8 मार्च महिला दिवस पर विशेष

सत्यम पाण्‍डेय

करीब ढाई दशक पहले संसद की चौखट तक पहुंच चुका ‘महिला आरक्षण विधेयक’ अब भी अधर में लटका है। देशभर की पंचायतों में एक तिहाई आरक्षण मुकर्रर करने वाली संसद और विधानसभाएं तरह-तरह के बहानों से अपने-अपने संस्थानों में आरक्षण लागू करना टाल रही हैं। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है?

हमारा लोकतंत्र आज एक कठिन चुनौती का सामना कर रहा है। देश का किसान अपने ही तंत्र के सामने तीन महीने से भी अधिक समय से सीना तानकर खड़ा है। इसमें कोई शक नहीं कि किसान आन्दोलन अब एक ऐतिहासिक महत्त्व हासिल करता जा रहा है। पक्ष और विपक्ष दोनों ही इसे एक महत्वपूर्ण अवसर के रूप में देख रहे हैं, लेकिन इस आन्दोलन में वर्गीय मांगों के अलावा सत्ता का लोकतंत्रीकरण भी एक आवश्यक आयाम है। ऐसे में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर हमें भारतीय राजनीति के एक बहुत ही जरुरी लोकतान्त्रिक सवाल, अर्थात राजनीति में महिलाओं की भागीदारी के प्रश्न पर बात करना आवश्यक है। किसानों ने विवादित कानून मांगे नहीं थे, परन्तु सरकार न केवल उन्हें लेकर आई, बल्कि उनके विरोध के बावजूद उन्हें लागू कराने की जिद भी कर रही है। इसके ठीक विपरीत महिलाओं द्वारा कई दशक से निरंतर मांगे जा रहे आरक्षण को लेकर सरकार खामोश बैठी हुई है।  

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और उन चुनिन्दा देशों में शामिल है जहाँ आजादी के बाद पहले चुनाव से ही महिलाओं को मताधिकार हासिल है। इतना ही नहीं, श्रीलंका के बाद दुनिया में दूसरा देश भारत ही था जहाँ प्रधानमंत्री के पद पर एक महिला आसीन हुई थी। अब तक देश में राष्ट्रपति से लेकर लोकसभा अध्यक्ष और अनेक राज्यों में राज्यपाल तथा मुख्यमंत्री के पदों को महिलाऐं सुशोभित कर चुकी हैं। अनेक महिलाओं ने केन्द्रीय मंत्री और संसद-विधानसभा सदस्य रहते हुए राजनीति में अपना बेहतरीन योगदान दिया है, परन्तु यहाँ हम इस बात की पड़ताल कर रहे हैं कि समाज की आधी आबादी की राजनीति में क्या भागीदारी है?

बहुत कम है संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व

वर्ष 2019 में 17वीं लोकसभा के लिए हुए चुनावों में जीतने वाली महिलाओं की संख्या अब तक की सबसे अधिक 78 रही, जो कि कुल सांसदों का मात्र 14.58 प्रतिशत है। इसकी तुलना में 2014 के लोकसभा चुनाव में 11.23 प्रतिशत महिलाएं जीती थीं। सन् 1952 के पहले आम चुनाव में लोकसभा में 22 सीटों पर महिलाएँ चुनकर आई थीं, लेकिन 2014 में हुए चुनाव के बाद लोकसभा में 62 महिलाएँ ही पहुँच सकीं, यानी 62 वर्ष में महज 36 प्रतिशत की वृद्धि। जिनेवा स्थित ‘इंटर-पार्लियामेंट्री यूनियन’ की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक इस मामले में भारत 150वें स्थान पर है, जबकि पाकिस्तान को 101वाँ स्थान मिला है। अर्थात महिलाओं के विधाई प्रतिनिधित्व के मामले में पाकिस्तान भी हमसे बेहतर हालत में है। इस रिपोर्ट में रवांडा पहले, क्यूबा दूसरे और बोलिविया तीसरे स्थान पर है। इन देशों की संसद में महिला सदस्यों की संख्या 50 प्रतिशत से ज़्यादा है। दुनिया के 50 देशों की संसद में महिलाओं की संख्या कुल सदस्यों के 30 प्रतिशत से अधिक है।

महिलाओं को राजनीति में समुचित हिस्सेदारी देने और देश के विकास में उनके योगदान को सुनिश्चित करने की पहल 1993 में संसद द्वारा 73वें एवं 74वें संविधान संशोधन से हो गई थी। पंचायतीराज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा देकर उन्हें सशक्त करने एवं महिलाओं की 33 प्रतिशत भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए ‘नवीन पंचायतीराज विधेयक’ पारित किया गया था, जिसे 1993 में संसद ने संविधान में भाग-9 जोड़कर अनुच्छेद 243-डी के तहत महिला आरक्षण की व्यवस्था की थी। आज देश की इन पंचायतीराज संस्थाओं में 13.45 लाख महिला प्रतिनिधि (कुल निर्वाचित प्रतिनिधियों में 46.14 प्रतिशत) लोकतंत्र की बुनियादी इकाई में सक्रिय रहते हुए क्षेत्रीय विकास में योगदान दे रही हैं, लेकिन जब विधानसभा और लोकसभा में भी एक तिहाई महिला आरक्षण की बात आई तो राजनीतिक दलों की करनी और कथनी का अंतर आड़े आ गया। कितने आश्चर्य की बात है कि जिस संसद ने स्थानीय निकायों में भागीदारी के लिए महिलाओं को योग्य माना, उसने अपनी सदस्यता में महिलाओं की न्यूनतम गारंटी के कानून को विगत तीन दशकों से लटका रखा है?

महिला आरक्षण विधेयक का इतिहास

महिला आरक्षण विधेयक की मांग विभिन्न दलों की महिला सांसदों के द्वारा की जा रही थी। इस समूह की अगुवाई अक्सर ‘भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी’ (सीपीआई) की वयोवृद्ध सांसद गीता मुखर्जी करती थीं। इस विधेयक को पहली बार 1996 में एचडी देवगौड़ा सरकार ने 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में संसद में पेश किया था, लेकिन देवगौड़ा सरकार अल्पमत में आ गई और 11वीं लोकसभा को भंग कर दिया गया। सन् 1996 में यह विधेयक भारी विरोध के बीच ‘संयुक्त संसदीय समिति’ के हवाले कर दिया गया था। सन् 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लोकसभा में फिर से विधेयक पेश किया, लेकिन गठबंधन की मजबूरियों और भारी विरोध के बीच यह रद्द हो गया। सन् 1999, 2002 तथा 2003 में इसे फिर लाया गया, लेकिन नतीजा वही ढाक-के-तीन-पात रहा। वर्ष 2008 में मनमोहन सिंह सरकार ने लोकसभा और विधानसभाओं में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण से जुड़ा 108वाँ ‘संविधान संशोधन विधेयक’ राज्यसभा में पेश किया। इसके दो साल बाद 2010 में तमाम राजनीतिक अवरोधों को दरकिनार कर राज्यसभा में यह विधेयक पारित करा दिया गया। कॉन्ग्रेस को बीजेपी और वाम दलों के अलावा कुछ अन्य दलों का साथ मिला, लेकिन लोकसभा में 262 सीटें होने के बावजूद मनमोहन सिंह सरकार विधेयक को पारित नहीं करा पाई और एक बार फिर कानून का पिछली बार की ही तरह का हश्र हुआ।  जबरदस्त बहुमत के साथ 2014 में सत्ता में आई भाजपा सरकार ने इसे पारित कराने के कोई प्रयास नहीं किए जबकि अपने चुनावी-घोषणापत्र में उन्होंने इसका वादा भी किया था। अगर इस सरकार की राजनैतिक इच्छाशक्ति है तो दशकों का सपना मिनटों में पूरा हो सकता है। लोकसभा में सरकार के पास विशालकाय बहुमत है और राज्यसभा मनमोहन सिंह के समय ही इसे पारित कर चुकी है। चूँकि राज्यसभा एक स्थाई सदन है इसलिए यह विधेयक तकनीकि रूप से अभी भी जीवित है।

आरक्षण के अन्दर आरक्षण?

दिलचस्प है कि महिलाओं को आरक्षण के मामले में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही सहमत हैं और दोनों ही पार्टियाँ सत्ता में रहते हुए विधेयक लेकर आईं, लेकिन फिर भी कानून पारित नहीं हो पा रहा। जाहिर है, राजनैतिक इच्छाशक्ति का अभाव इसके पीछे प्रमुख कारण है। इसके अलावा एक और कारण लगता है। जब-जब संसद में इस विधेयक को प्रस्तुत किया गया, तब-तब कुछ पार्टियों, जैसे-समाजवादी पार्टी, राजद आदि ने इसका तीखा प्रतिरोध किया। इसके पीछे वे जो वजह बताते हैं उसे सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता। उनका कहना है कि यदि महिलाओं के लिए सीटों को आरक्षित किया गया तो यह अपने आपमें समाज के अगड़े तबके की महिलाओं को लाभ पहुंचाएगा, क्योंकि सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक पिछड़ेपन के चलते अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन-जाति, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाओं की महिलाएं उन्हें बराबरी की चुनौती नहीं दे पायेंगी। इसलिए महिलाओं के लिए प्रस्तावित आरक्षण के अन्दर, इन पिछड़े तबकों की महिलाओं के लिए उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण का प्रावधान किया जाए।  

इस मांग में भी दम है और हमारे राजनैतिक नेतृत्व को इस न्यायोचित मांग को मद्देनजर रखते हुए जल्दी ही इस मामले का समाधान निकालना चाहिए और विधेयक को पुनः विचारार्थ संसद के सामने लेकर आना चाहिए, ताकि इसे पारित कर संसद में महिलाओं की टोकन उपस्थिति से आगे बढ़ते हुए आधी आबादी की कम-से-कम एक तिहाई हकदारी को स्वीकार किया जा सके। जब तक कानूनन यह प्रावधान अस्त्तित्व में नहीं आ जाता, तब तक सभी राजनैतिक पार्टियाँ यह जिम्मेवारी लें कि वे अपने उम्मीदवारों में कम-से-कम एक तिहाई प्रतिनिधित्व महिलाओं को अवश्य दें।(सप्रेस)

[block rendering halted]

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें