तीन साल पहले एकरूपता की खातिर लगाए गए ‘जीएसटी’ ने तमाम छोटे-बडे व्यापारियों, आम खरीददारों और सरकारी अमले में से किसी को संतुष्ट नहीं किया है। आखिर क्या है, ‘जीएसटी’ का तिलिस्म? प्रस्तुत है, इस विषय की विस्तृत पड़ताल करता राहुल बनर्जी का यह तीन हिस्सों वाला लंबा लेख।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में वस्तुओं एवं सेवाओं के विक्रय पर कर वसूलना एक गंभीर समस्या है। इन करों की वजह से महंगाई बढ़ती है और बाज़ार व्यवस्था में विकृतियाँ आती हैं। ‘मुक्त बाज़ार’ आधारित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में पूंजीवादियों के येन-केन-प्रकारेण मुनाफा कमाने की होड़ के कारण बीच-बीच में संकट पैदा हो जाता है। इसे धराशायी होने से बचाने के लिए सरकार द्वारा बाज़ार व्यवस्था को नियंत्रित करना पड़ता है। साथ ही अर्थव्यवस्था में मांग को बरकरार रखने के लिए सरकार को अधोसंरचना के विकास एवं सेना पर निवेश करना होता है। इसके अलावा चूंकि पूंजीपति जनता की आर्थिक एवं सामाजिक सुरक्षा के लिए कुछ नहीं करते इसलिए सरकार को विभिन्न आर्थिक और सामाजिक सेवाएँ प्रदान करना होती हैं। इस सब के लिए करों से ही सरकारें धन जुटाती हैं एवं इसके लिए एक भारी भरकम नौकरशाही भी होती है।
कर दो प्रकार के होते है – ‘प्रत्यक्ष’ और ‘अप्रत्यक्ष।‘ व्यक्तियों और व्यापारिक संस्थानों की आय पर जो कर वसूला जाता है उसे ‘प्रत्यक्ष-कर’ कहा जाता है, जबकि देश के अंदर उत्पादित व विदेश से आयातित वस्तुओं एवं सेवाओं पर लगाए गए कर को ‘अप्रत्यक्ष-कर’ कहा जाता है। आम तौर पर ‘प्रत्यक्ष-करों’ को प्रगतिशील कहा जाता है, क्योंकि इनका बोझ अधिक आय वालों पर आनुपातिक रूप से अधिक होता है। इसमें अधिक आय वालों को अपनी आय का अधिक प्रतिशत कर देना होता है। ‘अप्रत्यक्ष-करों’ को सभी व्यक्तियों को समान दरों पर देना पड़ता है। जब वे कोई वस्तु या सेवा खरीदते हैं, भले ही वे अमीर हों या गरीब, उन्हें अपनी आय का एक हिस्सा ‘अप्रत्यक्ष-करों’ के रूप में देना पड़ता है। इसमें गरीबों को अमीरों की तुलना में आनुपातिक रूप से अधिक कर देना पड़ता है और इसलिए इन्हें अप्रगतिशील कहा जाता है। ‘अप्रत्यक्ष-करों’ के कारण महंगाई बढ़ती है व बाज़ार में विकृतियाँ आती है, इसलिए भी इन्हे ‘प्रत्यक्ष-करों’ की तुलना में अवांछनीय माना जाता है। केवल ‘प्रत्यक्ष-करों’ से सरकार द्वारा पर्याप्त धन नहीं जुटाया जा सकता, विशेषकर भारत जैसे विकासशील देशों में जहां कई कारणों से ‘प्रत्यक्ष-कर’ देने वालों की संख्या कम है, इसलिए ‘अप्रत्यक्ष-करों’ को भी लगाना पड़ता है।
स्वतन्त्रता के बाद से जैसे-जैसे वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में वृद्धि हुई, वैसे-वैसे ‘अप्रत्यक्ष-करों’ का ढांचा और जटिल होता गया। अलग-अलग वस्तुओं और सेवाओं के लिए अलग-अलग कर लगाए गए हैं एवम उन पर कभी छूट दी गई है तो कभी अधिभार भी लगाए गए हैं। भारत में स्थितियाँ और पेचीदा इसलिए हो गई हैं क्योंकि यहाँ एक संघीय राजनीतिक ढांचा है जिसमें केंद्र एवं राज्य सरकारों को अपने-अपने कर लगाने के स्वतंत्र अधिकार हैं। ‘अप्रत्यक्ष-करों’ का ढांचा अत्यंत जटिल होने से इनकी वसूली बड़ी समस्या हो गई एवं बड़े पैमाने पर करों की चोरी होने लगी। ‘अप्रत्यक्ष-करों’ की चोरी के कारण व्यापारिक संस्थानों द्वारा अपनी आय को कम बताकर ‘प्रत्यक्ष-करों’ की चोरी भी की जाने लगी। फलस्वरूप गत दो दशकों से ‘अप्रत्यक्ष-करों’ का ढांचा सरल एवं व्यापक बनाने के कई प्रयास किए गए हैं एवं सन 2017 में ‘जीएसटी’ का लागू होना इस क्रम में ताज़ातरीन कदम था।
‘अप्रत्यक्ष-करों’ की बुनियादी शर्त है कि चाहे वस्तुओं और सेवाओं के कितने ही प्रकार क्यों न हों, इसकी केवल एक या अधिकतम दो दर होनी चाहिए। यह इसलिए कि जैसे ही अधिक दरें होंगी, वैसे ही इन करों की वसूली पेचीदा हो जाएगी एवं कौन सी वस्तु या सेवा पर कितना कर लगेगा इसको लेकर राजनीतिक खींचातानी एवं कानूनी लड़ाई चलने लगेगी। इससे करों का प्रबंधन कठिन व महंगा हो जाता है एवं भ्रष्टाचार के लिए रास्ता प्रशस्त हो जाता है। अगर किसी समुदाय को कोई विशेष रियायत पहुंचाना है तो यह ‘अप्रत्यक्ष-करों’ में विविधता लाकर या छूट देकर करने की बजाय, उस समुदाय को अनुदान देकर या उसके द्वारा अदा किए जाने वाले आयकर को वापस लौटाकर किया जाना चाहिए।
अगर किसी वस्तु या सेवा को हतोत्साहित करना हो, जैसे कि तंबाकू उत्पाद, तो इसके लिए उस उत्पाद को बनाने वाली कंपनियों की आय पर अधिक आयकर लगाकर यह काम किया जा सकता है बजाय इसके कि उस पर अधिक ‘अप्रत्यक्ष-कर’ लगाए जायें। इस प्रकार रियायत या हतोत्साहन एवं उससे जुड़ी राजनीति, अनुदान एवं ‘प्रत्यक्ष-कर’ से संबन्धित हो जाएंगे और ‘अप्रत्यक्ष-कर’ बिलकुल सरल एवं राजनीति विहीन होंगे। साथ ही वर्तमान में ‘अप्रत्यक्ष-करों’ को लेकर चल रहे कानूनी विवाद भी खत्म हो जाएंगे व इन करों के कारण बाज़ार व्ययस्था में हो रही विकृतियां भी दूर हो जाएगी।
जाहिर है, इसमें ‘अप्रत्यक्ष-करों’ को वसूलने के लिए भारी-भरकम नौकरशाही की ज़रूरत नहीं होगी एवं इसे ‘प्रत्यक्ष-करों’ की वसूली में लगाया जा सकता है। एक बार ‘अप्रत्यक्ष-कर’ का ढांचा एक ही दर पर होगा तो इसे सर्वव्यापी कर सभी लेन-देन पर लागू किया जा सकता है, भले ही यह कितना भी छोटा क्यों न हो। सभी व्यापारियों एवं व्यक्तियों के पूरे कारोबार घोषित होने से उनके द्वारा देय ‘प्रत्यक्ष-कर’ भी पूरा-का-पूरा सामने आ जाएगा। इस प्रकार न केवल ‘अप्रत्यक्ष-करों’ की वसूली बढ़ेगी, बल्कि ‘प्रत्यक्ष-करों’ की वसूली भी बढ़ जाएगी। इस सरल और सर्वव्यापी ‘जीएसटी’ प्रणाली से बेशक अर्थव्यवस्था को काफी फायदा होगा क्योंकि तब पूरे देश में केवल एक ही ‘अप्रत्यक्ष-कर’ होगा एवं कर चोरी पूरी तरह से बंद हो जाएगी। पर इसके लिए जरूरी है कि तमाम वस्तुओं एवं सेवाओं के लिए ‘जीएसटी’ की केवल एक ही दर होना चाहिए।
भारत में समस्या यह है कि यहाँ न केवल अनेकों प्रकार के ‘अप्रत्यक्ष-कर’ हैं, बल्कि सभी करों की अनेक दरें भी हैं जिन पर अनेक प्रकार की छूट व अधिभार हैं। इसके अलावा राजनीतिक ढांचा संघीय होने के कारण केंद्र एवं राज्य सरकारों को स्वतंत्र रूप से कर लगाने का अधिकार है। केंद्र की तुलना में राज्य सरकारों के पास कर वसूलने की शक्तियाँ कम है एवं इसलिए वे हर वक्त वित्तीय संसाधनों की कमी से जूझती रहती हैं। वर्तमान में सभी राज्य सरकारें भारी भरकम कर्ज के बोझ के तले डूबी हुई हैं व बुरी तरह से केंद्र सरकार से प्राप्त अनुदानों पर निर्भर हैं जो बहुत देर से प्राप्त होते हैं। और-तो-और ‘जीएसटी’ में हो रहे घाटे की क्षतिपूर्ति के लिए भी अब राज्यों को ऋण लेना पड़ रहा है।
जीएसटी’ की भद्द क्यों पिटी?
एक जुलाई 2017 से भारत में ‘वस्तु एवं सेवा कर,’ जिसे अंग्रेजी में उसके नाम, Goods and Services Tax का संक्षिप्त रूप ‘जीएसटी’ कहा जाता है, लागू हो गया था। इसे लागू करते समय केंद्र सरकार का दावा था कि इससे करों की वसूली काफी सरल हो जाएगी एवं देश की अर्थव्यवस्था एक सूत्र में बंधने के कारण उसको गति मिलने के साथ-साथ महंगाई एवं काले धन पर भी अंकुश लगेगा। इसलिए इस नई कर-प्रणाली के बारे में एक नारा दिया गया था– “एक राष्ट्र, एक कर, एक बाज़ार।” परंतु हकीकत में ऐसा नहीं हुआ, बल्कि वर्तमान में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच ‘जीएसटी’ को लेकर काफी विवाद चल रहा है। अब यह जांचना आवश्यक है कि ‘जीएसटी’ की भद्द क्यों पिटी?
राज्य सरकारें करीब एक दशक से ‘जीएसटी’ का विरोध करती आ रही थीं, क्योंकि वे अपने कर वसूलने के अधिकार में कमी नहीं करना चाहती थीं और न ही वे केंद्र के अनुदानों और कर्ज पर और अधिक निर्भर होना चाहती थीं। फलस्वरूप जब ‘जीएसटी’ लागू किया गया तब राज्यों के लिए खनिज तेल के उत्पाद, भूमि एवं शराब की बिक्री जैसी सबसे अधिक संसाधन जुटाने वाली वस्तुओं को ‘जीएसटी’ से बाहर रखा गया। इन पर अभी भी राज्यों द्वारा अपने हिसाब से कर लगाया जाता है। इसके अलावा अलग-अलग वस्तु एवं सेवाओं को अलग-अलग वर्गों में रखकर उन पर चार अलग-अलग दरों पर कर लगाया गया है – 5, 12, 18, 28 प्रतिशत की दर से। इसके अलावा सोना और चांदी पर 3 प्रतिशत की दर से कर लगाया गया है एवं कुछ वस्तुओं, जैसे– खाद्यान्न को करों से पूर्ण रूप से छूट दी गई है। इनके ऊपर से कई प्रकार के अधिभार भी लगाए गए है एवं एक ही वर्ग की वस्तुओं और सेवाओं पर, उनकी कीमत या प्रकार के आधार पर अलग-अलग दर के कर लगाए गए हैं। ‘जीएसटी’ पहले की ‘अप्रत्यक्ष-कर’ व्यवस्था की तुलना में बेहतर ज़रूर है, परंतु यह अभी भी सरल नहीं है और न ही यह कर चोरी को रोकने में सफल हो पाया है। इसलिए “एक राष्ट्र एक कर एवं एक बाज़ार” का नारा हकीकत में तब्दील नहीं हो पाया है।
अलग-अलग वस्तुओं और सेवाओं पर करों की अलग-अलग दर लगाने के लिए जो प्रमुख तर्क दिया गया है वो यह है कि आम जरूरतों की वस्तुओं, जिसे गरीब लोग उपयोग करते हैं एवं अय्याशी की वस्तुओं, जिसे अमीर लोग उपयोग करते है, को एक ही दर से कैसे करारोपित किया जा सकता है। परंतु अगर गरीबों या किसी अन्य समुदाय को रियायत पहुंचाना है तो यह अनुदान से पहुंचाना चाहिए और अमीर वर्गों से अगर अधिक कर वसूलना है तो यह उन पर अधिक आयकर लगाकर करना चाहिए। ‘जीएसटी’ में अलग-अलग दर रखकर उसे और जटिल बनाने से ‘अप्रत्यक्ष’ एवं ‘प्रत्यक्ष-करों’ की वसूली और कठिन हो जाती है एवं भ्रष्टाचार और कर चोरी को बढ़ावा मिलता है। इसके अलावा करों की अलग-अलग दरें होने के कारण बाज़ार व्यवस्था में विकृतियाँ आती है और इस प्रकार अर्थव्यवस्था में कीमतें ऊंची रहती हैं।
एक दर एवं एक कर वाला ‘जीएसटी’ लागू होने में एक और अड़चन है, राज्यों की शंकाएँ। इस मसले को हल करने के लिए अब तक जो कर वसूलने के आंकड़े हैं, उनका सांख्यिकी विश्लेषण कर यह पता करना चाहिए कि केंद्र और राज्य कुल कितना कर वसूलते आए हैं। इसके बाद एक सांख्यिकी सूत्र निकाला जा सकता है कि सभी वस्तुओं एवं करों पर केवल एक ही दर से अगर कर लगाया जाये तो वर्तमान में एकत्रित किए जा रहे कुल वित्तीय संसाधन के बराबर कर वसूलने के लिए यह दर क्या होना चाहिए? एवं एकत्रित संसाधन किस अनुपात में केंद्र एवं राज्य सरकारों के बीच में आवंटित होने चाहिए?
कर वसूलने का अधिकार एक स्वतंत्र निकाय को दिया जाना चाहिए जिसके संचालन की निगरानी केंद्र एवं राज्यों के प्रतिनिधियों को मिलाकर बनी ‘जीएसटी कॉउंसिल’ (वस्तु एवं सेवा कर परिषद) द्वारा किया जाना चाहिए ताकि राज्यों की यह शिकायत दूर हो सके कि उनका कर वसूलने का अधिकार खत्म हो रहा है एवं वे केंद्र के अनुदानों पर अत्यधिक निर्भर होते जा रहे हैं। इसके अलावा यह प्रावधान भी है कि अगर किसी राज्य को ‘जीएसटी’ की वजह से हानि होती है तो उसे इसके लिए मुआवज़ा दिया जाएगा। यह प्रावधान इसलिए रखा गया है क्योंकि कुछ अधिक औद्योगिक उत्पादन करने वाले राज्यों को शंका है कि ‘जीएसटी’ पहले जैसे उत्पादक के बजाय क्रेता से वसूले जाने के कारण उनकी कर वसूली कम हो जाएगी। इसके लिए एक विशेष अधिभार वसूलने का प्रावधान है। परंतु ‘नियंत्रक, महालेखा परीक्षक’ (कैग) द्वारा केंद्र सरकार के आय-व्यय के अंकेक्षण से पाया गया है कि इस अधिभार से प्राप्त राशि को केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को देने की बजाय केंद्र सरकार की योजनाओं में लगा दिया है। इस वजह से केंद्र सरकार फिलहाल राज्य सरकारों को ‘जीएसटी’ की वसूली में आई कमी के लिए क्षतिपूरण नहीं कर पा रही है और उनसे कह रही है कि वे कर्ज़ लेकर इस घाटे को पूरा करें।
‘जीएसटी’ की एक समान दर का आंकलन करते वक्त यह ध्यान रखना चाहिए कि इसके कारण जो सरल कर प्रणाली लागू होगी उसमें कर चोरी बिलकुल बंद हो जाएगी एवं इसलिए पहले हो रही ‘प्रत्यक्ष’ एवं ‘अप्रत्यक्ष-कर’ वसूली की तुलना में बढ़ोत्तरी होगी। वर्तमान में ‘जीएसटी’ का औसत 18 प्रतिशत की बजाय सात से 10 प्रतिशत के बीच होगा जो बहुत अधिक नहीं है। यह सभी वस्तुओं एवं सेवाओं पर लगाया जा सकता है और कोई छूट देने की ज़रूरत नहीं है।
‘जीएसटी’ व्यवस्था आदर्श रूप से कैसे चलनी चाहिए? क्योंकि जीएसटी में अधिभार एवं छूट को लेकर करीब 8 अलग-अलग दरें हैं इसलिए इनकी वसूली के लिए एक जटिल व्यवस्था खड़ी की गई है जो कम्प्युटर एवं इंटरनेट आधारित है और जिसे ‘गुड्स एण्ड सर्विसेस टैक्स नेटवर्क’ (जीएसटीएन) कहा जाता है। इसका मूल मंत्र यह है कि सभी लेन-देन के बिल के विवरण ‘जीएसटीएन’ में अनिवार्य रूप से अपलोड करना होगा, ताकि कोई भी लेन-देन कर रहित न हो। कर वसूलने एवं उसके अभिलेख रखने की ज़िम्मेदारी अभी व्यापारियों पर आ गई है। अगर वे ऐसा नहीं करेंगे तो उन्हें, उनके द्वारा खरीदी किए जाने के समय चुकाए गए कर के लिए मान्यता नहीं मिलेगी जिसे ‘इनपुट टैक्स क्रेडिट’ (आईटीसी) कहा गया है। सभी व्यापारियों को इस ‘जीएसटीएन’ में अपने आप को पंजीकृत करना होगा एवं उन्हें एक पंजीयन क्रमांक प्राप्त करना होगा।
शुरुआत के लिए हम मान लेते हैं कि निर्माता ने खरीदी गयी वस्तु व सेवाओं पर ‘जीएसटी’ चुकाया है एवं यह उत्पाद की तय की गई 100 रुपये की कीमत में शामिल है। इस पर वह पांच प्रतिशत ‘जीएसटी’ लगाकर उत्पाद को थोक विक्रेता को 105 रुपये में बेचता है। इसके बाद थोक विक्रेता उस उत्पाद की कीमत 120 रुपये तय करता है एवं उस पर पांच प्रतिशत की दर से कर लगाकर उसे 126 रुपये में खुदरा विक्रेता को बेचता है। क्योंकि वह निर्माता से खरीदते वक्त पांच रुपये कर दे चुका है इसलिए वह इस राशि को ITC के रूप में लेता है एवं केवल एक रुपये अतिरिक्त कर अदा करता है। खुदरा विक्रेता उत्पाद की कीमत 160 रुपये तय करता है एवं उस पर पांच प्रतिशत की दर से 8 रुपये कर लगाकर उसे ग्राहक को 168 रुपये में बेचता है। क्योंकि उसने छह रुपये कर थोक विक्रेता को दे चुका है इसलिए वह इसका ITC लेता है और केवल दो रुपये अतिरिक्त कर अदा करता है। ग्राहक आखिरकार पूरा कर अदा करता है। इस प्रकार न केवल सभी लोग कर अदा करते हैं, बल्कि यह कर केवल एक बार ही अदा किया जाता है एवं एक ही वस्तु पर बार-बार पूरा कर नहीं लगता। सभी लेन-देन पर कर चुकाया जाकर उसका अभिलेख तैयार हो जाता है जिसे ‘जीएसटीएन’ में अपलोड किया जाता है एवं कर भी समय पर जमा हो जाता है। क्योंकि सभी लेन-देन का अभिलेख दर्ज होता है, इसलिए विक्रेता और क्रेता द्वारा ‘जीएसटीएन’ में अपलोड की गई जानकारी का मिलान हो जाता है और अगर इसमें कोई फर्क हो तो उसे सुधारा जा सकता है।
जीएसटी : क्रियान्वयन में कई समस्याएं
हालांकि सिद्धान्त के रूप में यह बहुत अच्छा है पर हकीकत में इसके क्रियान्वयन में कई समस्यायें उभरकर आई है जो निम्न प्रकार है –
1. सभी वस्तुओं को सांकेतिक क्रमांक दिये गए हैं जिन्हें उनके अंग्रेजी नाम के संक्षिप्त रूप में ‘एचएसएन’ कहा जाता है। सभी सेवाओं को भी इस प्रकार सांकेतिक क्रमांक दिये गए है जिन्हें उनके अंग्रेजी नाम के संक्षिप्त रूप में ‘एसएसी’ कहा जाता है। जब कोई व्यापारी किसी अन्य व्यापारी को वस्तु या सेवा बेचता है तो उसे बिल में उसका खुद का जीएसटी क्रमांक क्रेता के जीएसटी क्रमांक एवं ‘एचएसएन’ या ‘एसएसी’ क्रमांक दर्ज करना होगा। यह हर अलग वस्तु और सेवा के लिए करना होगा एवं यह लिखना होगा कि कितनी कीमत ली गई है और कितना कर लिया गया है। बाद में यह सभी विवरण एकत्रित कर महीने के अंत में ‘जीएसटीएन’ में अपलोड करना होगा। यह सारी जानकारी अंग्रेजी में निर्धारित प्रारूप में भरना होगी। चूंकि यह एक पेचीदा काम है, इसलिए इसके लिए जो सॉफ्टवेयर बना है वो भी बहुत पेचीदा है। तीन साल बीत जाने के बाद भी यह सॉफ्टवेयर सही ढंग से बना नहीं है एवं व्यापारियों द्वारा सारे कारोबार का विवरण सही तरीके से ‘जीएसटीएन’ पर अपलोड भी नहीं हो रहे है। नतीजे में विक्रेता एवं क्रेता के आपसी कारोबार की जानकारी का मिलान ठीक से नहीं हो पा रहा है और न ही ‘आईटीसी’ का आंकलन ठीक से हो पा रहा है।
2. भारत में अधिकतर कारोबार उधारी पर चलता है एवं व्यापारियों को भुगतान देर से मिलता है। सब से अधिक देरी सरकारी उपक्रम करते हैं। परंतु एक बार बिल बन जाने के बाद किसी व्यापारी को उस बिल में दर्शाये गए कर को सरकार को चुकाना होगा, भले ही उसे क्रेता ने भुगतान नहीं किया हो। इससे भी व्यापारी के लिए खर्चे बढ़ेंगे, क्योंकि कर अदा करने के लिए उसे और अधिक पूंजी की व्यवस्था करनी पढ़ेगी।
3. क्योंकि ‘जीएसटी’ के विवरण अपलोड करना एक कठिन व खर्चीला काम है इसलिए 20 लाख रुपये से कम वार्षिक कारोबार वाले व्यापारियों को ‘जीएसटी’ के दायरे से बाहर रखा गया है एवं 1.5 करोड़ रुपये तक वार्षिक कारोबार करने वालों को केवल उनके द्वारा घोषित कारोबार पर एक प्रतिशत कर चुकाना पड़ता है एवं उन्हें कारोबार का विस्तृत विवरण ‘जीएसटीएन’ पर अपलोड नहीं करना होता है। इस प्रकार बहुत सारे कारोबार का विवरण ‘जीएसटी’ के दायरे में नहीं आता है एवं उसके चलते कर चोरी का रास्ता बना रहता है।
4. ‘आईटीसी’ तब ही क्रेता को मिल पाएगा जब विक्रेता सही-सही लेन-देन का विवरण ‘जीएसटीएन’ पर अपलोड करेगा और उसका कर सरकार को चुकाएगा। क्योंकि यह ठीक से नहीं हो रहा है, इसलिए कई बार गलत विवरण अपलोड होता है या बिलकुल भी अपलोड नहीं होता है। इसके कारण एक तरफ करों की चोरी हो रही है और दूसरी तरफ व्यापारी फर्जी ‘आईटीसी’ निकालने की कोशिश करते रहते हैं। फलस्वरूप ‘जीएसटी’ की वसूली ठीक से नहीं हो पा रही है।
5. भारत में अब तक गलत बिल बनाने की परंपरा रही है। कर चोरी हेतु एवं इसके साथ ही वस्तुओं के परिवहन में भी बहुत हेराफेरी होती रही है। बिल में बताया कुछ जाता है और परिवहन द्वारा भेजा कुछ और जाता है। इसको रोकने के लिए ‘जीएसटी’ में ‘ई-वे-बिल’ का प्रावधान किया गया है जिसके तहत किसी भी वस्तु के परिवहन के पहले उसके बिल के विवरण एवं गंतव्य आदि ‘ई-वे-बिल’ के रूप में तैयार करना होता है। यह ‘ई-वे-बिल’ एक निश्चित अवधि के लिए वैध होता है। यह भी एक पेचीदा प्रावधान है जो आज तक ठीक ढंग से लागू नहीं हो पाया है। कुल मिलाकर ‘जीएसटी’ की वसूली में भारी कमी हो रही है और भ्रष्टाचार और काले धन का बोल-बाला है।
अगर एक ही ‘जीएसटी’ दर होता तो ये सब समस्याएँ खत्म हो जातीं। सभी वस्तुओं और सेवाओं के लिए एक दर होने से उनका वर्गीकरण करने की कोई ज़रूरत न होती और न ही विस्तारित विवरण कम्प्यूटर द्वारा अपलोड करना होता। केवल सादे फ़ोन या ‘एसएमएस’ से ‘जीएसटीएन’ में विक्रेता और क्रेता के क्रमांक एवं लेन-देन की राशि भेजी जा सकती थी। सभी व्यापारियों और कारोबार को दर्ज किया जा सकता था, चाहे वो छोटे से सब्जी ठेला क्यों न चला रहे हों। और-तो-और लेन-देन का भुगतान भी मोबाइल फोन से किया जा सकता था एवं उसी समय उस लेन-देन पर लगाए गए कर का भी भुगतान सरकार को हो जाता। एक अति सरल और पूर्ण रूप से पारदर्शी व्यवस्था कायम हो सकती थी, परंतु ऐसा नहीं किया गया है। इसलिए एक तरफ करों की चोरी बरकरार है तो दूसरी तरफ केन्द्र सरकार और राज्यों के बीच में करों में कमी को लेकर विवाद गहरा रहा है। (सप्रेस)
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