10 दिसंबर : मानवाधिकार दिवस

दीपक बुंदेले

बीते दौर में देश भर में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर भी हमले व मुकदमों में तेज़ी से बढ़त हुई है। छात्रों समेत किसान, मज़दूर व अन्य शोषित वर्ग द्वारा अपने अधिकारों की आवाज़ बुलंद करने पर उन्हें गम्भीर अपराध में फंसाया जा रहा है। आज हम सब को मिल कर 2 मिनीट का मौन रख कर मानवाधिकार को श्रद्धांजलि अर्पित करनी चाहिए।

आज मानवाधिकार दिवस है और आज ही के दिन तमाम सरकार मानवाधिकार के संरक्षण के लिए  वायदे और भरोसा दिलाती है। भरोसा हर साल दिलाया जाता है लेकिन फिर भी मानवाधिकार संरक्षण में भारत पिछड़ते ही जा रहा है और अमानवीय होने के नए कीर्तिमान स्थापित कर रहा है। भारत का अमानवीय होना अब वैश्विक पटल पर भी अपना स्थान दर्ज करवा चुका है।

मानवाधिकार के संरक्षण का  टेस्ट भारत जैसे जाति, वर्ग, लिंग भेद वाले समाज में इस भेद के आधार पर प्रताड़ित वर्ग के सदस्यों के अधिकारों  और राज्य के दायित्व के आधार पर आसानी से की जा सकती है। 

भारत सरकार द्वारा न ही अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार के मूल्यों का पालन किया जा रहा है और न ही मानवाधिकार संरक्षण के लिए कोई उचित प्रयास!

अब सरकार  शांतिपूर्ण असहमति को दबाने के लिए राजद्रोह और उग्रवाद निरोधी कठोर कानूनों का इस्तेमाल करने लगी है, जब कि मानवाधिकारों के अतिरिक्त भारत का संविधान भी अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार देता है। सरकार के कार्य और नीतियों की आलोचना करने वाले समूहों एवं संगठनों पर कठोर  कार्यवाई की जाने लगी है, जो मानवाधिकार का उल्लंघन के साथ  अमानवीय भी है।

अब राज्य ख़ास धर्म के मानने वालों को अपनी हिंसा का शिकार बना रहा है। एक लोकतांत्रिक देश में चुनी हुई सरकार के प्रतिनिधियों द्वारा धर्म विशेष पर टिप्पणियां करना एक समान्य घटना हो गई है, जिस पर कोई  गम्भीर सवाल खड़े नहीं होते । राज्य धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा करने में भी विफल रहा है। ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि राज्य ने धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग के विरुद्ध नफ़रत फैलायी।  

वहीं उत्तरपूर्वी राज्य असम में सरकार ने राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर प्रकाशित किया, जिसमें अरसे से भारत में रह रहे लोग ही भारत में ग़ैर हो गए! लगभग बीस लाख लोग इस नागरिकता सूची से बाहर हैं, जिनमें अनेक मुस्लिम और हिन्दू भी हैं। सूची से बाहर रह गए लोगों में कई तो ऐसे हैं जो वर्षों से भारत में रह रहे हैं या फिर अपनी पूरी जिंदगी  यहीं गुजारी है। सरकार का रवैय्या हिन्दू और मुसलमान के लिये अलग रहा और दुनिया में सरकार को फ़िरकापरस्ती के लिये आलोचनाओं का सामना करना पड़ा।

सरकार के बनवाये जा रहे डिटेंशन कैम्प भी अमानवीयता की पराकाष्ठा है और जिस की तुलना हिटलर के दौर से की जा रही है। बीते वक़्त में एक आम शहरी को उसे अपनी पहचान साबित करने के लिए परेशान रहा और और तनाव झेल रहा है।

कोरोना जैसी वबा में भी सरकारी तंत्र ने एक फ़िरकापरस्त मशीन के तौर पर काम किया। इनमें मीडिया और पुलीस अहम है। उच्च न्यायालय को अपने एक आदेश में टिप्पणी करनी पड़ी कि मुसलमानों को “बलि का बकरा” बनाया गया। यहां तक ऐसे भी मामले प्रकाश में आये जहां पुलिस मुसलमान होने की वजह से आम शहरियों को निशाना बना रही थी।

वहीं बीते दौर में देश भर में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर भी हमले व मुकदमों में तेज़ी से बढ़त हुई है। छात्रों  समेत किसान, मज़दूर व अन्य शोषित वर्ग द्वारा अपने अधिकारों की आवाज़ बुलंद करने पर उन्हें गम्भीर अपराध में फंसाया जा रहा है। आज हम सब को मिल कर 2 मिनीट का मौन रख कर मानवाधिकार को श्रद्धांजलि  अर्पित करनी चाहिए।

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