अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी ने जारी की स्टेट ऑफ़ वर्किंग इंडिया 2021: कोविड -19 रिपोर्ट
बेगंलुरु। देश में कोरोना संकट गंभीर रूप ले चुका है। इस वजह से देश के करोड़ों लोगों के जीवन यापन पर भारी असर पड़ा है। अजीम प्रेमजी विश्व विद्यालय व्दारा हाल ही में जारी की गई स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया (State of Working India) रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि पिछले साल अप्रैल-मई में किए गए लॉकडाउन के बाद 10 करोड़ लोगों की नौकरी चली गई। जून 2020 तक बहुत से लोग अपने घर वापस लौट गए। इस रिपोर्ट के मुताबिक साल 2020 के आखिरी महीने तक भी देश में डेढ़ करोड़ से अधिक लोगों को जीवन यापन के लिए काम-धंधा नहीं मिला। इस रिपोर्ट में मार्च 2020 से दिसंबर 2020 तक की अवधि को शामिल किया गया है और यह रिपोर्ट एक वर्षीय अवधि के दौरान रोज़गार, आय, असमानता तथा गरीबी पर कोविड-19 के प्रभावों का उल्लेख करती है।
यह रिपोर्ट भारत में कोविड-19 के एक वर्ष का रोज़गार ,आमदनी, ग़ैरबराबरी और ग़रीबी पर पड़े प्रभाव का दस्तावेज है। रिपोर्ट से पता चलता है कि महामारी ने अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के दायरे को बढ़ाया और अधिकांश श्रमिकों की आय को घटाया है, जिनके परिणामस्वरूप गरीबी में अचानक उछाल आया है। महिलाएं और युवा कामगार अपेक्षाकृत अधिक प्रभावित हुए हैं। परिवारों ने कम खाना खाकर, उधार लेकर और परिसंपत्तियों को बेचकर इस संकट से जूझने की कोशिश की है। सरकारी राहत से संकट के सबसे भयानक रूपों से बचाव तो हुआ है, लेकिन सहायता के इन उपायों की पहुंच अधूरी रही है, और कुछ सबसे मजबूर और कमज़ोर श्रमिक और परिवार उनसे वंचित रहे हैं।
अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के कुलपति अनुराग बेहार ने कहा कि इस महामारी ने हमारे समाज की वह ढांचागत और नैतिक खामियां उजागर की हैं जो हर बार सबसे कमज़ोर तबकों से सबसे अधिक कीमत चुकाने पर मजबूर करती हैं। इसको हमें जड़ से बदलना होगा। यह रिपोर्ट इस दिशा में एक छोटा कदम है।
रिपोर्ट के मुख्य शोधकर्ता अमित बसोले ने कहा कि अतिरिक्त सरकारी सहायता की अभी दो कारणों से तत्काल आवश्यकता है – पहले वर्ष के दौरान हुए नुकसान की भरपाई और दूसरी लहर के आशंकित प्रभाव से बचने के लिए। इसमें जून महीने से आगे मुफ्त राशन, कॅश ट्रासंफर, मनरेगा का विस्तार और सही रोज़गार कार्यक्रम शामिल हो सकते हैं।
रिपोर्ट के मुख्य निष्कर्ष हैं –
23 करोड़ लोगों पर महामारी का असर
अगर राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी सीमा के आंकड़ों के हिसाब से बात करें तो कोरोना महामारी की अवधि में 23 करोड़ लोग इसकी सीमा से नीचे चले गए। अनूप सत्पथी समिति ने यह सुझाव दिया था कि देश में ₹ 375 से कम कमाने वाले लोग राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी सीमा से नीचे कहे जा सकते हैं। अगर कोरोना संकट नहीं होता तो देश के ग्रामीण इलाकों में गरीबी में 5 % की कमी आ सकती थी। इसके साथ ही शहरी इलाकों में गरीबी में 1।5 % की कमी आने की उम्मीद थी। इस रिपोर्ट के मुताबिक साल 2019-20 के बीच आम स्थितियों में 5 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर लाने में मदद मिल सकती थी।
लोगों की आमदनी पर असर
कोरोना संक्रमण की अवधि में लोगों की आमदनी पर भी गहरा असर पड़ा है। अप्रैल-मई 2020 के देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान तक़रीबन 10 करोड़ से अधिक लोगों की नौकरियाँ चली गईं। इनमें से अधिकांश जून 2020 तक काम पर वापस लौट आये, हालांकि 2020 के अंत तक भी करीब डेढ़ करोड़ श्रमिक बेरोजगार ही रहे। रिपोर्ट के मुताबिक अक्टूबर 2020 में 4 लोगों के परिवार की मासिक पर कैपिटा इनकम घटकर ₹ 4979 पर आ गई। यह जनवरी 2020 में ₹ 5989 पर थी। यह रिपोर्ट सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनामी (CMIE) के कंजूमर पिरामिड हाउसहोल्ड सर्वे की मदद से तैयार की गई है। लोगों की आमदनी से संबंधित यह आंकड़े 2020 की जनवरी की कीमत पर आधारित हैं और इसे समय के साथ एडजस्ट किया गया है।
जॉब मार्केट का भी बुरा हाल
रिपोर्ट में कहा गया है कि कामकाजी पुरुषों में से 61 फीसदी अपने जॉब में बने रहे और सात फीसदी की नौकरी छूट गई, जो कामकाज पर नहीं लौट पाए। महिलाओं के मामले में 19 फ़ीसदी जॉब में बनी रही और 45 फ़ीसदी को लॉकडाउन की अवधि में जॉब से निकाल दिया गया। कोरोना संकट का असर युवाओं पर अधिक पड़ा है। 15 से 24 साल के 33 फ़ीसदी कामकाजी युवाओं को दिसंबर 2020 तक भी नौकरी नहीं मिल पाई थी।
अनौपचारिक रोजगार में बड़ी वृद्धि
लॉकडाउन के बाद, लगभग आधे वेतनभोगी श्रमिकों ने अनौपचारिक कार्यो या तो स्व-नियोजित (30%), आकस्मिक वेतन (10%) या अनौपचारिक वेतनभोगी (9%) कार्यों की ओर रुख किया ।
आर्थिक प्रभाव की प्रतिगामी प्रकृति:
अप्रैल और मई 2020 के महीनों में सबसे गरीब 20% परिवारों ने किसी भी प्रकार की आय का उपार्जन नहीं किया। दूसरी ओर, देश के शीर्ष 10% परिवारों को लॉकडाउन के दौरान सबसे कम नुकसान उठाना पड़ा और संपूर्ण लॉकडाउन के दौरान उन्हें फरवरी माह की आय का लगभग 20% का ही नुकसान हुआ।
महिलाओं पर प्रतिकूल प्रभाव:
लॉकडाउन के दौरान और बाद के महीनों में, 61 प्रतिशत कामकाजी पुरुष कार्यरत रहे है, जबकि 7 प्रतिशत लोगों ने रोज़गार खो दिया और काम पर वापस नहीं आए। लेकिन महिलाओं के संदर्भ में, केवल 19 प्रतिशत महिलाएँ ही कार्यरत रहीं और 47 प्रतिशत को लॉकडाउन के दौरान स्थायी नौकरी का नुकसान उठाना पड़ा और 2020 के अंत तक भी उनको रोज़गार नहीं मिला या वे काम पर वापस नहीं आ सकीं।
युवा श्रमिकों पर महामारी का बहुत असर हुआ था; उनकी नौकरियाँ भी अपेक्षाकृत ज़्यादा गईं और वापस मिली भी कम। दिसम्बर 2020 तक 15-24 वर्ष की आयु वर्ग के 33% श्रमिक रोजगार प्राप्त करने में विफल रहे। जबकि इनसे अधिक आयु वाले कामगारों में, यानी 25-44 वर्ष आयु वर्ग में, ऐसे विफल होने वाले सिर्फ 6% थे।
गरीबी दर में वृद्धि:
नौकरी खोने और आय में कमी के कारण गरीबी में सर्वाधिक वृद्धि हुई। परिवारों को अपने खाद्य उपभोग में कमी करके, संपत्ति बेचकर और मित्रों, रिश्तेदारों तथा साहूकारों से अनौपचारिक ऋण लेकर आय की क्षति का सामना करना पड़ा। महामारी के दौरान राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी सीमा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या (अनूप सतपथी समिति द्वारा अनुशंसित 375 रुपए प्रति दिन) में 230 मिलियन की वृद्धि हुई है। गरीबी दर ग्रामीण क्षेत्रों में 15 प्रतिशत अंक और शहरी क्षेत्रों में लगभग 20 प्रतिशत अंकों तक बढ़ी है।
रिपोर्ट में शामिल किये गए आवश्यक नीतिगत उपायों के लिए सुझाव :
जैसा कि भारत ने कोविड-19 की दूसरी लहर का सामना किया है और हालिया वर्षों में यह संभवतः मानव जीवन की सबसे चुनौतीपूर्ण स्थिति है, ऐसे में पहले से ही संकटग्रस्त आबादी की सहायता करने के लिये तत्काल नीतिगत उपायों को अपनाने की आवश्यकता है।
प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना (PMGKY) के तहत अतिरिक्त सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) की पात्रता को वर्ष के अंत तक बढ़ाया जाना चाहिये।
मौज़ूदा डिजिटल अवसंरचना का प्रयोग करते हुए विभिन्न संवेदनशील परिवारों को तीन माह के लिये 5,000 रुपए के नकद हस्तांतरण की सुविधा दी जा सकती है। इसमें जन धन खातों का उपयोग किया जा सकता है, किंतु यह सुविधा केवल जन धन खातों तक ही सीमित नहीं होनी चाहिये।
मनरेगा (महात्मा राष्ट्रीय गांधी रोजगार गारंटी अधिनियम) ने एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है और इसके आवंटन को विस्तारित करने की आवश्यकता है।
महामारी से सबसे अधिक प्रभावित ज़िलों में एक शहरी रोज़गार कार्यक्रम को पायलट-प्रोजेक्ट के रूप में शुरू किया जा सकता है, जो संभवतः महिला श्रमिकों पर केंद्रित हो।
ज़मीनी स्तर पर वायरस से मुकाबला कर रहीं 2।5 मिलियन आंगनवाड़ी और आशा कार्यकर्त्ताओं के लिये 30,000 रुपए का एक कोविड-19 कठिनाई भत्ता (छह माह के लिये 5,000 रुपए प्रति माह) घोषित किया जाना चाहिये।