हिन्दी भाषा के ग्रामीण पत्रकार शिरीष खरे की पुस्तक ‘राजपाल एंड संस, नई दिल्ली’ से प्रकाशित होकर अब बाजार में उपलब्ध हो गई है, पुस्तक का नाम है- एक देश बारह दुनिया । इसमें शिरीष खरे ने हासिये पर छूटे असल भारत की तस्वीर खींचने की कोशिश की है।
एक देश बारह दुनिया पुस्तक में भारत के सात राज्यों से दूरदराज की बारह अलग-अलग जगहों के रिपोर्ताज हैं। इसमें उन्होंने वर्ष 2008 से 2017 तक, महाराष्ट्र के मेलघाट से नर्मदा नदी के बरमान घाट होते हुए छत्तीसगढ़ के अछोटी गांव तक करीब एक दशक की अपनी रिपोर्टिंग से जुड़े यात्रा-अनुभवों को दर्ज किया है। इस दौरान उन्होंने हिन्दी के अलावा मराठी, गुजराती, कन्नड़ भाषाओं और बुंदेलखंड, छत्तीसगढ़, राजस्थान के थार तथा जनजातीय अंचलों में बोली जाने वाली बोलियों के लोगों के साथ लंबा समय बिताया है। उन्होंने अपनी यात्राओं में अक्सर यातायात के सस्ते और सार्वजनिक साधनों का इस्तेमाल किया है।
शिरीष ने मध्य-प्रदेश में नरसिंहपुर जिले के एक छोटे से आदिवासी गांव मदनपुर से निकलकर अठारह वर्ष की उम्र में पहली बार भोपाल जैसे बड़े शहर को देखा था। इसके बाद उन्हें नौकरियों के कारण कुछ बड़े शहरों में रहने का मौका मिला। इसके बावजूद उनके रिपोर्ताज देश के अति पिछड़े क्षेत्रों से सीधे या परोक्ष तौर पर जुड़ी हुए हैं। अधिकतर ऐसे क्षेत्रों से जिनके नामों के बारे में बहुत कम सुना या जाना गया है। उन्होंने इस पुस्तक में भारत के कुलीन व देश की आबादी के विशाल बहुमत के बीच बढ़ती खाई और उदासीनता के टापूओं पर रोशनी डाली है।
अपनी पुस्तक के बारे में अनुभव साझा करते हुए शिरीष बताते हैं, “भले ही इन दस वर्षों की तुलना में हमारे शहरों और दूरदराज के गांवों के बीच भौतिक अवरोध तेजी से मिट रहे हों, लेकिन सच्चाई यह है कि उतनी ही तेजी से एक सामान्य चेतना में गांव और गरीबों के लिए जगह सिकुड़ती जा रही है। गांव के देश में गांव शहरों पर निर्भर हो रहे हैं और उत्पादक ग्रामीण उपभोक्ता बन रहे हैं।”
पुस्तक की भूमिका में लेखक लिखते हैं कि जब सांख्यिकी आंकड़ों के विशाल ढेर में छिपे आम भारतीयों के असल चेहरे नजर नहीं आ रहे हैं, तब ‘एक देश, बारह दुनिया’ पुस्तक के सहारे भारत की आत्मा कहे जाने वाले गांवों के अनुभवों को साझा करने की कोशिश की गई है.
यहां मेलघाट की पहाड़ियों पर भूख, नर्मदा नदी किनारे की डूब, सूरत जैसे शहर में लूट की छूट, मदकूद्वीप के खंडहर, मराठवाड़ा के मैदानी रास्तों पर दर-दर की ठोकरें, खेत-खलिहान के सूखे , बस्तर के जंगल में रक्तरंजित संघर्ष, रेगिस्तान में महिलाओं पर हिंसा से जुड़ी रोजमर्रा की कहानियों को आपस में बांधकर एक महादेश की वास्तविकताओं को एकाकार किया गया है।
मेलघाट में व्यवस्था व विकास से विस्थापित तथा जंगल के मालिकों से मजदूर बनने की मार झेल रहे कोरकू जनजाति की लघुकथाएं हैं। वहीं, कमाठीपुरा में कमाठीपुरा से बाहर जीने की कल्पना छोड़ चुकी सेक्स—वर्करों के अनुभव और उनकी सोलह गलियों के भीतर का भरा-पूरा बाजार और संसार है।
कनाडी बुडरुक में सर्द हवा और लंबी दुर्गम पगडंडियों से होकर तिरमली घुमंतू परिवारों के एक जगह बस्ती बनाकर रहने के पीछे का संघर्ष है। इन्हीं पगडंडियों के सहारे वे आज भी वर्तमान से अतीत और अतीत से वर्तमान की न जाने कितनी यादों की सवारी कर रहे हैं।
दूसरी ओर, आष्टी में दो बड़े खंभों के बीच बंधी एक रस्सी के ओर छोर तक चल चलकर चौराहे पर जमा भीड़ के आगे तमाशा दिखाती आठ बरस की बच्ची और उसके पीछे हैरतअंगेज खेल दिखाकर अपना पेट पालने वाली पूरी सैय्यद मदारी जमात की पहचान है। विडंबना यह कि आजादी के सात दशक बाद भी ये ‘भारतीय’ होने की लड़ाई लड़ रहे हैं।
मस्सा में हर दिवाली के बाद जब सूरज का धुंधलका सड़क के दोनों ओर बिखरा होता है और मुंह अंधेरे एक के पीछे एक कई ट्रैक्टर-ट्रालियां दौड़ रही होती हैं तब यह दृश्य इस बात की गवाही देता है कि गुलाबी ठंड के दिन गन्ना मजदूरों के लिए कई प्रकार की यातनाएं लेकर आ चुके हैं।
मस्सा के नजदीक महादेव बस्ती में ऐसा स्कूल है जहां पुलिस और पत्रकार तभी रुख करते हैं जब आसपास कोई आपराधिक घटना होती है। पहाड़ी अंचल की ओट में परिवर्तन का ऐसा छोटा लेकिन पक्का भवन जहां पढ़ने वाली लड़कियों का किस्सा जानने के बाद उनकी पढ़ाई के दृश्य असाधारण नजर आते हैं।
संगम टेकरी के उजड़े ठिकाने में यहां के बाशिंदों के बार-बार और लगातार अपनी झापड़ियों सहित उखड़ने और नुकसान झेलते रहने की त्रासदी है। एक महानगर के आम जन जहां अब सामान्य सपने देखने से डरते हैं।
इसी दौरान बरमान से कई कोस आगे-पीछे नर्मदा के कैचमेंट एरिया की खदानों में खनन, जंगलों की अंधाधुंध कटाई, परमाणु बिजलीघर के खतरे, बड़े बांध, विस्थापन, बहु-विस्थापन, अधूरी नहरें, सब्जी के बागों और जीव विविधता पर संकट, कोयला बिजलीघरों जैसी नई आफतें, मैकेनाइज्ड फार्मिंग के साइड इफेक्ट, बड़े शहरों से लेकर छेाटे कस्बों तक पानी की मांग का दबाव, ठेकेदारी और प्रदूषण के खतरे एक नदी को मैदान बना रही है।
राजस्थान के थार में बायतु के इर्दगिर्द जाति व्यवस्था की शिकार तीन महिलाओं के कटु अनुभव, जो गांव वालों के लाख विरोध के बावजूद न्याय के लिए अदालत तक गईं, लेकिन लौटीं तो गांव छूट गया। उनके हर शब्द पीढ़ियों की पीड़ा से उपजे प्रतिरोध के स्वाभाविक मनोभाव हैं, जो परंपरागत प्रवृत्तियों के विरुद्ध परिवर्तन के वाहक भी हो सकते हैं।
देश के दूसरे छोर पर दरभा यानी अकूत संपदाओं से संपन्न भारत के निर्धन लोगों की धरती और उजाड़-कथाओं के दौर में एक रक्तरंजित पीड़ास्थल है, एक ऐसी स्थिति है जहां ‘नगरीय नक्सली’ प्रायोजित प्रताड़ना का बन चुकी है। इस घाट से प्रवेश करते हुए यह प्रश्न मन में आता है कि क्या जीवन का कोई मूल्य नहीं है, या यहां से होकर गुजरना मानवीयता के और अधिक निकट जैसा होगा।
मदकूद्वीप स्मृतियों की यात्रा का ऐसा द्वीप है जहां से लोग पलायन कर चुके हैं और खंडहरों में हजारों साल पुराने अतीत की गूंज है, जो एक सभ्यता के उसके स्थान से उजड़ जाने के अबूझ प्रश्न को अपनी आंखों से देख लेने की उत्सुकता का बिंदु बन गया है।
अंत में, अछोटी और सूखाग्रस्त इलाके के अधिकतर परिवार जब रोजी-रोटी की तलाश में गांव छोड़ गए, जिंदा रहने की रणनीति के तहत जब हर तीसरे घर से कोई न कोई सदस्य गांव छोड़ मजदूरी के लिए बाहर निकल गए और पेट और अनाज की अधूरी इचछाओं के बीच की दूरी को पाटने के लिए जब कई जिंदगियां दर-दर भटक गईं तब सरकार ने ऐसे हालात से निपटने के लिए मुआवजा बांटने की घोषणा कर दी। लेकिन, ऊंट के मुंह के समान आपदा के आगे राहत राशि एक तो जीरे के बराबर थी और उस पर भी अनयिमितताओं की बाढ़ ने किसानों के घाव पर नमक छिड़कने का काम किया।
शिरीष मूलत: 2002 में जनसंचार में स्नातक की डिग्री लेने के बाद पिछले अठारह वर्षों से ग्रामीण पत्रकारिता में सक्रिय है1 भारतीय प्रेस परिषद सहित पत्रकारिता से सबंधित अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। देश के सात राज्यों से एक हजार से ज्यादा स्टोरीज और सफरनामे प्रकाशित हुए है। खोजी पत्रकारिता पर ‘तहकीकात’ और प्राथमिक शिक्षा पर ‘उम्मीद की पाठशाला’ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है।
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प्रसन्नता और सुकून मिला कि कोई असल भारत के गंवई सुदूर देहात की ज़िंदगी के सच को रिपोर्ताज की शक्ल दे सका.1986 में एक दलित की संघर्ष कथा को औपन्यासिक रिपोर्ताज के रूप में लिखा था मैंने….अब बूढ़ा, जर्जर, हूँ. यह किताब मुझे तसल्लीदेह लगी.देश की अर्थव्यवस्था और अपव्ययी प्रशासनिक मशीनरी,भ्रष्ट सियासत और तमाम कला,संस्कृति,शिक्षा,खेल,धर्म आदि का बोझ ढो रहे बहुसंख्यक ग्रामीण खेतिहर मजूर, स्त्री-पुरुषों के भयावह,सच को अभी भी लिखा जाना शेष है….शिरीष को शुभकामना ,ये ज़ज़्बा अटूट रहे!