शिवाशीष तिवारी

सूखे और अकाल के चलते बडी संख्‍या में पलायन बुंदेलखंड की नियति बन गई है। कोरोना महामारी ने इसे और भी बढा दिया है। क्या हैं, वहां के हालात? अपने लेख के लिए शिवाशीष ने ‘सेंटर फॉर फाईनेन्शियल एकॉउन्टेबिलिटी’ (सीएफए) की ‘स्मितु कोठारी फैलोशिप’ के तहत किए गए अध्‍ययन का उपयोग किया है।

पलायन वास्तव में घातक नहीं है, पर इसे घातक बना दिया गया है। मानव सभ्यता में से पलायन को हटा दिया जाए, तो शायद आपको पलायन का सकारात्मक पक्ष दिखे। नव-निर्माण, खोज, ज्ञान के विस्तार और समाज की बहुरूपता को समग्र रूप देने में पलायन महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

संसार का कोई भी भाग अपने-आपमें कभी संपूर्ण नहीं होता। दुनिया भर की विविधता से ही, दुनिया समग्र होती है। पलायन की दूसरी परिभाषा यह भी है कि जब लोगों के स्थानीय संसाधन सीमित हो जाते हैं, तब वे दूसरे इलाकों की तरफ सफर शुरु करते हैं और देश के किसी दूसरे हिस्से में जाकर अपने कौशल का उपयोग करके न केवल अपने लिए जीविका का अर्जन करते हैं, बल्कि उस नए इलाके को एक नयापन भी देते हैं।

बीते कुछ दशकों से बुन्देलखण्ड में पलायन एक समस्या के रूप में उभरा है। अब आलम यह हो गया है कि बुन्देलखण्ड के लगभग हर मौसम में छोटे-बड़े (गांव-कस्बा-शहर) बस स्टेशन या रेल्वे स्टेशन (झांसी वाली लाइन को छोड़ दें, तो पाएंगे कि रेल्वे या तो है नहीं, और यदि है भी, तो वह दिखावे के लिए है) पर पाँच से लेकर पचास लोगों तक के जत्थे बोरी में समान बांधे हुए, बिस्तर का बंडल लिए हुए, महिलाएं बच्चों को गोदी में लिए हुए यात्रा के साधन का इंतजार करते हुए नजर आ जायेंगे।

पलायन करने वाले इन लोगों की उम्र, जाति, धर्म और गांव में अंतर हो सकता है, लेकिन सभी एक ही बीमारी के मरीज हैं। इनकी बीमारी का नाम ‘बदहाली में पलायन’ है। ये अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि गांव में जीविका और रोटी के साधन खत्म हो जाने के कारण, दिहाड़ी मजदूरी के लिए पलायन करते हैं। यदि दो-चार लोगों को अनायास कहीं फैक्ट्री में काम मिल भी गया, तो वह दिहाड़ी मजदूरी के जैसा काम ही मिलता है।

बुन्देलखण्ड में पलायन की हालातों को लेकर कोरोना संकट के दौरान हुए लॉकडाउन में दो वीडियो तेजी से वायरल हुए थे। इनमें से एक था, छतरपुर जिले के बड़ा मलहरा तहसील के निवासी का, जिसमें लगभग 35 साल का आदमी अपने परिवार के सदस्यों, छोटे-छोटे बच्चों के साथ साइकिल पर समान लादकर नंगे पाँव पैदल अपने घर को लौट रहा था। बीबीसी (ब्रिटिश ब्रॉडकॉस्टिंग कार्पोरेशन) के रिर्पोटर ने उससे बात की तो रोते हुए उसने पुलिस और शासन की बर्बरता के बारे में बताया। कड़ी धूप और उन परिस्थितियों को देखकर रिर्पोटर भी भावुक हो गया और उसने अपने जूते उतारकर उस आदमी को दे दिए। जिसने भी यह दृष्य देखा, आंखों में आंसुओं को नहीं रोक पाया।

दूसरा वीडियो कांग्रेस पार्टी के पूर्वाध्यक्ष राहुल गांधी का था, जिसमें वे लॉकडाउन के कारण पैदल जा रहे मजदूरों के समूह से सड़क के किनारे बात कर रहे थे। ये मजदूर झांसी-ललितपुर जिले के निवासी थे। यह वही वीडियो था जिस पर वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा था कि (कथन का तर्जुमा) राहुल गांधी ने मजदूरों का समय खराब किया। यदि वे मजदूरों की मदद ही करना चाहते थे, तो उनका सामान उठाकर उनके साथ चल देते। असल में राहुल गांधी ने दो कारों की व्यवस्था करके उन्हें गांव तक भेजा था। इसके बाद की खबर यह है कि दोनों वीडियो में देखे गये परिवारों ने पुनः पलायन किया।

कोरोना महामारी के कारण बुन्देलखण्ड के पलायन की स्थिति को जानने के लिए लेखक ने बुन्देलखण्ड के छतरपुर जिले की तहसील बिजावर की 60 पंचायतों का सर्वे किया था जिससे कई रोचक तथ्य निकलकर आये थे। कोरोना महामारी के दौरान बिजावर जनपद की इन पंचायतों से पलायन करने वालो में से 12,488 लोग वापस अपने घर लौट आये थे। यह आंकड़ा और अधिक हो सकता था, पर सरकार ने यातायात पूरी तरह से बंद ही कर दिया था। कुछ लोग इसलिए भी नहीं लौट पाये क्योंकि ठेकेदार ने पैसे नहीं दिए और वे स्वयं पैसे की व्यवस्था नहीं कर पाये।

लॉकडाउन में वापस आये लोगों से बात करने पर पता चला कि ज्यादातर लोगों को मजदूरी का पैसा ठेकेदार या कंपनी ने दिया ही नहीं है। वे किसी तरह पैसों की व्यवस्था करके अपने घर लौटे हैं। वापस गांव लौटे करीब डेढ़ सौ पलायनकर्ताओं से मुलाकात में पता चला कि किसी को पूरे पैसे नहीं मिले थे। इनमें वे लोग ज्यादा हैं, जिन्हें बिलकुल पैसे नहीं मिले। ऐसे लोग किसी एक गांव या जाति के नहीं थे। कुछ पलायनकर्ताओं का कहना था कि लॉकडाउन की शुरुआत में यातायात के कुछ साधन नहीं थे और ठेकेदार बार-बार धमका रहे थे कि यदि अभी घर लौटे तो पैसा नहीं मिलेगा। कई महिनों तक ठेकेदारों ने हिसाब नहीं किया, क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं मजदूर घर न लौट जाएं। महानगरों से बुन्देलखण्ड के किसी भी हिस्से में वापस आये पलायनकर्ताओं की कमोबेश यही स्थिति है।

कोरोना महामारी से वापस आये पलायनकर्ताओं में से मात्र अभी 232 लोग ही अब गांव में बचे हैं, बाकी सभी फिर से पलायन कर गये हैं। दोबारा पलायन करने वाले 12,256 लोगों के पीछे वही सब कारण हैं जिनके चलते बुन्देलखण्ड में पलायन शुरु हुआ था। बिजावर जनपद की सबसे बड़ी पंचायत अनगौर है। वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर अनगौर की जनसंख्या 6,669 है। वहां के शासकीय स्कूल के शिक्षक ने बताया कि इस पंचायत से लगभग 45 प्रतिशत से अधिक लोगों ने पलायन किया है, पर लॉकडाउन में मात्र 439 लोग ही वापस आये। जैसे ही लॉकडाउन हटा तो कुछ महिने बाद 432 लोग पुनः पलायन कर गये। लॉकडाउन में वापस आए लोगों में केवल सात लोग ही रह गए हैं।

ग्राम पंचायत अमरोनियां की आबादी 2011 की जनगणना अनुसार 2009 है। लॉकडाउन में 291 पलायनकर्ता वापस आये। इसमें से मात्र दस रह गए हैं। बाकी सब दौबारा पलायन कर गए हैं। लॉकडाउन के दौरान वापस आए पलायनकर्ताओं में सबसे अधिक अमरोनियां और नैगांव में दस-दस लोग रुके हैं। अन्य सभी पंचायतों का आंकड़ा इससे कम ही है। ग्राम पंचायत बांकीगिरौली और कसार में जितने पलायनकर्ता लॉकडाउन के दौरान आये थे, वे सभी पुनः लौट गए हैं। इनमें से नए लोगों ने जो पलायन किया है, वह अलग है। बिजावर जनपद में कोरोना के कुछ ही मामले देखे गए हैं, यहां कोरोना का संक्रमण बहुत कम हुआ है। छतरपुर जिले में 25 मार्च तक कोरोना संक्रमण से 32 लोगों की मृत्यु हुई है, जबकि 2039 लोग संक्रमण के बाद डिस्चार्ज हुए एवं जिले में कुल पोजिटिव लोगों की संख्या 2095 है।

बुन्देलखण्ड की स्थिति दिन-प्रतिदिन अनियंत्रित पलायन के कारण खराब ही होती जा रही है। सरकारों के पास अच्छा मौका था कि बुन्देलखण्डियों को विश्वास में लेकर एक नई शुरुआत करते, तो कोरोना के बाद का बुन्देलखण्ड, नया बुन्देलखण्ड होता। (सप्रेस)

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