कोविड-19 के इस मारक दौर में दवाओं, अस्पतालों, प्राणवायु और उसके सिलिन्डरों की भारी कमी है और उनकी कालाबाजारी तक हो रही है। क्या इसका बाजार की हमारी उस मौजूदा व्यवस्था से भी कुछ लेना-देना है जिसने नब्बे के दशक के बाद समाज को दो स्पष्ट और तकरीबन विपरीत ध्रुवों में विभाजित कर दिया है? क्या गांधी की तजबीजों में इस मुनाफाखोरी की कोई गुंजाइश थी? आखिर क्या थी, गांधी की तजबीज?
कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर से भारत जूझ रहा है। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ (डब्ल्यूएचओ) के आँकड़ों के अनुसार दो महीने की अवधि में इसमें तकरीबन 24 गुना की बढोतरी हुई है। जाहिर है कि स्वास्थ्य सेवाओं पर इस भयावह स्थिति का भार पड़ना ही था। अप्रैल की शुरुआत में ही यह समाचार आने लगे थे कि अस्पतालों में जगह नहीं मिल पा रही है। ज़्यादा पैसे देकर या रसूख का इस्तेमाल करके जगह मिली भी तो रेमडिसिवर जैसी प्राणरक्षक दवा और ऑक्सीजन सिलेण्डर नहीं मिल रहे हैं। फिर खबरें आने लगीं कि दवाओं और सिलेण्डरों की कालाबाज़ारी हो रही है। आभासी दुनिया में ऐसे कई विडियो प्रसारित होने लगे जो किन्हीं अस्पतालों के अनाप-शनाप बिलों का कच्चा चिट्ठा खोलते नज़र आ रहे थे। शवों को दफनाने या अग्नि-संस्कार करने की प्रक्रिया में मुनाफाखोरी और कालाबाज़ारी की चर्चाएँ भी आम हैं। कहीं शव-वाहन के चालकों-संचालकों द्वारा हज़ारों रुपयों की माँग की जा रही है, कहीं लकड़ी के दाम अचानक आसमान छूने लगे हैं तो कहीं कब्र खोदने वाले मुँहमाँगा मेहनताना माँग रहे हैं। कुल मिलाकर लोग त्रस्त हैं कि उन्हें इस महामारी में बुनियादी सुविधाएँ नहीं मिल पा रही और हर चीज़ महंगे दामों पर खरीदनी पड़ रही है।
कोरोना के इलाज या मृतकों की अन्त्यविधि में मुनाफाखोरी करना स्वाभाविक रूप से हर विवेकवान व संवेदनशील व्यक्ति को अनुचित लगेगा। सरकार से दखल देने, मुनाफाखोरी को नियंत्रित करने और आमजन के लिए स्वास्थ्य सुविधाएँ प्रदान करने की माँग की जा रही है। लेकिन भारत का पढ़ा-लिखा मध्यम वर्ग वाकई चाहता है कि सरकार इस बाज़ार को नियंत्रित करे? इसका जवाब आसान नहीं है। बाज़ार वह स्थान है जो हमें वस्तुओं और सेवाओं का विनिमय करने का अवसर प्रदान कराता है। किन्हीं दो सेवाओं या वस्तुओं के विनिमय के लिए यह ज़रूरी है कि उनका मूल्य निर्धारित हो ताकि विनिमय पारदर्शी, तुलनीय और न्यायपूर्ण हो सके। सवाल उठता है कि है कि किसी सेवा या वस्तु का मूल्य कैसे निर्धारित किया जाए?
सुप्रसिद्ध किताब “वेल्थ ऑफ द नेशन्स” के पाँचवें अध्याय में अर्थशास्त्री एडम स्मिथ कहते हैं कि किसी वस्तु या सेवा में लगा श्रम ही उसका मूल्य निर्धारित करता है। लगभग यही बात कार्ल मार्क्स अपने ग्रन्थ “कैपिटल” में स्वीकार करते हैं, हालाँकि वे श्रम को भी ‘पण्य वस्तु’ के रूप में देखते हैं, जो खरीदी और बेची जाती है। पूँजीवाद के पितामह एडम स्मिथ और साम्यवाद के प्रणेता कार्ल मार्क्स के बीच जो बुनियादी भेद है, वो श्रम के मूल्य को लेकर है। मार्क्स का कहना है कि पूँजीपति श्रमिक को उसके समुचित श्रममूल्य से कहीं कम का मेहनताना देता है और इस तरह मुनाफे के रूप में पैसा बनाता है। उनकी नज़र में यही “शोषण” है और इसी से पूँजी की उत्तरोत्तर बढ़ोतरी होती रहती है।
एडम स्मिथ कहते हैं कि बाज़ार को अनियंत्रित रखा जाना चाहिए ताकि साहसी व्यक्ति को उद्यम लगाने का मौका मिले, उत्पन्न माल को प्रतिस्पर्धी मूल्य पर बेचने का मौका मिले। इस तरह उद्यमी और उपभोक्ता, दोनों को ही लाभ होगा। इसके विपरीत मार्क्स कहते हैं कि मुक्त बाज़ार श्रमिक का शोषण करते हुए अधिकाधिक मुनाफा कमाते जाएगा। परिणामस्वरूप पूँजी में बेतहाशा बढ़ोतरी होगी। बड़ी पूँजी बाज़ार में एकाधिकार स्थापित करेगी और फिर ग्राहक मनमाने दाम पर वस्तुओं व सेवाओं को खरीदने के लिए बाध्य होगा। इसलिए उत्पादन के साधनों पर सर्वहारा द्वारा शासित राज्य का नियंत्रण होना अनिवार्य है।
श्रमिक के मूल्य, यानि पारिश्रमिक का मूल्यांकन किस आधार पर किया जाए? इसका जवाब किसी के पास नहीं है। कुछ लोग कहेंगे कि ज़िन्दा रहने के लिए जितनी कैलोरी खुराक की ज़रूरत है, उसके बाज़ार मूल्य के हिसाब से पारिश्रमिक मिलना चाहिए। कुछ लोग उत्पादन प्रक्रिया में योगदान के महत्व और कुछ लोग कौशल व शिक्षा का स्तर आदि को आधार बनाने की बात कहेंगे। लेकिन इन सबके जवाबों से यह स्पष्ट नहीं होता कि किसी महाविद्यालय के चपरासी और प्राध्यापक या किसी कारखाने के मज़दूर और मैनेजर की तनख्वाह में जो विशाल भेद है, वह किस पैमाने से तय होता है? प्राकृतिक संसाधनों, जैसे – पानी, हवा, कोयला, लोहा, तेल इत्यादि के मूल्य पर भी अर्थशास्त्र मौन हैं। पानी, हवा, कोयला आदि का मूल्य आप कितना आँकेंगे और वह मूल्य आप किसे चुकाएँगे?
मूल्य निर्धारण का कोई मानक सिद्धान्त न होने की इस समस्या का व्यावहारिक निराकरण मूल्य को माँग और पूर्ति के साथ जोड़कर किया जाता है। माँग ज़्यादा और पूर्ति कम हो तो मूल्य बढ़ेगा। इसके विपरीत माँग कम और पूर्ति ज़्यादा हो तो मूल्य घटेगा। तमाम आर्थिक गतिविधियाँ इसी व्यवहार पर चलती है। चूँकि यह व्यवहार मुनाफा कमाने और पूँजी की उत्तरोत्तर बढ़ोतरी करते जाने के उद्देश्य से होता है इसलिए कृत्रिम रूप से माँग बढ़ाते रहना (जैसे टेलीविज़न विज्ञापनों के जरिए सौन्दर्य प्रसाधन खरीदने के लिए फुसलाया जाता है) और कृत्रिम रूप से पूर्ति को घटाने का भी खेल चलते रहता है। इन दिनों जीवनरक्षक रेमडिसीवर या कोरोना के टीके की कमी इसी तर्ज पर पैदा की जा रही है।
इसका साम्यवादी समाधान है – उत्पादन और सेवाओं की तमाम आर्थिक गतिविधियों पर राज्य का नियंत्रण। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद शीतयुद्ध के समय में एक ओर मुक्त पूँजीवाद का अग्रणी अमरीका था तो दूसरी ओर साम्यवाद का झण्डाबरदार सोवियत संघ। भारत ने पूँजीवाद और साम्यवाद में से किसी एक को न चुनकर मिश्रित अर्थव्यवस्था का रास्ता चुना, जिसमें कुछ उद्योग और सेवाएँ राज्य के नियंत्रण में थीं और कुछ निजी उद्यमियों के हाथ में। आधारभूत संरचना, जैसे – बड़े बांध, सड़कें, बिजलीघर आदि में सरकार ने निवेश किया, ताकि निजी उद्यम फल-फूल सकें। अन्य कई मुल्कों की तरह भारत भी ‘लोक कल्याणकारी राज्य’ बना, जिसमें ज़रूरतमन्दों को सस्ता राशन, मुफ्त शिक्षा और इलाज मुहैया कराया जाता है। इस सबके लिए करदाताओं से मिला राजस्व खर्च किया जाता है और कम पड़ने पर अन्तर्राष्ट्रीय कर्ज लिए जाते हैं।
सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन आर्थिक विकास की दर पूँजीवादी राष्ट्रों की तुलना में धीमी थी, कर्ज का बोझ भी बढ़ते जा रहा था। मध्यम वर्ग के करदाताओं को यह नागवार गुज़रता था कि उनके दिए कर के पैसों से सरकार गरीबों के लिए सस्ता राशन बाँटे, मुफ्त इलाज और शिक्षा का इन्तज़ाम करे। देश के पूँजीपति वर्ग की आकांक्षाओं को भी सरकारी नियंत्रण में घुटन महसूस होती थी।
अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं और घरेलू दबाव के चलते 1990 के शुरुआती वर्षों में भारत ने उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के नारे के साथ लोक-कल्याणकारी मिश्रित अर्थव्यवस्था को यह कहकर तिलांजलि दे दी थी कि राष्ट्र अब लालफीताशाही और लायसेंसी राज को खत्म कर मुक्त अर्थव्यवस्था को अपना रहा है। आप याद करें कि भारत में इन्हीं दिनों विदेशी ब्राण्डों का प्रवेश सुलभ हुआ। अब आप कार, सिगरेट और शराब से लेकर जूते-चप्पल और कपड़े तक अंतरराष्ट्रीय ब्राण्डों के ले सकते थे। इसी तरह बैंक, बीमा, बिजली निर्माण और वितरण, वायु, रेल और सड़क परिवहन के साथ-साथ शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों से भी सरकार अपने कदम पीछे खींचती गई और निजी कम्पनियाँ उस जगह को भरती चली गईं। आज जो मध्यम वर्ग शोर मचा रहा है कि स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकार को ध्यान देना चाहिए, उसने ना तो निजी मेडीकल और इंजिनियरिंग कॉलेजों के खुलने की मुखालफत की और ना ही बैंक, बीमा और सार्वजनिक परिवहन में निजी क्षेत्र के प्रवेश का विरोध किया। उलटे यह कहकर उसने सरकार के उन कदमों का स्वागत ही किया कि प्रतिस्पर्धा बढ़ने से सेवाओं की गुणवत्ता सुधरेगी, दाम कम होंगे, उपभोक्ताओं को विकल्प मिलेंगे और रोज़गार के नए अवसर सृजित होंगे।
जॉन रस्किन ने अपनी किताब “अनटू दिस लास्ट” में माँग और पूर्ति के इस अतार्किक और असंवेदनशील सिद्धान्त को खारिज करते हुए एक ऐसे समाज की कल्पना की थी जिसमें सभी की ज़रूरतें न्यायपूर्ण और सम्मानजनक ढंग से पूरी होती हों। महात्मा गाँधी पर इस किताब का गहरा असर पड़ा और उन्होंने “सर्वोदय” शीर्षक से उसका अनुवाद किया था। इसमें कहा गया है कि चर्मकार को कम और चिकित्सक को ज़्यादा पारिश्रमिक दिए जाने की कोई ज़रूरत नहीं है, क्योंकि समाज को जितनी ज़रूरत एक चप्पल बनाने वाले कारीगर की है, उतनी ही ज़रूरत एक चिकित्सक की भी है। आर्थिक संसाधनों तक जिनकी पहुँच नहीं हैं, यानी जो पंक्ति में सबसे पीछे खड़े हैं, उनका भी संसाधनों पर समान अधिकार है, इसलिए सबका उदय, यानि सर्वोदय होना चाहिए।
यह ना तो पूँजीवाद के माँग-पूर्ति और सम्पन्नता के रिसाव के सिद्धान्त (पर्क्यूलेशन थियरी) के आधार पर और ना ही सर्वहारा की तानाशाही की साम्यवादी धारणा के आधार पर होगा, बल्कि सबको बराबरी से साथ लेकर चलने वाले सर्वोदय के विचार से होगा। महामारी के इस आपात् दौर में कम-से-कम इतना तो किया ही जा सकता है कि तमाम निजी अस्पतालों को ट्रस्ट के हवाले कर दिया जाए, जो मुनाफे के लिए नहीं, बल्कि लोक-कल्याण की कर्तव्य भावना से समाज की सेवा करेंगे। आगे चलकर शिक्षा को भी इसी तरह निजी हाथों से मुक्त कराने की ज़रूरत है। उत्पादन-वितरण के शेष तमाम व्यवहारों को भी क्रमशः विकेन्द्रित और समाज-आधारित बनाया जा सकता है। रास्ता कठिन है, लम्बा है, पर नामुकिन नहीं। (सप्रेस)
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