यह जरूर है कि अंदरूनी मामलों में दखल न होने के सिद्धांत और मानवाधिकारों की वकालत में कई बार टकराव देखा जाता है। एक तरफ अमेरिका मानवाधिकारों के नाम पर दूसरे देशों में अपने भौतिक दखल को न्यायोचित ठहराता रहा है, तो दूसरी तरफ प्रभुसत्ता के नाम पर तानाशाहियां अपने नागरिकों पर कहर ढाती रही हैं। इसलिए यह सिद्धांत तब तक विसंगतियों के साथ रहेगा, जब तक कि विश्व शांति व विश्व लोकतंत्र सही अर्थों में विश्व शक्ति नहीं बन जाते।
जब विदेशी नागरिकों के भारत के अंदरूनी मामले पर बोलने के बारे में चर्चा गरम है, तब थोड़ा रुक कर यह विचार करने में कोई हर्ज नहीं है कि आखिर बाहरी दखल क्या बला है। क्या हर राय या टिप्पणी बाहरी दखल है। इस बारे में क्या कोई अंतर्राष्ट्रीय उसूल और आदर्श हैं?
सबसे पहले इस सवाल पर विचार करें कि किसी भारतीय नागरिक को किसी दूसरे देश के अंदरूनी मामलों में बोलने का अधिकार है या नहीं। क्या सिर्फ सरकार ही बोल सकती है?
आप भारत में चाहे किसी भी दल से हों, सेलिब्रिटी हों या आम इंसान, आप कभी भी पाकिस्तान के घरेलू मामले पर अपनी राय खुल कर रख सकते हैं। यही आप चीन के साथ कर सकते हैं। हाल ही में कोरोना के मामले को दबाने और एक डॉक्टर को जेल भेजने के लिए मीडिया व सोशल मीडिया में चीन की आलोचना हुई थी। आप तसलीमा नसरीन के हवाले से बांग्लादेश की आलोचना कर सकते हैं। आप में से बहुत से अफगानिस्तान की तालिबानी मुहिम की आलोचना कर ही चुके हैं। आप पश्चिम के रहन-सहन से पर्यावरण को हो रहे नुकसान पर बोल सकते हैं। विकीलीक्स जैसे मामलों पर किसी भी देश की सरकार के खिलाफ बोल सकते हैं।
आप अमेरिका या दक्षिण अफ्रीका के नस्लवाद की कड़ी निंदा कर सकते हैं। टर्की में बढ़ रही सांप्रदायिकता और कट्टरता को आड़े हाथों ले सकते हैं। इसे लेकर बैठक, धरना कर सकते हैं। निंदा प्रस्तावों पर हस्ताक्षर करवा सकते हैं। ऐसा करने पर किसी भी दूसरे मुल्क की कोई सरकार आपके खिलाफ कोई मुकदमा नहीं बना सकती। अगर बनाती है तो इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हास्यास्पद माना जाएगा। तब भारत में उस देश की बदनामी ही होगी कि वहां अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान नहीं है। कहा जाएगा कि वहां व्यक्तियों के तौर पर दी गई राय पर भी हाय तौबा ऐसे मचाया जाता है, जैसे वे किसी राजकीय स्तर पर व्यक्त किए गए हों। सवाल किया जाएगा कि क्या ऐसे देश में भारत के मुकाबले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का विमर्श व भावना विकसित नहीं हो पाई है।
थोड़ा पिछले दशकों में चलें। भारत के लोग नाजी जर्मनी की आलोचना कर सकते थे। अमेरिका के भोगविलास की निंदा कर सकते थे। पूँजीवाद की भी। बर्लिन दीवार गिरने का स्वागत कर सकते थे। भारत के कुछ लोग या दल रूस के क्रेमलिन से लेनिन की मूर्ति उठाए जाने पर खुशी जता सकते थे। नेल्सन मंडेला या अमेरिका के वियतनाम युद्ध के विरोध में प्रचार कर सकते थे। अगर बोलने का इतना अधिकार तक नहीं होता तो एक तो पत्रकारिता बैठ जाती। संपादकीयों और लेखों में दूसरे देशों के अंदरूनी मामलों की आलोचना नहीं हो पाती। दूसरा विश्वविद्यालयों के शोध और सेमिनार ठीक से नहीं हो पाते। तीसरा मानवाधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय घोषणापत्र में व्यक्त और भारतीय संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति के अधिकार का कोई अर्थ नहीं बचता। भारत किसी एक तरह के विचारों की खुली जेल बन जाता।
लेकिन अब दूसरा सवाल यह पैदा होता है कि क्या भारतीयों की तरह ही दूसरे देशों के नागरिकों व सेलिब्रिटीज को भी ये अधिकार मिले हुए हैं? दुनिया के नक्शे पर एक सरसरी नजर दौड़ाने पर पता चलता है कि ये अधिकार तमाम देशों में तब तक मिले रहते हैं, जब तक कि उन देशों का ‘अंदरूनी मामला’ ही लोकतंत्र से दूर नहीं जाने लगता। पिछले दिनों टर्की, फिलीपींस, चीन आदि में यह हुआ कि देश के भीतर ही विरोध करने वालों पर आरोप लगाए गए कि वे विदेशी ताकतों और निहित स्वार्थों का मोहरा बन रहे हैं। जब कोई सरकार खुद को ही देश समझने लगती है तो फिर वह नागरिकों को गुमराह मानने के लिए बाध्य हो जाती है।
दुनिया भर में बाहरी हस्तक्षेप का मसला उठाया तो जाता रहा है, मगर कम से कम व्यक्तियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संदर्भ में नहीं। आम तौर पर इसे संयुक्त राष्ट्र के निर्णयों या विदेशी सरकारों के निर्णयों या शारीरिक हस्तक्षेपों के संदर्भ में उठाया जाता है। व्यक्तियों की अभिव्यक्ति के संदर्भ में इसके न उठाए जाने की एक वजह यह है कि दुनिया के ज्यादातर लोकतांत्रिक देशों ने मानवाधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय घोषणापत्र पर दस्तखत किए हैं और वे संयुक्त राष्ट्र के बहुत से चार्टर, कन्वेंशन को स्वीकार करते हैं।
गौरतलब है कि ये अंतर्राष्ट्रीय नियम और नीति निर्देशक तत्व किसी देश की प्रभुसत्ता को कमजोर नहीं करते। इसकी एक वजह यह है कि संप्रभुता का सिद्धांत स्वयं जिस उदारवादी राजनीतिक दर्शन का हिस्सा है, उसी से मानवाधिकारों का विमर्श निकला है। अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार यह सीमा नहीं बांधता कि किसी संप्रभु देश का नागरिक सिर्फ अपने देश के मामलों पर राय व्यक्त कर सकता है। प्रभुसत्ता का सिद्धांत अपने आप सर्वदेशीयता या विश्वबंधुत्व या कॉजमॅपॉलिटॅनिज्म के सिद्धांत को खारिज नहीं करता। जैसा कि फेसबुक पर कुछ टिप्पणियों में कहा गया है प्रभुसत्ता और वसुधैव कुटुंबकम् में बैर नहीं है।
जब कोई देश कहता है कि फलाना मुद्दा उसका अंदरूनी मामला है तो उसका अर्थ यह होता है कि उसके अंदरूनी मामले में न्यायिक या राजनीतिक निर्णय लेने का अंतिम अधिकार उस देश का है। कोई बाहरी देश या अंतर्राष्ट्रीय शक्ति उसके एवज में निर्णय नहीं ले सकती, जब तक कि वह खुद उसके लिए तैयार न हो। दुनिया के सारे लोकतंत्र संप्रभुता या प्रभुसत्ता के इस विचार को मानते हैं।
प्रभुसत्ता के भी दो आयाम होते हैं। आंतरिक आयाम किसी देश के घरेलू मामलों के कानूनों, उसूलों से जुड़ा होता है और बाहरी आयाम उस देश के दूसरे देशों और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और उसूलों के साथ रिश्ते से जुड़ा होता है। यही आयाम संयुक्त राष्ट्र और तमाम अंतर्राष्ट्रीय संधियों, समझौतों और कानूनों का आधार होता है। बाहरी प्रभुसत्ता का आंतरिक प्रभुसत्ता के साथ संबंध नागरिकों की सामान्य इच्छाशक्ति या जनरल विल के जरिए जुड़ा होता है, जिसे एक स्वस्थ लोकतंत्र हमेशा सुनिश्चित करता है।
यहां यह याद रखना चाहिए कि लोकतंत्र के पहले प्रभुसत्ता राजा में निहित होती थी। मगर लोकतंत्र में यह किसी राष्ट्राध्यक्ष या सरकार में नहीं बल्कि संवैधानिक राज्य में निहित होती है। सरकार मान्य प्रक्रियाओं के तहत ही प्रभुसत्ता को अमल में लाती है। इस तरह सत्ता और प्रभुसत्ता में बड़ा फर्क है। हालांकि दुनिया भर में अब यह रुझान देखा जा रहा है कि दुनिया के आर्थिक चौधरियों या कॉर्पोरेट के दबाव में बहुत से देशों की सत्ताएं यानी सरकारें स्वयं अपनी प्रभुसत्ता को कमजोर करने का माध्यम बन जाती हैं। वे सत्ता और प्रभुसत्ता में फर्क खत्म करने में लग जाती हैं। और जनता की आवाज को दबाने के लिए प्रभुसत्ता का जाप भी करती हैं। जबकि प्रभुसत्ता का सीधा अर्थ यही है कि किसी देश के नागरिक ही उसके भविष्य को तय कर सकते हैं। नागरिक ही देश के असली मालिक हैं।
इस सारे विश्लेषण का निचोड़ यह है कि अंदरूनी मामले का क्लॉज सिर्फ वहीं तक अर्थपूर्ण होता है, जब इसे किसी देश में दूसरे देश या किसी अंतर्राष्ट्रीय संस्था जैसे संयुक्त राष्ट्र के कानूनी हस्तक्षेप से जोड़ा जाए। संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 2 (7) के अनुसार किसी देश के घरेलू अधिकार क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद को दखल नहीं देना चाहिए।
मगर याद रहे कि यहाँ दखल का आशय किसी मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र में होने वाले विचार-विमर्श, आलोचना या संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों द्वारा किसी सदस्य देश के भीतर मानवाधिकार, मानव विकास सूचकांक, लोकतंत्र या मीडिया की स्वतंत्रता की स्थिति पर की जाने वाली पड़ताल या जारी की गई रिपोर्ट से नहीं हैं। दखल का अर्थ मूल रूप से सुरक्षा बलों के दखल व एक हद तक आंतरिक कानूनों में बाध्यकारी दखल से है। यह अनुच्छेद अभिव्यक्ति के अधिकार का निषेध नहीं करता। इसीलिए कई देशों के प्रधानमंत्री हाल ही में अमेरिका के कैपिटल में हुई हिंसा की निंदा कर सके। इसके पहले रंगभेदवाद आदि की निंदा भी इसी अधिकार के बूते हुई थी।
यह जरूर है कि अंदरूनी मामलों में दखल न होने के सिद्धांत और मानवाधिकारों की वकालत में कई बार टकराव देखा जाता है। एक तरफ अमेरिका मानवाधिकारों के नाम पर दूसरे देशों में अपने भौतिक दखल को न्यायोचित ठहराता रहा है, तो दूसरी तरफ प्रभुसत्ता के नाम पर तानाशाहियां अपने नागरिकों पर कहर ढाती रही हैं। इसलिए यह सिद्धांत तब तक विसंगतियों के साथ रहेगा, जब तक कि विश्व शांति व विश्व लोकतंत्र सही अर्थों में विश्व शक्ति नहीं बन जाते।
कोई राष्ट्राध्यक्ष बयान दे तो राजनयिक सरोकार जरूर खड़े होते हैं। तब कोई देश चाहे तो किसी दूसरे देश की सरकार को कह सकता है कि उसे दूसरे देश की सलाह की जरूरत नहीं है। जैसा कि भारत ने कनाडा के प्रधानमंत्री से कहा। मगर यही दूसरे देश के पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, सेलिब्रिटीज और व्यक्तियों को नहीं कहा जाना चाहिए। लोकतांत्रिक सभ्यता का तकाजा तो यही है। (सप्रेस)
[block rendering halted]