बुंदेलखंड में टीबी रोग को सबसे बड़ी और खतरनाक बीमारी माना जाता है। लोग टीबी रोग के मरीज से किसी भी तरह का संपर्क नहीं रखना चाहते हैं। ऐसे में मरीज और उनके परिवारजन परेशान हो जाते हैं। ऐसे में लोग सरकारी अस्पताल के चक्कर लगाने से बचते हैं क्योंकि सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर मरीज पर ध्यान नहीं देते। न ही मरीज के प्रति सतर्कता बरतते हैं। इस कारण जांच रिपोर्ट में लापरवाही की शंका बनी रहती है।
CHHATARPUR. टीबी रोग सालों से दुनिया भर में फैला हुआ है। इसके रोकथाम के लिए अलग-अलग स्तर पर कार्य किया जा रहा है। फिर भी टीबी रोग से मुक्ति नहीं मिल पा रही है जबकि टीबी रोग का इलाज संभव है। यह जानकर अचंभा होगा कि दुनिया भर में हर दिन लगभग 52 सौ लोग टीबी से मरते हैं और हर दिन 30 हजार लोग टीबी की जद में आकर बीमार पड़ते हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में करीब 14 सौ लोगों की मौत हर रोज टीबी के कारण हो रही है। सरकार इस बीमारी के दुष्परिणामों को जानती है। इसलिए कई स्वास्थ्य कार्यक्रम चला रही है लेकिन जमीनी स्तर पर सही तरीके से काम नहीं हो रहा है।
छतरपुर CHHATARPUR में कोई भी सरकारी योजना कागज पर अलग और जमीनी स्तर पर बहुत अलग दिखाई देती है। जहां पर लोग जागरूक और पढ़े-लिखे होते हैं, वहां पर योजना अलग तरीके से लागू होती है और जहां पर अशिक्षित लोग होते हैं, वहां पर योजनाएं केवल कागज पर रह जाती है। इसी का एक उदाहरण छतरपुर जिले की स्वास्थ्य सुविधाओं से जुड़ा हैं।
बुंदेलखंड का छतरपुर जिला अपने पिछड़ेपन के लिए देशभर में कुख्यात है। यहां पर लोगों में जागरूकता का अभाव है। इस कारण अफसरशाही चरम पर है। इस वजह से योजनाएं समय पर लोगों तक नहीं पहुंच पा रही है। यही हाल सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं का है। यहां पर उप स्वास्थ्य केंद्रों, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में डॉक्टरों की भारी कमी है। जिले का अधिकांश इलाका ग्रामीण है। इसलिए सरकारी कर्मचारी ग्रामीण स्तर पर काम करना नहीं चाहते हैं। यदि जिला स्वास्थ्य प्रशासन किसी कर्मचारी की पदस्थापना ग्रामीण क्षेत्र में करता है तो वह कर्मचारी मुख्यालय पर नहीं रहता है। केवल ड्यूटी के लिए वहां जाते हैं। सरकारी प्रशासन योजनाओं को जमीन पर उतारने की जगह कागजों में उतारने में रुचि दिखाता है।
स्वास्थ्य विभाग का अमला मुख्यालयों पर नहीं रहता इसलिए उनके क्षेत्र के लोगों से रिश्ते नहीं बन पाते है। इसके चलते स्थानीय लोगों को सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएं ठीक से नहीं मिल पाती हैं। इसका एक उदाहरण टीबी मरीजों को दी जाने वाली पोषण आहार राशि है। जिले में बीते 5 साल में 64813 मरीज को टीबी हुई है लेकिन भुगतान केवल 22291 लोगों को ही हुआ है। इस सबके बाद भी कोई मरीज सरकारी अस्पताल का रुख करता है तो उसे समय पर और सही से इलाज नहीं दिया जाता।
बुंदेलखंड में टीबी रोग को सबसे बड़ी और खतरनाक बीमारी माना जाता है। लोग टीबी रोग के मरीज से किसी भी तरह का संपर्क नहीं रखना चाहते हैं। ऐसे में मरीज और उनके परिवारजन परेशान हो जाते हैं। ऐसे में लोग सरकारी अस्पताल के चक्कर लगाने से बचते हैं क्योंकि सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर मरीज पर ध्यान नहीं देते। न ही मरीज के प्रति सतर्कता बरतते हैं। इस कारण जांच रिपोर्ट में लापरवाही की शंका बनी रहती है। इन सब समस्याओं से बचने के लिए रोगी प्राइवेट अस्पतालों का रुख करते हैं। मरीज को प्राइवेट इलाज की प्रामाणिकता पर संदेश नहीं होता है। इन्हीं सब कारणों के चलते जिला के ज्यादातर मरीज प्राइवेट इलाज करवाते हैं, जिसकी पुष्टि सरकारी आंकड़े भी करते हैं।
टीबी रोग का प्राइवेट इलाज करवाने वालों का आंकड़ा साल दर साल बढ़ता ही जा रहा है। सरकारी आंकड़े के अनुसार साल 2018 में 12670 मरीज टीबी से संक्रमित पाए गए, जिनमें से 9282 लोगों ने प्राइवेट इलाज करवाया। साल 2019 में 11957 लोग टीबी से संक्रमित हुए, जिनमें से 8094 लोगों ने प्राइवेट डॉक्टर से इलाज करवाया। साल 2020 में कुल 10130 लोग संक्रमित पाए गए, जिनमें से 6992 मरीज ने निजी अस्पतालों में इलाज करवाया। साल 2021 में 16545 लोग टीबी की जद में आए, जिनमें से 13677 लोगों ने प्राइवेट इलाज लिया और साल 2022 में 13511 टीबी मरीज मिले, इनमें से 10443 ने प्राइवेट इलाज लिया। जब हमने इस विषय में छतरपुर के जिला टीबी अधिकारी डॉ. शरद चौरसिया से बात की तो उनका कहना था कि छतरपुर में बाहर के लोग ज्यादा इलाज के लिए आते हैं। इसलिए प्राइवेट इलाज करवाने वालों का आंकड़ा ज्यादा है।
नौगांव टीबी अस्पताल के अधीक्षक डॉ. राकेश चतुर्वेदी का कहना है कि रोगियों को सरकारी इलाज पर विश्वास कम होता है। इसलिए वह प्राइवेट इलाज लेते हैं। जबकि सरकार फ्री में दवाइयां और पोषण आहार देती है।
यह लेख पत्रकार शिवाषीश तिवारी ने तैयार किया है, जिनका चयन रीच इंडिया फेलोशिप में हुआ है।
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