सुरभि अग्रवाल, शोभा शुक्ल, बॉबी रमाकांत व संदीप पाण्डेय
कोरोना वायरस से उपजी ‘कोविड-19’ बीमारी ने बेहद छोटे, करीब तीन महीने के अंतराल में कई तरह के गुल खिलाए हैं। सरकारी लापरवाही, अक्षमता और टालू प्रवृत्ति उन कईयों में से कुछ हैं। प्रस्तुत है, महामारी से निपटने में लगी सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाओं के कामकाज पर सुरभि अग्रवाल, शोभा शुक्ल, बॉबी रमाकांत व संदीप पाण्डेय की शोध पर आधारित आलेख।
पिछले तीन माह में यह स्पष्ट हो गया है कि कोरोना वायरस महामारी को रोकने में सरकार लगभग हर मोर्चे पर असफल रही है। सरकार, कोरोना वायरस संक्रमण के तेजी से बढ़ते फैलाव को रोकने में असमर्थ भर नहीं रही है, बल्कि उसके ही कारण देश के अधिकाँश लोगों को संभवतः सबसे बड़ी अमानवीय त्रासदी झेलनी पड़ी है। सरकार की असंवेदनशील, अल्पकालिक और संकीर्ण सोच के कारण करोड़ों लोगों के मौलिक मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ है। सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों और अधिकारियों ने वैज्ञानिकों और चिकित्सकों से सलाह नहीं ली, जिसके कारण उसके अनेक निर्णय, नवीनतम शोध और प्रमाण पर आधारित नहीं रहे। सरकार ने अमरीकी उद्योग जगत की सलाहकार कंपनी, ‘बॉस्टन कंसल्टिंग ग्रुप’ को महामारी के नियंत्रण पर सुझाव देने के लिए ठेका दिया, जबकि यह कम्पनी व्यापार-जगत और सरकारों को प्रबंधन की सलाह देने के लिए जानी जाती है, न कि जन-स्वास्थ्य आपदा प्रबंधन के लिए। फिर यह भी सवाल उठता है कि क्या कोई अमरीकी कम्पनी अब हमें बताएगी कि भारत आत्मनिर्भर कैसे बने? ताज्जुब की बात तो यह है कि ‘भारतीय जनता पार्टी’ या ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ में स्वदेशी की अवधारणा मानने वालों को जैसे सांप सूंघ गया है। या सत्ता इतनी प्रिय लगने लगी है कि उसके लिए देश को भी कुर्बान किया जा सकता है?
देश के प्रतिष्ठित चिकित्सक, महामारीविद और जन-स्वास्थ्य विशेषज्ञों की संस्थाओं ने संयुक्त वकतव्य जारी किया है जिसमें उन्होंने सरकार की निंदा की है, क्योंकि वह महामारी, जन-स्वास्थ्य, रोग नियंत्रण और सामाजिक विज्ञान के विशेषज्ञों को महत्व देने की बजाए सामान्य प्रशासनिक अधिकारियों के भरोसे रही। सामान्य स्वास्थ्य व्यवस्था दुरुस्त करने में भी सरकार नाकाम रही, जो तालाबंदी के दौरान सबसे उच्च-प्राथमिकता होनी चाहिए थी। एक ओर तो कोरोना वायरस से संक्रमित रोगियों को अस्पताल में एक ही बिस्तर साझा करना पड़ा और स्वास्थ्यकर्मियों की भी कमी रही। दूसरी ओर, सामान्य जीवन-रक्षक स्वास्थ्य सेवा कु-प्रभावित या स्थगित रही। हृदय रोग, कैंसर, टीबी, एचआईवी आदि से प्रभावित हजारों लोगों को अनावश्यक पीड़ा झेलनी पड़ी और उनकी असामयिक मृत्यु हुईं।
निजी क्षेत्र की अनियंत्रित मुनाफाखोरी पर भी सरकार लगाम नहीं लगा पाई। उदाहरण के तौर पर, निजी जांच लैब में कोरोना वायरस जांच की सरकार द्वारा तय अधिकतम कीमत 4,500 रुपए के कारण निजी जांच लैब 200 प्रतिशत मुनाफा कमाती रहीं, जबकि इसकी वास्तविक कीमत 1,500 रुपए से अधिक नहीं है। अधिकतम सीमा तय करने के बाद सरकार के ‘भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद्’ (आईसीएमआर) ने 83 कोरोना वायरस जांच किट (आरटी-पीसीआर) का मूल्यांकन किया और 35 को संतोषजनक पाया जिसमें से 20 देशी कंपनियों द्वारा तैयार किए गए हैं। ऐसे ही एक संतोषजनक पाए गए टेस्ट किट, जिसे पुणे की एक कंपनी ने बनाया है, की कीमत सौ रुपए है। इसके बावजूद इन जांचों पर अधिकतम कीमत को संशोधित नहीं किया गया, बल्कि हाल ही में यह अधिकतम सीमा भी समाप्त कर दी गयी है।
कोरोना वायरस जांच के 4,500 रुपए पर सवाल खड़े करते हुए, ‘एड्स सोसाइटी ऑफ इंडिया’ ने कहा है कि जन-स्वास्थ्य आपदा के दौरान निजी लैब को क्यों रोजाना 10-15 करोड़ रुपयों का मुनाफा कमाने दिया जा रहा है? अनेक लोग जो कोरोना वायरस से नहीं, बल्कि अन्य बीमारियों से ग्रसित थे (जैसे – गर्भावस्था, प्रसूति, डायलिसिस, कैंसर, सर्जरी आदि), उनके लिए भी कोरोना वायरस जांच अनिवार्य क्यों कर दी गयी? निजी अस्पतालों ने ‘निजी सुरक्षा उपकरण’ (पीपीई) के नाम पर रोगियों से हजारों रुपये वसूले।
स्वास्थ्य-कर्मियों में कोरोना वायरस संक्रमण-दर अत्यंत चिंताजनक है और स्वास्थ्य व्यवस्था में संक्रमण-नियंत्रण की खामियों को उजागर करती है। स्वास्थ्यकर्मियों के लिए ‘पीपीई’ की कमी भी इसका एक बड़ा कारण है। यह समस्या महामारी आपदा के आरंभ से ही बनी हुई है, पर इसका अभी तक पूर्ण रूप से निवारण नहीं हो पाया है। हिमाचल प्रदेश जैसे कुछ राज्यों में ‘पीपीई’ की खरीद में भ्रष्टाचार भी सामने आया है। कोरोना वायरस सम्बन्धी सभी आंकड़ें सरकार पारदर्शिता के साथ सार्वजनिक नहीं कर रही है, लेकिन महामारी नियंत्रण में सफलता का दावा जरूर कर रही है।
मीडिया ने पिछले महीनों में प्रवासी मजदूर की त्रासद स्थिति पर निरंतर प्रकाश डाला है। जो लोग दैनिक मजदूरी करके अपना जीवन-यापन करते हैं, सरकार उनकी वास्तविकता से कितनी अनभिज्ञ है, इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सरकार द्वारा घोषित तालाबंदी ने समाज के इस बड़े वर्ग के दृष्टिकोण को देखा ही नहीं। इनमें से करोड़ों की तादाद में लोग अपने घरों से दूर रहते हैं और दैनिक आय पर ही निर्भर थे। सरकार ने जब प्रवासी मजदूर को घर तक यात्रा करने से रोकने का भरसक प्रयास किया तो लोगों को अनावश्यक हिंसा और पीड़ा झेलनी पड़ी जिसका उल्टा असर कोरोना वायरस महामारी नियंत्रण पर भी पड़ा।
यदि प्रवासी मजदूरों को तालाबंदी के प्रथम सप्ताह में या तालाबंदी के दौरान भी (जब सरकार को यह स्पष्ट हो गया था कि तालाबंदी लम्बी चलेगी) घर वापस जाने दिया जाता, तो उन्हें बेवजह अमानवीय पीड़ा न झेलनी पड़ती और इनके संक्रमित होने की सम्भावना भी अति-कम रहती। सैंकड़ों लोगों को मजबूरन पैदल, साइकिल या भीड़-भाड़ वाले परिवहन से घर तक जाने के लिए विवश होना पड़ा और दुर्घटना, भुखमरी और थकान के कारण दर्जनों असामयिक मृत्यु हुईं। आखिरकार जब सरकार ने ‘श्रमिक रेल सेवा’ का इंतजाम किया तो वह अत्यंत असंतोषजनक व अपर्याप्त रही। 80 से अधिक लोग इन गाड़ियों में भुखमरी और थकान के कारण मर गए। प्रवासी श्रमिकों के घर जाने से सम्बंधित सर्वोच्च न्यायलय का एक आदेश बहुत विलम्ब से आया। इस आदेश में उन्हें मुफ्त परिवहन सेवा उपलब्ध कराने के निर्देश थे। इससे पहले जिन लोगों को सरकारी या निजी परिवहन को पैसे देने पड़े हैं, उनको पैसे वापस लौटाए जाने चाहिए। इसी तरह जिन निजी संस्थानों ने कोरोना की जांच हेतु शुल्क वसूला है वह लोगों को वापस लौटाया जाना चाहिए।
कोरोना वायरस महामारी ने यह जग-जाहिर कर दिया है कि जन-स्वास्थ्य आपदा के दौरान सिर्फ सरकारी स्वास्थ्य प्रणाली पर ही भरोसा किया जा सकता है। स्वास्थ्य सेवा का राष्ट्रीयकरण एक बड़ी आपातकालीन प्राथमिकता है। स्वास्थ्य सेवा के राष्ट्रीयकरण में, सभी निजी स्वास्थ्य सेवा, कर्मी, जांच लैब, चिकित्सकीय उपकरण और दवा बनाने वाले, दवा विक्रेता, बायो-टेक फर्म, आदि सभी को शामिल किया जाए।
कोरोना वायरस सम्बंधित स्वास्थ्य सेवा की देख-रेख करने वाले उच्च-स्तरीय चिकित्सकों को जब स्वयं संक्रमण हो गया, तब वे निजी अस्पतालों में जा कर इलाज करवाने लगे। यह हालत सरकारी सेवा पर सवाल खड़े कर देती है। यदि न्यायाधीश सुधीर अग्रवाल का 2017 का इलाहाबाद हाईकोर्ट का आदेश पूरी ईमानदारी से लागू किया जाता तब आज अधिक सशक्त सरकारी स्वास्थ्य सेवा होती, जो बेहतर ढंग से जन-स्वास्थ्य आपदा में काम आती। इस आदेश ने सभी तनख्वाह पाने वाले सरकारी कर्मचारियों और निर्वाचित पदों पर आसीन लोगों के लिए यह अनिवार्य किया था कि वह सिर्फ सरकारी स्वास्थ्य सेवा से ही इलाज करवाएं और उसी चिकित्सक से करवाएं जो उस समय वहां उपलब्ध हो। इस आदेश को उत्तरप्रदेश में एवं पूरे देश में ईमानदारी के साथ लागू करना चाहिए। जो ऊंचे पदों पर आसीन सरकारी अधिकारी और निर्वाचित पदों पर आसीन लोग निजी क्षेत्र में कोरोना वायरस या अन्य रोगों का इलाज करवा रहे हैं, उनको किसी भी रूप में जनता के पैसे से सहायता नहीं मिलनी चाहिए (जैसे कि सीजीएचएस, आदि से)। यह कितनी अजीब बात है कि प्रभावशाली वर्ग निजी अस्पताल में सरकारी पैसे से इलाज करा लेता है और जब विवशतावश, कोई चारा ही नहीं देखकर प्रवासी मजदूर गैर-सरकारी परिवहन से घर वापस लौटता है तो उसे 1,000 रुपए नकद और राशन के राहत पैकैट के सरकारी लाभ से वंचित कर दिया जाता है।
एक तरफ कोरोना वायरस का संक्रमण बढ़ता जा रहा है तो दूसरी तरफ, सरकार ने तालाबंदी खोलने का निर्णय ले लिया है। सवाल यह है कि फिर तालाबंदी का औचित्य ही क्या था? महामारी नियंत्रण में हुई लापरवाही और त्रुटियों के लिए उच्च-पदों पर आसीन लोगों, प्रधानमंत्री और गृह मंत्री समेत, को जिम्मेदार ठहराना आवश्यक है जिनके कारण न केवल महामारी नियंत्रण असफल रहा, बल्कि इतनी बड़ी संख्या में जनता को बर्बर अमानवीयता एवं त्रासदी झेलनी पड़ी। (सप्रेस)