रोहित शिवहरे

हमारे देश में ऊर्जा यानि बिजली का अधिकांश हिस्सा कोयले से बनाया जाता है, लेकिन उसे धरती से निकालने वाले मजदूर बेहाल हैं। कोविड-19 बीमारी के चलते देशभर में समय-समय पर लगा ‘लॉकडाउन,’ कोयला खदानों पर कोई खास असर तो नहीं डाल पाया, लेकिन वहां की हालातें जस-की-तस बदहाल हैं।

हमारे देश में बिजली पैदा करने का प्रमुख संसाधन कोयला है, लेकिन धरती की छाती चीरकर उसे निकालने वाले मजदूरों की बदहाली जहां-की-तहां है। पिछले साल कोविड-19 के कारण देशभर में लगे ‘लॉकडाउन’ के दौरान कोयला खदानों में काम कर रहे ठेका मजदूरों का रोजगार तो कमोबेश नहीं छीना गया, लेकिन आसपास की बदहाली ने उन्हें मौत के मुहाने पर खड़ा कर दिया।

मार्च 2020 में देशभर में कोरोना महामारी के आने के बाद 24 मार्च को लगे संपूर्ण लॉकडाउन के दौरान जहां एक ओर देशभर के बहुत सारे कामगारों का रोजगार छिन जाने के कारण अचानक कई लोग सड़कों पर आ गए थे, वहीं दूसरी ओर, कोयला क्षेत्रों में लगातार लॉकडाउन के दौरान भी काम चालू रहने की वजह से कामगारों का रोजगार बरकरार रहा। हालांकि कोयला खदानों में भी कुछ मजदूरों का काम प्रभावित तो हुआ, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम थी।

ऐसे में हमें यह नहीं समझना चाहिए कि कोयला खदान में काम कर रहे मजदूरों, खासकर ठेका मजदूरों का जीवन लॉकडाउन के दौरान आसान रहा होगा। कोयला खदान में काम करने वाले ठेका मजदूरों की पहले की समस्याओं और उस पर कोरोना महामारी ने उनके जीवन को गंभीर संकट की चपेट में ले लिया था।

मध्यप्रदेश के सिंगरौली जिला मुख्यालय से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर ‘निगाही मोड़’ नाम की जगह है जहां मुख्य सड़क के किनारे लगभग एक मीटर नीचे की ओर आसपास के कोयला खदानों में काम करने वाले ठेका मजदूरों की अस्थाई बस्तियां हैं। बस्ती के ठीक बगल से खुली नाली बहती हैं। इन बस्तियों में ज्यादातर झोपड़िया हैं जिनके चारों ओर बांस की दीवारें हैं। ये घर एक-दूसरे से लगभग हाथभर की दूरी पर बने हैं। पूरी बस्ती में शायद ही किसी घर में शौचालय की व्यवस्था होगी। इन बस्तियों में पीने व निस्तार के पानी की भी कोई स्थायी व्यवस्था नहीं है।

इसी बस्ती में रहने वाले ठेका मजदूर वीरेन बताते हैं कि सरकार या प्रशासन उन्हें भले ही अस्थाई मानते हों, लेकिन उनका परिवार 10 – 15 सालों से इन्हीं कोयला खदानों में मजदूरी करके अपना जीवनयापन कर रहा है। इतने ही सालों से हम अपने परिवारों के साथ यहीं रह रहे हैं, अब यही हमारा घर है।

बस्ती की बोरी बाई बताती हैं कि कोरोना महामारी और लॉकडाउन के दौरान हम पूरी तरह इस बीमारी से डरे हुए थे, लेकिन हमारे घर जिस तरह से हैं और जैसी हमारे रहने की व्यवस्था है उससे हम चाहकर भी ना तो सामाजिक दूरी का पालन कर पा रहे थे और ना ही अपने घरों को और खुद को साफ-सुथरा रख पा रहे थे। ‘यहां हमें ढंग से पीने का पानी तक नसीब नहीं होता। ऐसे में कोरोना बीमारी के डर से, चाहते हुए भी अपने हाथों को भला बार-बार कैसे धोया जा सकता है?’  

कोल इंडिया के अंतर्गत आने वाली ‘नॉर्दर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड’ में 34,000 लोग विभिन्न प्रकार के कामों में लगे हैं। इनमें से 14,000 लोग स्थाई रोजगार वाले हैं और बाकी के 20,000 ठेका (अस्थाई) पर काम करते हैं। इन 20,000 अस्थाई कामगारों का वेतन जानने के लिए जब हमने कुछ लोगों से बात की तो पता लगा कि यहां उन्हें 170 से 280 रुपए तक प्रतिदिन वेतन के हिसाब से मिलता है।

ठेका मजदूर गणेश जो कि ‘अम्लोरी खदान’ में कोयला निकालने का काम करते हैं, बताते हैं कि ठेकेदार से रोज का 200 से 250 रुपए, जितना भी तय होता है, उसी के अनुसार हमें वेतन मिलता है। वेतन मिलने की कोई पक्की तारीख नहीं है। जब हमें जरूरत होती है, हम मांगते हैं और वह दे देता है। ‘हां, हमें पता है कि सरकारी रेट शायद इससे कुछ ज्यादा है, लेकिन यहां हर जगह यही चलता है। इसलिए हम भी कुछ नहीं बोलते हैं।‘

सरकारी नियमानुसार इन कोयला खदानों में काम करने वाले ठेका मजदूरों को सरकार ने चार श्रेणियों में बांटा है। जिनमें ‘अकुशल मजदूर,’ ‘अर्ध-कुशल मजदूर,’ ‘कुशल मजदूर’ और ‘उच्च-कुशल मजदूर’ शामिल हैं। इन्हें इसी क्रम में प्रतिदिन के हिसाब से क्रमशः 906, 941, 975 & 1010 रुपए वेतन देने की व्यवस्था रखी गई है। पर जमीनी हकीकत इससे कोसों दूर है।

खदानों में काम करने वाले ठेका मजदूर संजय (बिहार) बताते हैं कि लॉकडाउन के दौरान शुरुआत के महीनों में ठेकेदार ने मुझे काम पर आने से मना कर दिया था। इससे मेरा परिवार चलाना बहुत कठिन हो गया था। मुझे ₹200 रोजाना वेतन मिलता था, जिससे कुछ बचा पाना संभव नहीं था। उसके बाद अभी ठेकेदार ने मेरा वेतन 220 कर दिया है। किराया और बाकी चीजें महंगी हो गई हैं। ऐसे में इस महामारी के वक्त घर का गुजारा चलाना, कम साधन होने की वजह से हमारे लिए बहुत ही कठिन हो रहा है। ऊपर से महामारी के दौरान काम करने का खतरा अलग है। ‘अगर गलती से भी हमें यह बीमारी हो गई तो हमें कोई उम्मीद नहीं है कि सही इलाज मिल भी पाएगा या नहीं।‘

कोरोना महामारी के इतने भीषण समय में भी कोयला खदान निरंतर चलती रहीं। कोयला खदानों को चलाने वाले मजदूरों, जिनमें खासकर ठेका मजदूरों की बदहाल जिंदगी में कोई सकारात्मक परिवर्तन तो नहीं आया, उल्टे महामारी के संकट में इनके जीवन को और भी अभावग्रस्त बना दिया। महामारी के दौरान कोयला खदान उत्पादन तो करती रहीं हैं और इसी वजह से हमारे और आप जैसों की बिजली की जरूरतें भी पूरी होती रहीं, पर इस पूरे समय में कोयला खदानों के मजदूरों की बदहाल जिंदगी को सरकार ने बीमारी के मुहाने पर खड़ा कर दिया है। (सप्रेस) ‘स्मितु कोठारी फैलोशिप’ के तहत लिखा गया लेख।

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