्र का सच्चा समर्थक भी कहते हैं?
ऊपरी तौर पर इंस्पेक्टर-राज और लालफीताशाही का अर्थ है, सरकारी नियमों-कायदों का दुरूपयोग। इससे बचने के लिए आमतौर पर सरकार का जीवन में कम-से-कम दखल होने का विकल्प सुझाया जाता है। इस ऊपरी अर्थ को आधार बनाकर ही निजीकरण की वकालत की जाती है। अन्यथा कोई ढांचागत कारण नहीं है कि सही मायनों की लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सार्वजनिक उपक्रम उपयोगी न हों। अर्थशास्त्र की पाठ्य-पुस्तकों में आमतौर पर पूरी तरह बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था की तुलना पूरी तरह केंद्रीकृत, बाज़ार-विहीन अर्थव्यवस्था के बीच की जाती है और निष्कर्ष स्वरूप बाज़ार को बेहतर माना जाता है। परन्तु हम बाज़ार या निजी सम्पति के पूर्ण खात्मे की वकालत नहीं कर रहे, अर्थव्यवस्था में सार्वजानिक एवं निजी उपक्रमों के सह-अस्तित्व की बात कर रहे हैं। वास्तव में निजीकरण के बढ़ते प्रभामंडल के दौर में आज पूरी दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं है जो बाज़ार के नियंत्रण या नियमन का प्रयास न करता हो। भारत में ही निजीकरण के दौर में बीमा नियामक, दूर-संचार नियामक, मेडिकल शिक्षा, फीस निर्धारण हेतु प्राधिकरण इत्यादि इसके उदाहरण हैं। ऐसे प्राधिकरण किस देश में कितने प्रभावी साबित होते हैं यह इस बात पर निर्भर करता है कि वहाँ की लोकतांत्रिक व्यवस्था कितनी मज़बूत है। अगर निजीकरण के महिमामंडन के बावजूद इस तरह के सामाजिक नियंत्रण की ज़रूरत पूरी दुनिया में महसूस की जाती है तो सैद्धांतिक तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि सरकारी नियमों-कायदों का होना ही, जो आमतौर पर इंस्पेक्टर-राज और लालफीताशाही का आधार माना जाता है, गलत है। इसके साथ ही यह भी स्पष्ट है कि जो सरकार स्कूल, अस्पताल खुद अच्छे से नहीं चला सकती, वो निजी स्कूलों और अस्पतालों का नियमन क्या ख़ाक करेगी? नियमन हो या नियंत्रण, दोनों की बुनियाद लोकतंत्र है, वास्तविक अर्थों में लोकतंत्र, न कि केवल चुनावी व्यवस्था।
कमी सार्वजनिक उपक्रमों या नियम-कायदों में नहीं है, कमी उनको संचालित करने वाली सरकार/समाज की लोकतांत्रिकता में है। और लोकतांत्रिकता केवल बातों से नहीं आती, इसके लिए ठोस काम करना पड़ता है। कोरोना काल में सरकार और न्यायालयों ने इस आशय के कई निर्देश जारी किये हैं कि कोरोना काल में फीस न ली जाए या सीमित फीस ली जाए और बिना बकाया फीस का भुगतान किये स्कूल छोड़ने का प्रमाण-पत्र दे दिया जाए, परन्तु अगर स्कूलों को फीस नहीं मिलती तो वे अपने कर्मचारियों को वेतन का भुगतान कैसे करें? लोकतांत्रिकता का तकाज़ा है कि न बच्चे शिक्षा से महरूम रहें और न कर्मचारी जीवन-निर्वाह के साधनों से, फिर चाहे वे सरकारी हों या निजी। बिना काम के भी सरकारी कर्मचारियों को तो पूरा वेतन मिले और निजी क्षेत्र में नौकरी ही चली जाए, यह न टिकाऊ है और न सच्चे लोकतंत्र का परिचायक। न केवल इस आपदा काल में, अपितु हमेशा ही मिल बाँटकर खाना सीखना ही होगा। मिल बाँटकर न खाने की अवस्था का ही दूसरा नाम इंस्पेक्टर-राज और लालफीताशाही है।
दुर्भाग्य से बाज़ारवाद के कई विरोधी भी बाज़ार को एक ऐसी अनियंत्रणीय व्यवस्था के तौर पर देखते हैं जिसे किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता, कि वो इतनी सशक्त है कि सब बंधन तोड़ कर पूरी अर्थव्यवस्था पर हावी हो जायेगी। अगर लोकतंत्र वास्तविक है तो ऐसा हो नहीं सकता और अगर लोकतंत्र ही नहीं है, तो बाज़ारवाद यानि जिसकी लाठी, उसकी भैंस को कोई रोक नहीं सकता। (सप्रेस)
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